छजुला : रानी बनकर श्रीनगर गई माणा गांव की तरूणी की मार्मिक कथा
Pen Point, Dehradun : ये घटना करीब तीन सौ साल पुरानी है। गढ़वाल राज्य का 51 वां राजा प्रदीप शाह राजधानी श्रीनगर राजकाज संभालने जा रहा था। हालांकि गद्दी उसे पांच साल की छोटी उम्र में ही मिल गई थी, लेकिन वयस्क होने तक उसकी मां रानी कनकदेई ही राजकीय काम देख रही थी। उस दिन परंपरानुसार श्रीनगर से युवा राजा पहले दर्शन को बद्रीनाथ धाम में पहुंचा था। राजा के स्वागत में मंदिर कर्मचारी, धर्माधिकारी, पुजारी के साथ स्थानीय लोग भी मौजूद थे। शुद्धि, मंगलाचार और जयकारे के बीच राजा ने ‘बदरीनाथो विजयते सर्वदा’ कहकर माथा टेका। इसके बाद मंदिर के पिछले भाग में अंगरक्षकों के साथ एक ओर खड़ा हो गया। जहां यात्री माथे से कनकदण्ड को छू रहे थे। यहां पर वे राजा का दर्शन कर बिना सिर घुमाए लौट रहे थे। चारों ओर बर्फ फैली हुई थी, जिस पर सीधी धूप पड़ रही थी।
तभी माणा गांव की तरूणियों का एक समूह वहां पहुंचा। जिनके हाथों में आरती के थाल थे। सभी तरूणियां अपनी बोली में मंगलगान कर रही थीं। दर्शन के बाद उनकी दियों को रावल ने एकत्र कर मंदिर पात्र में रखा। तुलसी दलपत्रों सहित उनके बड्खू कटोरों को भगवान के प्रसाद से भरकर लौटाया। अब वे सब भी मंदिर के पीछे कनकदण्ड को माथे से छूने की प्रतीक्षा में खड़ी थीं। इस बीच उल्टे पांव लौटता एक दर्शनार्थी अपने पीछे वालों को धक्का देते गिरा तो उससे कुछ और लोग भी जमीन पर लोट गए। जिससे उन तरूणियों की हंसी छूट गई। चिडि़यों की चहचहाट की तरह उनके हंसने से वहां माहौल खुशनुमा सा हो गया। लोगों का ध्यान बरबस ही उनकी ओर चला गया। तरूणियों ने उम्दा ऊन के कपड़े पहने थे। काली नीली झांई और ऊपर सफेद रंग की आंगड़ी। माथे पर सफेद पीली ऊनी पट्टी, गले में चांदी का हार। चेहरों का रंगत दमकते तांबे और पीतल के मिश्रण जैसा था। कुल मिलाकार तारतारी नस्ल की ये सभी बालाएं बेहद सुंदर थी।
राजा की नजरें भी बालाओं पर थी। जिसे देख ज्योतिषी बोला- महाराज यही कुबेर मणिभद्र की प्रजा है। जो यह बताती है कि सर्दियों में जो देवता यहां भगवान को पूजते हैं, वे इन लोगों के ही पूर्वज रहे हैं। इनके चेहरों की दैवीय आभा यही महसूस कराती है।
फिर तरूणियों को भेंट देने की रस्म शुरू हुई। दण्डी स्वामी ने छजुला नाम लिया तो समूह की सबसे लंबी और लंबी गरदन वाली कन्या आगे बढ़ी। उसे दो हाथ की दूरी पर निसंकोच, खुली आंखों से अनूठे आत्मविश्वास के साथ देख राजा अचरज से भर उठा। उसके रूप रंग को देखते हुए उसकी बेअदबी का राजा को ख्याल भी नहीं आया। राजा ने उसका नाम पूछा तो उसने लगभग हंसते हुए कहा-छजुला। यह कहते हुए उसकी दंत पंक्ति की झलक से राजा और भी विस्मित हो गया।
