आज का दिन: जब चुनाव आयोग को शेषन के रूप में मिले दांत और नाखून
PEN POINT, DEHRADUN : 12 दिसंबर 1990, चुनाव आयोग के दफ्तर में 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में एक ऐसा शख्स पदभार ग्रहण कर रहा होता है जो अगले छह सालों तक मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में एक ऐसी लकीर खींच देता है जो देश के नौकरशाहों के लिए नजीर तो बनती है साथ ही वह शख्स इतिहास में भारतीय चुनावों में अभूतपूर्व सुधारों का मुख्य किरदार बन जाता है। वह शख्स जो चुनाव आयुक्त बनने के बाद दावा करता है कि वह हर सुबह नाश्ते में राजनेताओं को खाता है। जिस पर देश के नेता आरोप लगाते है कि उसने लोकतंत्र में ‘लॉक डाउन’ लगा दिया है।
साल 1990 में देश में जनता दल की सरकार थी, देश के प्रधानमंत्री थे चंद्रशेखर और वाणिज्य वित्त मंत्री थे सुब्रमण्यम स्वामी। देश में नए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति होनी थी, वाणिज्य मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी को खुद से उम्र में बड़े लेकिन हावर्ड यूनिवर्सिटी में अपने छात्र रहे योजना आयोग के सदस्य टीएन शेषन इस पद के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति लग रहे थे। उन्होंने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को भी इस बात के लिए राजी कर दिया कि तमिलनाडु केडर के आईएएस और योजना आयोग के सदस्य टीएन शेषन को अगला मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया जाए। सुब्रमण्यम स्वामी के प्रस्ताव के बाद टीएन शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के प्रस्ताव को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी से राय ली। राजीव गांधी ने उन्हें यह पद स्वीकार करने की सलाह देने के साथ ही व्यंग्यपूर्ण ढंग से कहा कि वो दाढ़ी वाला शख्स उस दिन को कोसेगा, जिस दिन उसने तुम्हें मुख्य चुनाव आयुक्त बनाने का फैसला किया था। राजीव गांधी का दाढ़ी वाले शख्स से मतलब तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से था।
12 दिसंबर 1990 को देश के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में टीएन शेषन ने पदभार संभाला। साल 1932 में तमिलनाडु में पैदा हुए टीएन शेषन पहले स्टेट पुलिस सर्विस के लिए चुने गए लेकिन प्रशिक्षण पर जाने की बजाए उन्होंने साल 1954 में आईएएस क्लियर किया और उन्हें तमिलनाडु कैडर मिला। कुछ सालों तमिलनाडु में विभिन्न पदों पर सेवाएं देने के बाद 1969 से केंद्र सरकार के संस्थानों में सेवाएं देने लगे। साल 1985 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल के दौरान वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में सचिव पद पर तैनात किए गए। उनके कार्यकाल के दौरान वन एवं पर्यावरण को लेकर कई सख्त कानून बने। उत्तराखंड में टिहरी नगर को डुबोते हुए बन रहे टिहरी बांध को लेकर भी टीएन शेषन ने कड़ा विरोध किया। उन्होंने इस बांध से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को लेकर भी केंद्र सरकार को सचेत किया।
1989 में राजीव गांधी सत्ता से बाहर हुए तो प्रधानमंत्री के तौर पर वीपी सिंह ने कमान संभाली तो टीएन शेषन कैबिनेट सचिव पद पर तैनात किए गए। अगले साल 12 दिसंबर 1990 को उन्हें देश के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया। इसी दिन से देश में चुनावी सुधार का काल भी शुरू हो गया।
मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त होने के बाद उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि चुनाव आयोग की स्वायत्तता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि मेरे एक पूर्ववर्ती ने सरकार को पत्र लिख कर कहा था कि उन्हें 30 रुपये की मंज़ूरी दी जाए ताकि वो एक किताब खरीद सकें, उन दिनों चुनाव आयोग के साथ सरकार के एक पिछलग्गू जैसा व्यवहार किया जाता था। उस इंटरव्यू में वह बताते हैं कि मुझे याद है कि जब मैं कैबिनेट सचिव था तो प्रधानमंत्री ने मुझे बुला कर कहा कि मैं चुनाव आयोग को बता दूँ कि मैं उक्त-उक्त तारीखों को चुनाव करवाना चाहता हूं।मैंने उनसे कहा, हम ऐसा नहीं कर सकते. हम चुनाव आयोग को सिर्फ़ ये बता सकते हैं कि सरकार चुनाव के लिए तैयार है।
