रामायण और उत्तराखंड: दोष मुक्ति के लिये देवप्रयाग में किया थार श्रीराम ने तप
Pen Point, Dehradun : भागीरथी और अलकनंदा के संगम पर स्थित देवप्रयाग का प्राचीन और वैभवशाली इतिहास रहा है। दो महत्वपूर्ण हिमालयी जलधाराएं संगम के बाद गंगा के नाम से यहीं से आगे बढ़ती हैं। इसी नगर में मौजूद है प्राचीन रघुनाथ मंदिर। इस मंदिर का उल्लेख स्कंद पुराण के केदारखंड में मिलता है। जिसके अनुसार त्रेता युग में ब्ररघुनाथ मंदिर देवप्रयाग और यहां विश्वेश्वर शिवलिंगम की स्थापना की। इसलिए यहां रघुनाथ मंदिर की स्थापना हुई जिसमें श्रीराम के रूप में भगवान विष्णु की पूजा होती है।
देवप्रयाग के पौराणिक महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केदारखंड में इस जगह पर 11 अध्याय है। कहा जाता है कि ब्रह्मा ने यहां दस हजार वर्षों तक भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था। इसीलिए देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ व सुदर्शन क्षेत्र भी कहा गया। यह भी मान्यता है कि मुनि देव शर्मा ने यहां 11 हजार वर्षों तक तप किया थां। जिससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु यहां प्रकट हुए और उन्होंने देव शर्मा को त्रेतायुग में देवप्रयाग लौटने का वचन दिया। भगवान विष्णु ने राम अवतार में देवप्रयाग आकर उस वचन को निभाया। माना जाता है कि श्रीराम ने ही मुनि देव शर्मा के नाम पर इस स्थान को देवप्रयाग नाम दिया।
रघुनाथ मंदिर बेहद दर्शनीय है। इसका निर्माण नागर शैली में किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में काले पत्थर से बनी छह फीट ऊंची चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है, लेकिन पूजा करते हुए मूर्ति की दो बाहों को ढक दिया जाता है। अलौकिक सा दिखने वाला यह मंदिर अन्य मंदिरों की तरह किसी चट्टान या दीवार पर नहीं टिका है। बल्कि गर्भगृह के केंद्र में स्थित है। मुख्य मंदिर के सबसे उपर साने का कलश और गर्भगृह में भगवान राम की भव्य मूर्ति विराजमान है। जिसके हाथों पर आभूषण और सिर पर स्वर्ण मुकुट है। हाथों में धनुष-बाण और कमर में ढाल लिए श्रीराम के एक ओर माता सीता और दूसरी ओर लक्ष्मण की मूर्ति है। मंदिर के सिंहद्वार तक पहुंचने के लिए 101 सीढ़ियां बनी हुई हैं।
देवप्रयाग की मान्यता भारत के साथ ही नेपाल में भी समान रूप से है। दोनों देशों के 108 दिव्य धर्मस्थलों में इसका नाम आदर से लिया जाता है। यहीं अलकनंदा व भागीरथी नदी के संगम पर गंगा का उद्भव होता है। इसी कारण देवप्रयाग को पंच प्रयागों में सबसे अधिक महत्व मिला। हिमालयन गजेटियर में ईटी एटकिंसन लिखते हैं-देवप्रयाग गांव एक छोटी सपाट जगह पर खड़ी चट्टान के नीचे जलस्तर से सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित था। उसके पीछे 800 फीट ऊंचे उठते पर्वत का एक कगार था। जल के स्तर से ऊपर पहुंचने के लिए चट्टानों की कटी एक बड़ी सीढ़ी है, जिस पर मवेशी भी चढ़ सकें। इसके अलावा रस्सी के दो झूला पुल भागीरथी और अलकनंदा नदी के उस पार जाने के लिए उपलब्ध हैं।
पंवार वंश को शापित कर दिया था
देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर को लेकर एक अलग तरह की मान्यता भी रही है। सन् 1785 में पंवार वंश के राजा जयकृत सिंह ने देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में खुदकशी कर ली थी। कहा जाता है कि राजा के साथ चार रानियां भी यहां सती हुई थी। उनके लिये रानी सती मंदिर समर्पित है। कहा जाता है कि उन्होंने पंवार वंश को शापित कर दिया था। यही कारण है कि पंवार वंश का कोई भी सदस्य मंदिर की ओर नहीं देखता। उस घटना के बाद से जब भी पंवार वंश के राजा के देवप्रयाग आगमन पर मंदिर को पूरी तरह ढक दिया जाता।