“बौखनाग तो भौत दयालू देवता है, इतना बड़ा दोष नहीं दे सकता”
सिलक्यारा टनल में फंसे मजदूरों को बचाने के लिये तकनीक के साथ अब आस्था का भी सहारा लिया जा रहा है। लिहाजा निर्माण कंपनी ने सुरंग के बाहर एक कंटेनर से छोटा सा मंदिर बना दिया है। जिसमें बाबा बौखनाग से मजदूरों की सही सलामती की मिन्नतें की जा रही हैं। सुरंग हादसे के बाद से ही स्थानीय लोग इसकी मांग कर रहे थे।
कौन है बौखनाग देवता
जिस पहाड़ी पर सिलक्यारा और पौल गांव के बीच सुरंग खोदी जा रही है उसके ठीक ऊपर चोटी पर है बौखनाग का मंदिर। समुद्रतल से करीब 2500 मीटर की उंचाई वाली इस जगह को बौख टिब्बा कहा जाता है। जिसके चारों ओर ढलान पर बांज, बुरांस और खर्सू का विशाल घना जंगल है। यह जंगल पहाड़ खुद में पानी के असंख्य चश्मे समेटे हुए है। तलहटी पर बसे गांवों को पानी से लेकर जिंदा रहने की हर चीज यह जंगल सदियों से दे रहा है। इन्हीं गांवों में बौखनाग के पुजारियों का गांव मंजगांव भी है। सिलक्यारा से करीब पांच किलोमीटर दूर इस गांव के लोग भी सुरंग हादसे से बेहद दुखी हैं। पूरा गांव रात दिन अपने ईष्ट से मजदूरों की खैरियत मांग रहा है।
बौखनाग भी उत्तराखंड में नागवंशी गढ़पतियों की पूजा परंपरा का एक हिस्सा है। उत्तरकाशी जिले के भंडारस्यूं, दशगी, मुगरसंती और गोडर खाटल इलाकों में बौखनाग देवता का बड़ा असर है। यहां बौखनाग और सिलक्यारा के पास नागल गांव के नगेला नाग की बहुत सी लोक कथाएं प्रचलित हैं। बताया जाता है कि एक बार हिमांचल से विश्वा राणा नाम का राजा बारात लेकर हिमांचल जा रहा था। किसी वजह से उसने राड़ी के जंगल में पहाड़ी को पार करते हुए बौखनाग की पूजा नहीं दी। सिलक्यारा पहुंचने पर नगेला नाग उसके सामने प्रकट हो गया और पूरी बारात को निगल गया। इस इलाके में ये कथाएं लोकगीतों और जागरों में गूंजती है। हर साल बौख पर्वत की चोटी पर मेला लगता है और पूजा की जाती है।
मंजगांव के पुजारी परिवार के ओमप्रकाश बिजल्वाण बताते हैं कि “हम लोग भी बौखनाग की पूजा के साथ अपनी परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं।” बौखनाग का आशीष उनके इस जंगल के रूप में हमें मिलता है, यही वजह है कि हम देवता से लगातार प्रार्थना कर रहे हैं कि सुरंग में फंसे लोगों को बचा दे। यह पूछने पर कि क्या इसे बौख देवता की नाराजगी या प्रकोप कह सकते हैं, ओमप्रकाश जोर से बोले अरे नहीं भाईसाब बौखनाग तो भौत दयालू देवता है, इतना बड़ा दोष नहीं दे सकता। हालांकि जैसी कैसी बात से तो बौख रूष्ट नहीं होता, पर जब होता है तो खण्ड मण्ड भी खूब करता है।
मंजगांव के अनिल सेमवाल भी इस प्रोजेक्ट की धरासू साइट पर काम करते हैं। बकौल अनिल “हमने तो अपने बड़े बुजुर्गों से बौखनाग की कथाएं सुनी है, समय के साथ इनमें से कुछ बातों पर हम भरोसा करते हैं, इन कथाओं में बहुत सी ऐसी बातें हैं जो इस क्षेत्र के हिसाब से बहुत व्यावहारिक भी हैं”।
उत्तराखंड की लोककथाओं पर काम कर रहे रंगकर्मी जयप्रकाश राणा के मुताबिक इतिहास जिसे भूल जाता है किंवदंतियां और लोककथाएं उसे याद रखती हैं। हमने पाया है कि लोक कथाओं को बारीकी से समझा जाए तो इनके पीछे लोक कल्याण का खास मकसद रहता है। कहा जा सकता है कि अगर ऐसी लोककथाओं की डिकोडिंग की जाए तो ऐसे कई सवालों के जवाब मिल सकते हैं जिन्हें वैज्ञानिक तलाश रहे होते हैं।