जानिये क्यों ख़ास है बीज और भोजन के साथ पानी बचाने की ये मुहिम
Pen Point Dehradun : किसी भी समाज का खान पान उसकी संस्कृति का अहम हिस्सा होता है। भारत में खान पान की यह संस्कृति काफी विविधता लिये हुए है। हर राज्य में उसका परंपरागत भोजन थाली में शामिल होता है। हालांकि उत्तराखंड इस मामले में पीछे रहा है, जिससे यहां का परंपरागत खान पान काफी पीछे छूट गया था। लेकिन बीते कुछ सालों में हालात बदलते नजर आ रहे हैं। वजह है गढ़भोज अभियान। उत्तरकाशी के द्वारिका सेमवाल ने इस अभियान के जरिए उत्तराखंडी खान पान को खास पहचान दिलाई है। इसी अभियान का नतीजा है कि अब गढ़भोज पुलिस मैस के मेन्यू में भी शामिल है तो अन्य सरकारी संस्थान भी इसे तवज्जो देने लगे हैं। हाल ही में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी द्वारिका सेमवाल को उनके इस अभियान के लिए सम्मानित किया।
इससे पहले द्वारिका सेमवाल ने बीज बम अभियान से सामाजिक क्षेत्र में नवाचार का बेमिसाल उदाहरण पेश किया था। जंगलों में बीजों के छिड़काव के इस अभियान को काफी सराहना मिली। मानव वन्य जीव संघर्ष को रोकने में यह प्रयोग कई जगहों पर सफल होता भी दिख रहा है। पूरे उत्तराखंड में लोगों और खास तौर पर स्कूली बच्चों ने इस मुहिम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।
बीज बोने के बाद गढ़भोज को बढ़ावा देने के साथ ही द्वारिका ने पानी बचाने की नई मुहिम शुरू कर दी है। जिसके लिये वे उत्तराखंड और हिमांचल के कई इलाकों में पहुंच रहे हैं। कल के लिए जल नाम के इस अभियान का मकसद पानी के रख रखाव के परंपरागत तौर तरीकों को विकसित करना है। लोगों को पानी के उपयोग और उसकी जरूरत को लेकर जागरूक करने की शुरूआत वो कर भी चुके हैं।
पेन प्वाइंट से बातचीत में द्वारिका सेमवाल अपने सफर के बारे में बताते हैं कि उन्होंने पर्यावरण जागरूकता को लेकर देशभर में साइकिल यात्राएं की हैं। इस दौरान उन्होंने महसूस किया कि हर राज्य में स्थानीय फसलें और उनका खान पान के साथ ही आर्थिकी से गहरा जुड़ाव है। तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में देखा कि दक्षिण भारत के लोगों ने अपने यहां बड़ी मात्रा में उगने वाले नारियल, केला व चावल को बेहतरीन तरीके से भोजन का मुख्य हिस्सा बनाया है। यही स्थिति गुजरात, पंजाब और अन्य राज्यों में नजर आई।
द्वारिका सेमवाल याद करते हैं कि उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हम नारे लगाते थे कि कोदा झंगोरा खाएंगे उत्तराखंड बनाएंगे। इस नारे का असली अर्थ साइकिल यात्रा के दौरान समझ में आया। यही अनुभव गढ़भोज मुहिम का आधार बना। यात्रा से लौटकर सबसे पहले हमने गढ़वाल और कुमांउ के सामाजिक कार्यकर्ताओं व भोजन के कारोबार से जुडे़े लोगों से एक कॉमन नाम के बारे में चर्चा की। एक ऐसा नाम जिससे उत्तराखंड के भोजन को जाना जाए। फिर सबकी सहमति से गढ़भोज नाम दिया गया। उत्तरकाशी में युवाओं को तैयार करने के बाद बीस महिलाओं का स्वयं सहायता समूह बनाया। सरकारी विभागों व गैर सरकारी संगठनों से बैठक व प्रशिक्षणों में गढ़भोज परोसने के लिए संपर्क किया गया। समूह को डिमांड मिलती गई। उसके बाद हमने राज्य के अन्य हिस्सों में लोगों को तैयार करने का काम शुरू किया।
बीज बम और कल के लिए जल अभियान को लेकर द्वारिका कहते हैं कि एक स्वस्थ पारिस्थितिकीय तंत्र में चीजें एक दूसरे पर निर्भर करती हैं। पानी के बिना पेड़ और फसल नहीं उगेंगे और ऐसा हुआ तो भोजन भी नहीं मिलेगा। हमारे परंपरागत तौर तरीके इन्हीं बातों पर जोर देते हैं। उसी तरह मेरे अभियान भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम बीज बोने की बात करते हैं तो उसके बेहतर फल के लिए पानी बचाना भी हमारी जिम्मेदारी है। इसी तरह हमें भोजन भी तभी मिलेगा जब हमारे आस पास हरियाली बची रहेगी।