जलवायु परिवर्तन: फीकी पड़ रही हर्सिल के रॉयल सेब की रंगत
Pen Point, Dehradun : पहाड़ में खेती किसानी पर जलवायु परिवर्तन का बड़ा असर पड़ रहा है। खास तौर पर उच्च हिमालयी इलाकों में किसान इस समस्या का सामना कर रहे हैं। जहां सेब और आलू जैसी नकदी फसलों से लेकर परंपरागत फसलें भी इसकी जद में हैं। मौसम के बरताव से किसान हैरान हैं और उन्हें इसका हल नहीं सूझ रहा है। उच्च हिमालयी इलाकों में पहले बर्फबारी दिसंबर और जनवरी में होती थी। लेकिन अब यह समय बदल गया है और फरवरी और मार्च तक बर्फबारी हो रही है। इसके अलावा समुद्र तल से 2000 मीटर से उपर के इन इलाकों में अब तेज बारिश और ओलावृष्टि होने लगी है। जिसके कारण खड़ी फसलें खराब हो जाती हैं।
फसलों पर क्या हो रहा है असर
उत्तरकाशी जिले का हर्सिल क्षेत्र सेब, आलू और राजमा जैसी नकदी फसलों के लिये विख्यात है। दो समुद्रतल से 2700 मीटर उंचाई पर इस ठंडे इलाके में दो साल पहले सामान्य से ज्यादा गर्मी हुई। जिसके कारण खेतों में बोई गई आलू की फसल में कीड़े लग गए। ये आफत इतनी बड़ी थी कि आलू की फसल के बाद कीड़े आस पास की घास को भी चट कर गए। पूरे इलाके में उस साल पशु चारे के लिये भी घास नहीं मिल सकी।
हर्सिल के रहने वाले माधवेंद्र रावत के मुताबिक आलू की फसल पर मौसमी बदलाव के कारण ही कीड़े लगे थे! पहले की तुलना में अब मौसम काफी बदल गया है, अब फरवरी मार्च में बर्फ पड़ती है जिससे ज्यादा चिलिंग रिक्वायरमेंट वाली फल प्रजातियों को पर्याप्त बर्फ नहीं मिलती, रॉयल सेब इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, अब इस नस्ल का सेब पहले जैसी मात्रा में नहीं हो रहा है, जबकि ज्यादा तापमान में होने वाले लो हाइट के सेब अब यहां अच्छे हो रहे हैं।
गौरतलब है कि रॉयल सेब उंचाई वाले उन इलाकों में होता है जहां खूब बर्फ होती है और इसे लगातार कम से कम माइनस सात डिग्री तक की ठंडक चाहिए। जबकि पंद्रह सौ मीटर के आस पास की उंचाई पर लो हाइट का सेब होता है जो सामान्य तापमान में भी फल देता है।
बर्फबारी के समय में आए बदलाव के साथ ही एक उच्च हिमालयी इलाकों में बारिश के साथ ओलावृष्टि भी होने लगी है। मोरी के किसान जय सिंह के मुताबिक पहले उपर के इलाके में ओले नहीं पड़ते थे और बारिश की बहुत महीन बूंदें गिरती थी, लेकिन अब फरवरी मार्च यानी ठीक फलों की फ्रूटिंग के समय ये दोनों मुसीबतें एक साथ बरस जाती हैं, जिससे फूल झड़ जाते हैं और फ्रूट सेटिंग ठीक से नहीं हो पाती, लिहाजा उपज भी बहुत कम रह जाती है।
हर्सिल के निकट धराली के किसान संजय पंवार बताते हैं कि पिछले करीब दस सालों से हमने मौसम बरताव में बदलाव को महसूस किया है, शुरू में तो यह सामान्य लगा लेकिन अब हालात और कठिन होते जा रहे हैं, स्नोलाइन पीछे हटने के कारण यहां कम उंचाई वाली वनस्पतियां पहुंच रही हैं, जबकि उच्च हिमालयी दुर्लभ वनस्पतियां कम हो रही हैं, ठीक यही स्थिति फसलों के साथ भी हैं।
कृषि विशेषड डॉ़. पंकज नौटियाल इसे किसानों के लिये चुनौती मानते हैं, वे कहते हैं कि उच्च हिमालय के साथ ही मध्य हिमालय के किसान भी जलवायु में बदलाव का सामना कर रहे हैं, इस पर विभिन्न शोध और अध्ययन चल रहे हैं और कि कैसे इन परिस्थतियों को देखते हुए तकनीकी विकसित की जाए। फिलहाल उच्च हिमालयी इलाकों में एंटी हेलनेट और दवाओं के जरिए फसलों की सुरक्षा का विकल्प मौजूद है।