हुआ यूं था… जब स्थानीय लोगों ने ढाई लाख एकड़ जंगल विरोध स्वरूप फूंक डाले
जंगलों पर अंग्रेजों के नियंत्रण से नाराज कुमाउं और गढ़वाल जिले में सौ साल पहले जंगलों को फूंकने को चला था आंदोलन
PEN POINT, DEHRADUN : उत्तराखंड को यूं तो वन एवं पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों के लिए जाना जाता रहा है, इत्तेफाक है कि इसी महीने पेड़ों को कटान से बचाने के लिए चिपको आंदोलन सरीखा पर्यावरण संरक्षण आंदोलन के पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं लेकिन वन पर्यावरणों को बचाने के आंदोलनभूमि के नाम से जाना जाने वाला यह राज्य एक बार जंगलों का दुश्मन भी बन गया था। करीब सौ साल पहले अंग्रेजी हुकूमतों के खिलाफ राज्य की बड़ी आबादी ने कुमाउं और गढ़वाल के जंगलों को आग के हवाले कर दिया था। उस साल भी सर्दियों में बारिश की बूंद न बरसी लेकिन फरवरी से लेकर मई महीने तक करीब ढाई लाख एकड़ जंगल विरोध स्वरूप फूंक दिया तो 35 लाख किलो से भी अधिक लीसा डिपो और जंगलों में ही जला दिया। वनों में हक हकूकों पर अंग्रेजों की दखलअंदाजी से नाराज पहाड़ के बाशिंदों ने तब जंगलों को राख बनाकर अपना विरोध जताया।
हुआ यूं था कि कुमाउं मंडल और गढ़वाल जनपद अंग्रेजी प्रशासन के अधीन था, लिहाजा जंगलों से जुड़े हुए नियम कानून भी अंग्रेजों के हितों को साधने वाले थे। पहाड़ की ज्यादातर आबादी जंगलों मिलने वाले चारा पत्ती से पशुपालन का व्यवसाय करती तो जंगलों से मिलने वाली सूखी लकड़ी जलावन के काम आती। लेकिन, अंग्रेजों ने विविधताओं भरे जंगलों को नष्ट कर चीड़ का व्यापक स्तर पर वृक्षारोपण शुरू कर दिया। पूरे पहाड़ चीड़ के जंगलों से भरे जाने लगे। लीसा व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेजों ने घने जंगलों को खत्म कर चीड़ वन क्षेत्र का क्षेत्रफल बढ़ाना शुरू कर दिया।
इससे पूर्व पहाड़ी इलाके में सर्दियां खत्म होने से पहले ग्रामीण सूखी घास पर आग लगा दिया करते थे ताकि वसंत ऋतु में जब बारिश की बूंदे जमीन पर गिरे तो हरी घास जल्दी उग सके। इससे जंगलों को नुकसान नहीं पहुंचा करता था क्योंकि ग्रामीण बेहद सीमित क्षेत्र व चारागाहों में नियंत्रित तरीके से इस वनाग्नि को लगाया करते थे। यहां तक भी मौजूदा दौर में वन विभाग भी सूखी घास और अनियंत्रित झाड़ियों को सूखने पर खुद आग लगा देता है जिससे नई घास व झाड़ियां पैदा हो सके।
खैर, लीसा को लेकर भूखे अंग्रेजों ने जंगलों पर लगाई जाने वाली इस आग पर प्रतिबंध लगाते हुए जंगलों में आग लगाने वाले लोगों पर कठोर दंड का प्रावधान कर दिया। 16 फरवरी को सोमेश्वर के तथा 22 अप्रैल को टोटाशिलिंग के जंगलों में आग लगाई जानी शुरू की गई। दोनों क्षेत्रों में 80 हजार एकड़ में से करीब 63 हजार एकड़ जंगल जलकर राख हो गए। इस आग की चपेट में आकर अंग्रेजों के 2 लीसा डिपो भी जलकर नष्ट हो गये। इस वनाग्नि को रोकने के लिए अंग्रेजों का सहयोग करने से स्थानीय लोगांे ने इंकार कर दिया। यह आग इतनी व्यापक थी कि अंग्रेजों के 10 से 12 साल में तैयार किए गए चीड़ के पेड़ और उन पर की गई मेहनत बर्बाद हो रही थी। अंग्रेजों ने वनाग्नि रोकने के लिए हर संभव कोशिश की। यहां तक कि वनों में आग लगाने वाले की सूचना देने पर उस दौरान 500 रूपये का इनाम तक रखा गया। विभिन्न समाचार पत्रों के जरिए लोगांे से अपील की गई कि वह जंगलों में आग न लगाए। फरवरी से लेकर मई तक ही कुमाउं और गढ़वाल में करीब ढाई लाख एकड़ में फैले जंगल वनाग्नि की चपेट में आकर नष्ट हो गये। वनाग्नि की घटनाओं से गुस्साए अंग्रेजों ने तब कुली बेगार प्रथा के खिलाफ आवाज बुलंद किए बद्रीदत्त पांडे समेत कई स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों पर वनाग्नि के मुकदमे लाद दिए। अब तक छापामार तरीके से जंगलों को आग के हवाले करने वाले ग्रामीणों में पहली गिरफ्तारी सोमेश्वर की दुर्गा देवी की हुई। उन्हें थकलोड़ी के जंगलों में आग लगाने के जुर्म में गिरफ्तार कर एक महीने की सजा दी गई।
वहीं, गढ़वाल में जंगलों में आग लगाने की जिम्मेदारी पहले विश्वयुद्ध से लड़कर अवकाश पर आए गढ़वाल के फौजियों ने उठाई। छुट्टी पर आए ये फौजी वनों पर अंग्रेजों के कब्जे से गुस्साए थे और जगह जगह जंगलों को आग के हवाले कर रहे थे। जंगलों को आग के हवाले करने और वन अधिकारियों को धमकाने के आरोप में तब अंग्रेजी पुलिस ने 39वीं गढ़वाल रायफल के चार जवानों को गिरफ्तार किया था।
जंगलों को आग के हवाले होते देख अंग्रेजों का गुस्सा सातवें आसमान पर था। मई महीने आते आते अंग्रेजों ने वनाग्नि रोकने के नाम पर आम नागरिकों का दमन करना शुरू कर दिया। बच्चों से लेकर बुजुर्गों को सिर्फ संदेह के आधार पर गिरफ्तार किया जाने लगा।
जंगलों का व्यापारिक दोहन करने की अंग्रेजों की योजना के खिलाफ पूरा पहाड़ सुलग रहा था। लीसा के लिए पनपाए गए चीड़ के जंगल नष्ट कर दिए गए, चीड़ के पेड़ों पर लीसा एकत्र. करने के लिए लगाए गए निकासी से जमा साढ़े 11 लाख किलो लीसा वहीं जला दिया गया, जगह जगह बने डिपो में रखे करीब 24 लाख किलो लीसा आंदोलनकारी ग्रामीणों ने जलाकर नष्ट कर दिया। पूरा पहाड़ धधक रहा था। चैड़ी पत्ती वाले जंगलों को नष्ट कर चीड़ के जंगल पनपाने वाले अंग्रेजों को स्थानीय लोग बड़ा सबक दे चुके थे।
(स्रोत – उत्तराखंड का समग्र राजनैतिक इतिहास – डाॅ. अजय सिंह रावत)