सोशल मीडिया पर फूलदेई गुलजार, असल में क्यों मायूस हैं इस बार फुलारी
PEN POINT DEHRADUN : आज सोशल मीडिया पर उत्तराखण्ड के लोकपर्व फूलदेई के रंग खूब बिखर रहे हैं। लेकिन असल में इस मर्तबा बच्चों का ये खूबसूरत त्यौहार फीका नजर आ रहा है। नन्हें हाथों में फूलकंडी रीती सी दिख रही है। जो फूल गांव के आस पास खेत खलिहानों से ये फुलारी झटपट चुनकर ले आते थे, उनके लिए उन्हें काफी दूर जंगल तक दौड़ लग रही है। फिर भी पौ फटने से पहले कूदते फांदते गांव पहुंचकर घरों की देहरियों पर फूल डाल रहे हैं। लेकिन मौसम की मार से बेजार हुए वसंत की मायूसी हर ओर महसूस की जा सकती है।
दरअसल इस बार सर्दियों में मौसम के रुखे मिजाज ने पहाड़ों को गर्म और धूसर बना दिया है। पूरी सर्दियों में उत्तराखंड के अधिकांश हिस्सों में बारिस नहीं हुई। वहीं जिन इलाकों में बर्फबारी होती है वहां बिल्कुल भी बर्फ नहीं गिरी। ऐसे में वनस्पतियों का अपना चक्र भी बदल गया। जिन पेड़ पौधों में वसंत में बौर या फूल आते थे। उनमें फरवरी में ही गुल खिलने के बाद या तो गिर गए या फिर फ्रूटिंग होने लगी। रही सही कसर कई इलाकों में बेमौसम की बारिस और ओलावृष्टि ने कर दी।
चैत माह के आगमन पर मीन संक्रांति को मनाये जाने वाले बाल पर्व फूलदेई पर भी मौसम का असर पड़ा है। इस दिन बच्चे फयूंली, ग्वीराल, हिंसर, किनगोड़, लाई, पय्यां, आड़ू, बुरांस आदि के फूल चुनते हैं। पेन प्वाइंट संवाददाता पंकज कुशवाल ने उत्तरकाशी से देहरादून लौटते हुए कई गांवों में फूलदेई के उत्साह को टटोला। उन्होंने बताया कि पहाड़ के बड़े हिस्से में ये फूल गांवों के आस पास नजर नहीं आ रहे। दूर जंगल के पास कुछ नम जगहों पर ही मौसम के मुताबिक फ्लावरिंग दिख रही है। इस बारे में अधिकांश लोगों से बातचीत में भी यही बात सामने आई है।
पहले पूरे माह चलता था फुलदेई
रुद्रप्रयाग जिले के क्वल्ली गांव निवासी रविंद्र सिंह असवाल के मुताबिक मीन संक्राति को शुरू होने वाला फूलदेई पहले चैत्र के पूरे माह चलता था। बच्चे हर सुबह टोली बनाकर गाना गाते हुए घरों की देहरियों में फूल डालते थे। बदले में उन्हें गुड़ चावल और पैसे मिलते थे। बच्चे घोघा माता से गांव की सुख समृद्धि की कामना करते थे। लेकिन अब समय के साथ अष्टमी तक यानी आठ दिनों का ही यह त्यौहार रह गया है। कई शहरी और कस्बाई इलाकों में एक दिन ही मनाया जाता हैा
लैंटाना खा गई स्थानीय पौधों और फूलों को
विदेश से भारत पहुंचकर झाड़ीदार लेंटाना वनस्पति ने भी पहाड़ों की पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत बिगाड़ दी है। पर्यावरण कार्यककर्ता द्वारिका सेमवाल बताते हैं कि बीते तीन दशक में लैंटाना फैलकर पहाड़ों में 1200 मीटर से अधिक की ऊंचाई तक पहुंच गया है। इसके इर्द गिर्द अन्य वनस्पतियां तेजी से खत्म होती चली जाती हैं। पहाड़ के स्थानीय हिंसर, किनगोड़, कुणजा जैसी वनस्पतियां इसी वजह से तेजी से लुप्त हो रही हैं। इसके अलावा आयुर्वेदिक औषधियों के लिए इनका अंधाधुंध तरीके से दोहन भी हो रहा है।
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