23 मई 1984 : “बछेंद्री पाल एवरेस्ट शिखर पर खड़ी थी”-पहली भारतीय जिसने यह कर दिखाया था!
Pen Point 23 May 1984 : भारतीय पर्वतारोहण के साथ ही उत्तराखंड 23 मई यानी आज का दिन काफी गौरवशाली है। इसी दिन बछेंद्री पाल माउंट ऐवरेस्ट पर फतह हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला बनी थी। उत्तरकाशी जिले के नाकुरी गांव में एक साधारण परिवार में जन्मी बछेंद्री पाल की सफलता ने अनेक युवा लड़कियों को हिम्मत और हौसला दिया। दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ने के दुर्गम और रोमांच को उन्होंने एक लेख में साझा किया है। पेश है उस लेख के कुछ अंश-
1984 का भारतीय एवरेस्ट अभियान भारत का पहला मिश्रित (महिला-पुरुष संयुक्त) पर्वतारोहण अभियान था, जिसका मुख्य उद्देश्य भारतीय महिलाओं को माउंट एवरेस्ट फतह करने की चुनौती का सामना करने का अवसर प्रदान करना था। इस अभियान में मेरे सहित कुल सात महिलाएं थीं। यह मेरा पहला प्रमुख अभियान था, जबकि अन्य अधिकांश सदस्य अनुभवी पर्वतारोही थे। टीम के मिश्रित होने के कारण कुछ स्वाभाविक समस्याएं भी सामने आईं — पसंद-नापसंद, मनमुटाव और कुछ सदस्यों की ऊर्जा का गैर-उत्पादक दिशा में लग जाना। एक नवसिखुआ पर्वतारोही होने के नाते मेरा ध्यान केवल पर्वतारोहण पर था, जो प्रतिदिन जीवन और मृत्यु के संघर्ष जैसा होता था। फिर भी, मुझे भी अभियान के सबसे निर्णायक मोड़ पर इन कड़वे अनुभवों से गुजरना पड़ा। एवरेस्ट ने मेरी क्षमता और दृढ़ संकल्प की सबसे कठोर परीक्षा ली।
15-16 मई 1984, बुद्ध पूर्णिमा की रात, मैं ल्होत्से की बर्फीली ढलानों पर बसे कैंप III में थी। हमारे रंग-बिरंगे नायलॉन तंबू खड़े थे। मेरे साथ दस अन्य लोग कैंप में थे। लोप्सांग शेरिंग मेरे तंबू में थे। एनडी शेरपा और आठ अन्य हाई एल्टीट्यूड शेरपा पोर्टर अन्य तंबुओं में थे। मैं गहरी नींद में थी जब रात 12:30 बजे किसी कठोर वस्तु के सिर पर लगने और जोरदार विस्फोट की आवाज़ से मेरी नींद टूटी। तभी मैंने अपने ऊपर एक बेहद भारी और ठंडी वस्तु को महसूस किया, जो मुझे कुचल रही थी। मैं मुश्किल से सांस ले पा रही थी।
दरअसल, हमारे कैंप के ठीक ऊपर ल्होत्से ग्लेशियर पर एक बड़ा बर्फ का स्तंभ (सेराक) टूट गया था और इससे एक विशाल हिमस्खलन हुआ, जिसने हमारी पूरी कैंपसाइट को तहस-नहस कर दिया। यह बर्फ, हिमखंड और जमी हुई बर्फ की एक विशाल दीवार ट्रेन की गति से हमारे ऊपर आ गिरी। लगभग सभी घायल हो गए। यह किसी चमत्कार से कम नहीं था कि कोई मरा नहीं।
लोप्सांग ने अपने स्विस चाकू से तंबू काटकर बाहर निकलने का रास्ता बनाया और मुझे बचाने की कोशिश शुरू कर दी। अगर देर होती, तो मेरी मौत निश्चित थी। उन्होंने जम चुकी बर्फ को हटाकर मुझे बाहर निकाला।
सभी तंबू नष्ट हो चुके थे, केवल रसोई तंबू बचा था। हम वहां पहुंचे तो एनडी शेरपा वॉकी-टॉकी पर कैंप II से बात कर रहे थे। उन्होंने बताया कि उनकी पसलियां टूट गई हैं। एक शेरपा का पैर टूट गया और अन्य भी घायल थे। चारों ओर से कराहों और मदद की पुकारें सुनाई दे रही थीं। लेकिन एनडी ने हिम्मत दिखाते हुए कहा कि “अभियान में अभी भी जान बाकी है।”
मैंने अपने फर्स्ट-एड बॉक्स से सबको दर्द निवारक गोलियां दीं और गर्म पेय तैयार किए। लोगों के काम आने से मुझे खुद पर विश्वास लौटने लगा।
जल्द ही बचाव दल आ गया। 16 मई की सुबह 8 बजे तक हम लगभग सभी लोग कैंप II पहुंच चुके थे। घायल शेरपा को अस्थायी स्ट्रेचर पर नीचे लाया गया। हमारे नेता कर्नल खुल्लर ने कहा, “यह उच्च हिमालयी क्षेत्र में एक अद्भुत बचाव अभियान था।”
