सावरकर : जितने समर्थक, उससे ज्यादा आलोचक
– आज दामोदार सावरकर की 140वीं जयंती, महात्मा गांधी की हत्या की साजिश रचने का लगा था आरोप
– कालापानी सजा के दौरान अंग्रेजों को माफीपत्र देने को लेकर भी होती रही आलोचना, भाजपा दिखाती रही है स्नेह
PEN POINT, DEHRADUN : साल 1926 में चित्रगुप्त नाम के एक अज्ञात लेखक की किताब मद्रास स्थित एक पब्लिसिंग कंपनी की ओर से प्रकाशित की गई, किताब का नाम था ‘द लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर’। इस किताब को विनायक दामोदर सावरकर की पहली जीवनी थी। इस किताब में सावरकर को खूब महिमामंडिल किया गया था, उन्हें देश का नायक बताया गया। उन्हें वीर की उपाधि दी गई और नया नाम दिया गया वीर सावरकर। करीब 36 साल पहले इस किताब का दूसरा संस्करण छप कर आया तो किताब की प्रस्तावना में डॉ. रवींद्र वामन रामदास खुलासा करते हैं कि इस किताब को छाप कर सावरकर को वीर की उपाधि देने वाला, उसके साहस का महिमामंडन करने वाला लेखक चित्रगुप्त कोई और नहीं बल्कि खुद सावरकर ही थे जिन्होंने चित्रगुप्त के नाम से किताब लिखकर खुद को वीर की उपाधि दी थी।
भारतीय राजनीति में विनायक दामोदर सावरकर के जितने समर्थक है उससे कई गुना आलोचक भी। आज विनायक दामोदर सावरकर और खुद उनके अनुसार वीर सावरकर की 140वीं जयंती है। बीते कुछ सालों से भारतीय राजनीति में विवाद का केंद्र बन चुके सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को हुआ था। सावरकर ने नौ साल की उम्र में अपनी माता और 16 वर्ष की आयु में अपने पिता को खो दिया था। सावरकर का पालन पोषण उनके बड़े भाई गणेश ने की। उन्होंने मैट्रिक तक की पढ़ाई नासिक के शिवाजी हाईस्कूल और बी.ए. पुणे के फर्ग्युसन कालेज से की। आगे की पढ़ाई के लिए वह लंदन गए थे।
युवावस्था में सावरकर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति करना चाहते थे। उन्होंने लंदन में रहते हुए किताब लिखकर 1857 के सैनिक विद्रोह को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया था। इटली के क्रांतिकारी मैजिनी से प्रभावित सावरकर ने उनकी जीवनी का मराठी में अनुवाद किया था। सावरकर को अंग्रेज अफसर जैक्सन की हत्या के षडयंत्र में शामिल होने के लिए अंडमान की सेल्यूलर जेल की सजा मिली थी
सावरकर कुल 9 साल 10 महीने सेल्यूलर जेल रहे। वहां से निकलने के लिए उन्होंने अंग्रेजों को छह बार माफीनामा लिखा था। वहां से निकलने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें महाराष्ट्रके रतनागिरी और यरवदा जेल में रखा। वहीं उन्होंने ‘हिन्दुत्व’ नामक किताब लिखी। जेल से आजाद होने के बाद सावरकर लगभग आजादी की लड़ाई से विमुख रहे। आजादी के बाद वह गांधी हत्या मामले में आरोपी भी रहे। हालांकि साक्ष्य के अभाव में उन्हें सजा नहीं हो पायी थी।
भाजपा और दक्षिणपंथी संगठन जहां आज सावरकर को भारतीय आजादी का प्रमुख हीरो बताने पर तुला है तो वहीं एक बड़ा वर्ग उनके अंग्रेजों को माफीनामा लिखने और जेल से छूटने के बाद अपना पूरा ध्यान आजादी की लड़ाई से हटाकर गांधी का विरोध करने के लिए उनकी आलोचना करता है।
1913 में अंग्रेजों ने अंग्रेज अफसर जैक्सन की हत्या के मामले में सावरकर को 50 साल की कैद के लिए अंडमान की सेल्यूलर जेल भेजा लेकिन कुल 9 साल10 महीने ही वहां रखा। इस दौरान सावरकर ने अंग्रेजों को छह बार माफीनामा लिखा। अंग्रेजों को लिखी दयायाचिकाओं को पढ़िए े –
1. “सरकार अगर कृपा और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादारी का कट्टर समर्थक रहूँगा जो उस प्रगति के लिए पहली शर्त है“.