राजा अभी नवयुवक था। रनिवास के कठोर पहरे से छूट खुले बछड़े के समान कुछ ही महीनों से राज्य कार्य में भाग लेने लगा था। रावल के कहने पर छजुला ने दोनों हथेलियों को मिलाकर हाथ आगे बढ़ाए। रावल ने ताम्रकलश से उसमें तुलसी जल उड़ेला और वह कन्या उसी छमोटा शैली में गटगट करती जल पीने लगी। इस दौरान उसकी उन्नत गौरवर्ण ग्रीवा की नसों से पानी जैसे अंदर जाते हुए दिख रहा हो। उर्वशी के ऐसे ही रूप पर तो पुरुरवा मोहित हो गया था।
राजा ने संभलकर सबको दान दक्षिणा दी। उसके बाद कारबारियों के प्रधान से मोलफा प्रधान को सायंकाल मिलने बुलाया और अपनी कन्या का हाथ देने को कहा। लड़की का पिता बेहद खुश हुआ और उसने घुटनों के बल बैठकर राजा के चरणों में माथा झुकाया।
घर पहुंचकर उसने अगले दिन कन्या को श्रीनगर विदा करने का फरमान सुना दिया। यह सुनकर छजुला चौंकी और बोली लामा, मुझे नीचे गंगाड़ नहीं जाना। मैं यहीं रहना चाहती हूं जहां कलफांग है, मोलफा बांक में हमारा मकान है, खजाना है, यहां वयामिनी के जंगल में चरते बैल और बीच बीच में कुहुकते मोनाल दिखाई देते हैं। मैं तुम्हारी भेड़ों को जीवन भर चराती रहूंगी यह वचन देती हूं। मुझे गंगाड़ नहीं जाना।
उसकी उद्धत वाणी से मोलफा गर्म हो गया आौर बोला- छोकरी तू जवान हो गई है। क्या अभी तक तेरी पीठ पर नानसा किसी ने किया है, नहीं न, तुझे तब क्या मैं गौरा क तरह गुगे-कुरंग-पुरंग या डंगरी थोलिंग भेजूं जहां तू अणी साधुनी की तरह बर्फ के मुल्क के अभाव भरे वातावरण में जीवन बिताएगी। देख मैं तेरा पिता हूं। तुझे रानी बनाकर भेज रहा हूं। वरना देख मेरा यह खोरू बकरे काटने का और यह घुर्रा चाकू।
छजुला को भी गुस्सा आ गया। बोली लामा, नीचे जाने से अच्छा है कि तुम मेरा यहीं अंत कर दो मेरे मांस को तब गरूड़ खायेंगे, मेरी हड्डियां यही रहेंगी। जिन्हें जिक खा लेगा। फिर मैं अगने जनम में मुनाल बन यहीं नाचती रहूंग। बुग्यालों में तब कोई मुझे गंगाड़ जाने को तो न कहेगा। एक बात बताओ नीलकंठ से उड़कर आते मेरे मुनालों को रोज कौन चारा देगा। कौन उन्हें सर्राटे से लामबगड़ को उड़ते देखेगा।
परंतु मां, भाई, अड़ोस, पड़ोस किसी ने भी छजुला से सहमति प्रकट नहीं की। लिहाजा छजुला का डोला आगे आगे और पीछे राजा की सवारी श्रीनगर लौटी। सैणा श्रीनगर में महल थे, किला था, बाग था, बाजार था, सिपाही-छावनी, हाथी घोड़ा सबकुछ थे, परन्तु न ब्रह्मकमल था न कोकड़ी वोकड़ी बज्रदंती थी न मुनाल थे न बर्फ थी, न पीने को वह ठंडा पानी थी।
वह श्रीनगर आते ही आषाढ़ की उमस भरी गर्मी में बीमार पड़ गई। अलकनंदा का जल पर्याप्त ठंडा था परंतु वह मोलफा बांक हिमनद के हिमजल की मांग करती रही। बार बार कहती मुझे वही ठंडो पाणी पिलाओ। मैं यहां जीवित नहीं रह सकती। मुझे वहीं पहुंचाओ। विवश हो राजा ने वैद्यों से राय लेकर उसे डांडी में वहीं भेजने का प्रबंध किया। डांडी में वह बैठी भी परंतु अचानक ठंडो पाणी कहते हिचकी ले स्वर्ग चली गई।
कहते हैं उस दिन राजधानी श्रीनगर में अंधेरा रहा था और सबने सायंकाल को उसकी पुण्य स्मृति में उपवास रखा था। छजुला की कहानी आज भी गढ़वाल में पुराने लोगों के बीच मौजूद है।
स्रोत- डॉ. शिवप्रसाद नैथानी, गढ़वाल का जनजीवन-2