मेरे सिर की चोट अब धड़कने लगी थी, लेकिन मैंने उसे किसी से नहीं कहा।
जब पुरुष साथी चोट या आघात के कारण बेस कैंप लौटने लगे, तब मेरे नेता ने मुझसे — उस शिखर दल की एकमात्र महिला सदस्य — पूछा कि क्या मैं फिर से शिखर प्रयास करना चाहूंगी। मैंने तुरंत कहा, “हां सर, मैं कोशिश करूंगी।” इस निर्णय ने मेरी सफलता की नींव रखी। मुझे लगा कि जब जीवन बच गया है, तो शायद यह ईश्वर का संदेश है कि मुझे एवरेस्ट तक अपनी नियति पूरी करनी है। मैं एक नई ऊर्जा से भर गई थी।
22 मई को नया शिखर दल साउथ कॉल के लिए रवाना हुआ, जो 26,000 फीट की ऊंचाई पर था। मैं उस दल की एकमात्र महिला थी और अब अभियान की सारी उम्मीदें मुझ पर थीं। मैंने पहले ही अपनी आंतरिक शक्ति पहचान ली थी और तय कर लिया था कि मैं अपनी पूरी ताकत झोंक दूंगी। मैं सबसे पहले साउथ कॉल पहुंची और जब अन्य सदस्य नीचे से ऊपर आ रहे थे, तो मैं उनके लिए थर्मस में चाय बनाकर कुछ दूरी तक नीचे गई। पर्वतों में ऐसे छोटे-छोटे काम भी साथियों के मनोबल में बड़ा योगदान देते हैं। लेकिन मेरे इस व्यवहार को कुछ पुरुष साथियों ने गलत समझा, क्योंकि वे खुद ऐसा नहीं कर पाए। मैंने साफ किया कि मैं पहले एक पर्वतारोही हूं, और साथी पर्वतारोहियों की मदद करना मेरा कर्तव्य है।
23 मई 1984 की सुबह, मैंने 4 बजे उठकर चाय बनाई और थोड़ी बिस्कुट और आधा चॉकलेट स्लैब खाया। बाहर का मौसम शांत था। मैंने पर्वतारोहण के उपकरण पहन लिए, जो ऑक्सीजन की कमी के कारण काफी कठिन था। ऐसे ऊंचाई पर शरीर और दिमाग की समन्वय क्षमता बेहद कम हो जाती है। साउथ कॉल से ऊपर यह केवल चढ़ाई नहीं बल्कि “जीवित रहने की लड़ाई” होती है।
मैं 5.30 बजे बाहर आई, जहां शेरपा सिरदार अंग दोरजे खड़े थे। वह बिना ऑक्सीजन के चढ़ाई करने वाले थे और ठंड के कारण उन्हें जल्दी लौटना जरूरी था। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं उनके साथ चलना चाहूंगी। मैंने हामी भरी और हम 6.20 बजे साउथ कॉल से चढ़ाई शुरू की।
ढलानें बर्फ की शीशे जैसी सख्त थीं, और हमें हर कदम जमाकर रखना होता था। दो घंटे से कम समय में हम शिखर कैंप पहुंच गए। अंग दोरजे हैरान थे कि मैं थकी नहीं थी। उन्होंने कहा, “अगर इसी गति से चले, तो दोपहर 1 बजे तक शिखर पर होंगे।”
हम साउथ समिट पार करके हिलेरी स्टेप पर पहुंचे। वहां से जब मैंने देखा कि चढ़ाई समाप्त हो चुकी है और आगे ढलान है — तो समझ गई कि शिखर बस कुछ ही कदम दूर है।
और 23 मई 1984, दोपहर 1:07 बजे, मैं माउंट एवरेस्ट के शिखर पर खड़ी थी — भारत की पहली महिला जिसने यह कर दिखाया था।
वहां मुश्किल से दो लोग एक साथ खड़े हो सकते थे। हमने खुद को बर्फ में आइस-एक्स से बांध लिया। मैं घुटनों के बल बैठी, माथा बर्फ पर टेका, और दुर्गा माँ की मूर्ति व हनुमान चालीसा निकालकर प्रार्थना की। मेरे मन में माता-पिता की याद आई, जिन्होंने संघर्ष का महत्व सिखाया।
अंग दोरजे को मैंने प्रणाम किया, जिन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया। उन्होंने गले लगाकर कहा, “तुमने बहुत अच्छा चढ़ाई किया, दीदी।”
थोड़ी देर बाद सोनम पुलजोर आए और तस्वीरें लीं। तिरंगा, ‘सेवन सिस्टर्स’ और टाटा स्टील का झंडा फहराया गया।
हमने शिखर पर 43 मिनट बिताए और फिर 1.55 बजे उतरना शुरू किया। उतरते समय मैंने गॉगल्स हटा दिए, यह सोचकर कि बर्फ नहीं है तो बर्फ अंधता नहीं होगी। लेकिन असली कारण था पराबैंगनी किरणें, जिससे बाद में मुझे आंखों में तकलीफ हुई।
लेकिन तब तक, मैं इतिहास रच चुकी थी — एवरेस्ट पर भारत की पहली महिला