किताब : अटल-आडवाणी की “जुगलबंदी” और प्रधानमंत्री आडवाणी (1995)
Pen Point, Dehradun : भारतीय राजनीति पर लिखी गई किताबों में जुगलबंदी एक नई तरह का प्रयोग है। जिसके लेखक हैं विनय सीतापति। पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज पीवी नसिम्हा राव की जीवनी द हाफ लायन लिखकर सीतापति सुर्खियों में आए थे। जुगलबंदी में लेखक अटल आडवाणी की जोड़ी के साथ भारतीय जनता पार्टी के उभार की पड़ताल करते हैं। नरेंद्र मोदी से पहले भाजपा के राजनीतिक सफर को समझाते हुए उन्होंने अटल और आडवाणी के रिश्ते पर बहुत बारीकी से काम किया है। भारतीय राजनीति की सबसे मशहूर जोड़ी पर केंद्रित होने के बावजूद यह किताब आरएसएस, जनसंघ और भाजपा के सफर की पूरी तस्वीर बयां करती है।
किताब को उलटने पर इसका आमुख यानी भूमिका का शीर्षक ही चौंकाने वाला है- प्रधानमंत्री आडवाणी (1995), इसमें वो इतिहास दर्ज है, जब आडवाणी की अगुआई में भाजपा को सत्ता हासिल हुई थी और उन्हें प्रधानमंत्री पद का एकमात्र दावेदार माना जा रहा था। लेकिन आडवाणी ने खुद अटल बिहारी वाजपेई का नाम आगे कर दिया। उनके इस फैसले को आरएसएस और भाजपा का एक धड़ा आज तक नहीं पचा पा रहा है। किताब आडवाणी के इस कदम के पीछे उनकी सोच और वजहों को भी बताती है।
भाजपा के स्थापित होने तक के इतिहास को किताब में तीन खंडों में बांटा गया है। पहला खंड 1924 से 1980 के कालखंड में हिंदुत्व का विचार और राजनीति में उसकी जरूरत की ओर इशारा करता है। इसी खंड में एक अटल विबारी बाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के निकट आने और भारत की सबसे मशहूर राजनीतिक जोड़ी बनने की कहानी है। जबकि दोनों एक दूसरे से एकदम उलट आचार विचार और व्यवहार वाले थे। पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि भी दोनों की एकदम जुदा थी।
अटल-आडवाणी की पहली मुलाकात
दोनों की पहली मुलाकात का उल्लेख कुछ इस तरह किया गया है- अटल बिहारी वाजपेयी पहले ही हिंदी वक्ता के रूप में ख्याति पा चुके थे। यह कौशल उन्हें अपने शिक्षक पिता से विरासत में मिला था। शब्दों की उनकी बाजीगरी के कारण ही दीनदयाल ने पांचजन्य में जगह दी थी। अब 1952 के चुनाव अभियान में वाजपेयी को मुखर्जी के साथ हिंदी अनुवादक के रूप में रखा गया। यही वजह थी कि चुनाव अभियान के चरम पर वाजपेयी रेलगाड़ी में सवार हो मुखर्जी के साथ राजस्थान के कोटा शहर पहुंचे। आरएसएस जनसंघ के चुनावी प्रचार की रीढ़ था और इसलिये स्वाभाविक था कि राज्य में चुनावों का सामन्वय कर रहे प्रचारक स्टेशन पर उन्हें लेने पहुंचे। वह क्षण दो व्यक्तियों के अनोखे रिश्ते की नीवं डालने वाला था।
पहली बार लालकृष्ण आडवाणी की मुलाकात अटल बिहारी वाजपेयी से हुई और पच्चीस वर्षीय आडवाणी। उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए।
व्यक्तिगत जीवन में झांकते हुए
किताब अटल आडवाणी के इर्द गिर्द कई ऐसी घटनाओं को समेटे हुए है जिन्होंने जनसंघ और भाजपा की राजनीति को आकार दिया। जनसंघ के महासचिव और सबसे मजबूत नेता दीन दयाल उपाध्याय की संदिग्ध मौत और उसके बाद बने हालात भी तफसील से बताए गए हैं। इसक अलावा देश विभाजन से लेकर आपातकाल तक का राजनीतिक इतिहास पाठक को नया नजरिया देता है। अटल आडवाणी के व्यक्तिगत जीवन में झांकते हुए राजनीति पर उसके असर को भी देखने की कोशिश की गई है। अटल बिहारी वाजपेयी और राजकुमारी कौल के रिश्ते, वाजपेयी के आर्थिक मददगार, आडवाणी के निजी किस्से भी किताब का हिस्सा हैं।
मोटे तौर पर यह किताब भाजपा की राजनीति से जुड़े कई सवालों के जवाब देने की कोशिश करती है। जैसे- हिंदू राष्ट्रवाद क्या है, क्या सत्ता ने हिंदू राष्ट्रवाद को उदार बनाया और भाजपा क्यों जीतती है, इन सवालों के जवाब तथ्यों के साथ काफी बेहतर ढंग से सामने आते हैं।
अटल- आडवाणी और मोदी-अमित शाह की जोड़ी की तुलना
किताब के अंतिम हिस्से में भाजपा और देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी के साये की ओर इशारा किया गया है। वहीं अटल- आडवाणी और मोदी-अमित शाह की जोड़ी की तुलना भी की गई है। जिसमें वसुंधरा राजे सिंधिया के हवाले से लिखा गया है- वाजपेयी व आडवाणी दोनों संवेदनशील व्यक्ति थे और सहज रूप से हंस या रो सकते थे। मोदी और अमित शाह दोनों में ख़ासियत नहीं है। उनका आपसी रिश्ता अधिक नपा तुला हुआ लगता है। यह कल्पना करना मुश्किल है कि नरेंद्र मोदी कभी अमित शाह के मातहत काम करेंगे, जैसे वाजपेयी और आडवाणी एक नहीं, दो बार अपनी भूमिकाएं बदलने में सक्षम रहे थे। चे ऐसा इसलिए कर पाए कि उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद के आधार में मौजूद मिलजुलकर काम करने की भावना को आत्मसात कर लिया था।
पेंगुइन रेंडम हाउस इंडिया से प्रकाशित इस किताब का हिंदी अनुवाद नीलम भट्ट और सुबोध मिश्र ने किया है।