2. “मैं सरकार की किसी भी हैसियत से सेवा करने के लिए तैयार हूँ, जैसा मेरा रूपांतरण ईमानदार है, मुझे आशा है कि मेरा भविष्य का आचरण भी वैसा ही होगा.“
3. “मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने पर उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा. केवल पराक्रमी ही दयालु हो सकता है और इसलिए विलक्षण पुत्र माता-पिता के दरवाजे के अलावा और कहां लौट सकता है?“
4. “मेरे प्रारंभिक जीवन की शानदार संभावनाएँ बहुत जल्द ही धूमिल हो गईं. यह मेरे लिए खेद का इतना दर्दनाक स्रोत बन गई हैं कि रिहाई एक नया जन्म होगा. आपकी ये दयालुता मेरे संवेदनशील और विनम्र दिल को इतनी गहराई से छू जाएगी कि मुझे भविष्य में राजनीतिक रूप से उपयोगी बना देगी. अक्सर जहां ताकत नाकाम रहती है, उदारता कामयाब हो जाती है.“
5. “मैं और मेरा भाई निश्चित और उचित अवधि के लिए राजनीति में भाग नहीं लेने की शपथ लेने के लिए पूरी तरह तैयार हैं. इस तरह की प्रतिज्ञा के बिना भी खराब स्वास्थ्य की वजह से मैं आने वाले वर्षों में शांत और सेवानिवृत्त जीवन जीने का इच्छुक हूँ. कुछ भी मुझे अब सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने के लिए प्रेरित नहीं करेगा.“
सावरकर पर ये आरोप लगता रहा है कि रिहा होने के बाद उन्होंने औपनिवेशिक शासन की नीतियों का समर्थन किया और भारत के स्वतंत्रता संग्राम से खुद को दूर रखा। उनके आलोचक ये भी कहते हैं कि सावरकर अंग्रेज सरकार से हर महीने 60 रूपए की पेंशन भी लेते थे। हालांकि, सावरकर के प्रशंसक अक्सर कहते हैं कि “उन्होंने जेल में मरने की जगह राष्ट्रसेवा करने का रास्ता चुना इसीलिए माफ़ीनामे की चाल चली“।
लेकिन इतिहासकारों का एक तबका यह भी मानता है कि सावरकर ने अपनी रिहाई के बाद का सारा समय महात्मा गाँधी के खिलाफ माहौल बनाने में बिताया। 1937 में पूरी तरह रिहा होने से लेकर 1966 में अपनी मृत्यु तक सावरकर ने ऐसा कुछ नहीं किया जिसे राष्ट्रसेवा कहा जा सके। 1923 में उन्होंने अपनी किताब में ’भारत हिन्दू राष्ट्र है’ लिखकर सीधे तौर पर अंग्रेज़ों की मदद करना तय किया। अंग्रेज़ों ने उन्हें हिन्दू महासभा को संगठित करने का अधिकार दिया और उनकी पेंशन तय की। इसी पेंशन को लेकर उनकी खूब आलोचना होती है। लेकिन, विनायक दामोदर सावरकर के परिजन इस आरोप को सिरे से नकारते हैं। उनके परिजन रणजीत सावरकर ने एक बार बयान जारी कर कहा था कि सावरकर को मिलने वाला पैसा पेंशन नहीं बल्कि नजरबंदी भत्ता था जो सभी दलों के राजनीतिक बंदियों को दिया जाता था। अपने बयान में वह कहते हैं कि क्योंकि सरकार आपको एक ऐसी जगह पर रख रही थी जहां आपके पास आजीविका कमाने का कोई ज़रिया नहीं था और सावरकर को रत्नागिरी में रखा गया था और उन्हें वकालत करने की अनुमति नहीं थी क्योंकि उनकी एलएलबी की डिग्री मुंबई विश्वविद्यालय ने रद्द कर दी थी और उन्हें रत्नागिरी में भी कानून की प्रैक्टिस करने की अनुमति से वंचित कर दिया गया था। सावरकर की करोड़ों की संपत्ति जब्त कर ली गई. क्या वह 60 रुपये की पेंशन के लिए समझौता करेंगे?
साल 2000 में वाजपेयी सरकार ने तत्कालीन राष्ट्पति केआर नारायणन को सावरकर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ’भारत रत्न’ देने का प्रस्ताव भेजा था जिसे नारायणन ने अस्वीकार कर दिया था। उसके बाद से लगातार एक तबका सावरकर को भारत रत्न देने की मांग करता रहा है। हाल के वर्षों में सावरकर को भारत रत्न देने की मांग को लेकर महाराष्ट्र विधानसभा की ओर से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भी भेजा गया।
RSS के आलोचक !!!
भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज विनायक दामोदर सावरकर के सबसे बड़े समर्थक हैं। वह सावरकर को हिंदुत्व राष्ट्रवाद का जन्मदाता मानते हैं और उनके महिमामंडन का आरोप भी संगठन पर लगता रहा है। वहीं, विनायक दामोदर सावरकर संघ के बारे में क्या सोचते थे यह भी अपने आप में दिलचस्प है। दक्षिणपंथी संगठनों पर काम कर रहे विभिन्न इतिहासकारों की माने तो एक संगठन के तौर पर सावरकर आरएसएस को बहुत महत्व नहीं देते थे, 1937 में सावरकर ने कहा था कि आरएसएस के स्वयंसेवक का स्मृति-लेख कुछ ऐसा होगा, “वह पैदा हुआ था, वह आरएसएस में शामिल हो गया और बिना कुछ हासिल किए मर गया।“