उनका दावा था कि उनसे पहले मुख्य चुनाव आयुक्त, कानून मंत्री के दफ्तर के बाहर बैठ कर इंतजार किया करते थे कि कब उन्हें अंदर बुलाया जाएगा। लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर मैंने तय किया कि मैं कभी ऐसा नहीं करूंगा। टीएन शेषन ने दफ्तर के उन लिफाफों पर तक रोक लगा दी थी जिसमें लिखा होता था कि चुनाव आयोग भारत सरकार। उनका मानना था कि मुख्य चुनाव आयुक्त के नाते वह भारत सरकार का हिस्सा नहीं है और आयोग स्वायत्त संस्था है।
हर चुनाव को किया स्थगित
चुनाव आयुक्त बनते ही शेषन के पास वैधानिक शक्तियां आ गई थी। अब उन्हें मंत्रालय या सरकार से डरने की कोई जरुरत नहीं थी। 1991 में लोकसभा चुनावों और उसके बाद हुए तमाम विधानसभाओं में शेषन का असर दिखाई दिया। जहां गड़बड़ी की शिकायत होती, वो तुरंत चुनाव रोककर नए सिरे से चुनाव की घोषणा कर देते। चुनाव सुधार को लेकर नेता टीएन शेषन ने खार खाए हुए थे। नेताओं की नाराजगी इस कदर थी कि उनका नाम अलशेषन (कुत्तों की एक नस्ल) रख दिया गया था। साल 1995 में जब शेषन ने बिहार में कई सीटों पर चुनाव खारिज कर दिए तो लालू प्रसाद यादव का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। लालू ने “शेषन वर्सेज द नेशन” का नारा देकर शेषन पर लगाम कसने का अभियान शुरू कर दिया। उनके खिलाफ सदन में महाभियोग चलाने की सिफारिश की गई लेकिन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने ऐसा होने नहीं दिया। राव को लग रहा था कि ऐसा करने से जनता में सरकार की छवि ख़राब होगी। मुख्य चुनाव आयुक्त बनते ही टीएन शेषन ने यह साफ कर दिया कि चुनाव आयोग भारत सरकार के अंतर्गत नहीं आता है लिहाजा आयोग को सरकार आदेश नहीं दे सकती। उसके बाद उन्होंने ऐसा कुछ किया कि भारतीय राजनीति और राजनेताओं के बीच उथल पुथल मच गई। 2 अगस्त, 1993 को रक्षाबंधन के दिन टीएन शेषन ने एक 17 पेज का आदेश जारी किया कि जब तक सरकार चुनाव आयोग की शक्तियों को मान्यता नही देती, तब तक देश में कोई भी चुनाव नहीं कराया जाएगा। उस आदेश में लिखा था कि जब तक वर्तमान गतिरोध दूर नहीं होता, जो कि सिर्फ़ भारत सरकार द्वारा बनाया गया है, चुनाव आयोग अपने-आप को अपने संवैधानिक कर्तव्य निभा पाने में असमर्थ पाता है। और आयोग ने तय किया है कि उसके नियंत्रण में होने वाले हर चुनाव, जिसमें हर दो साल पर होने वाले राज्यसभा के चुनाव और विधानसभा के उप चुनाव भी, जिनके कराने की घोषणा की जा चुकी है, आगामी आदेश तक स्थगित रहेंगे।
आजादी के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त की ओर से ऐसे फैसले की उम्मीद न तो देश को थी न नेताओं। इस आदेश की चारों तरफ आलोचना होनी शुरू हो गई। टीएन शेषन ने पश्चिम बंगाल की राज्यसभा सीट पर चुनाव नहीं होने दिया जिसकी वजह से केंद्रीय मंत्री प्रणब मुखर्जी राज्यसभा के लिए नहीं चुने जा सके और उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। इस घटना से पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने उन्हें पागल कुत्ता कह डाला। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने तो इस फैसले को प्रजातंत्र को लॉक आउट करना बता दिया।
मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर टीएन शेषन चुनाव आयोग को ज्यादा ताकतवर बनाने के हिमायती थे जिससे देश में पारदर्शी चुनाव सुनिश्चित हो सके। लेकिन, उनका यह तरीका सरकार को पसंद नहीं आ रहा था। तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार पर मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने का दबाव बनने लगा लेकिन प्रधानमंत्री मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाकर कोई गलत संदेश नहीं देना चाहते थे तो उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त को नियंत्रित करने के लिए नया तरीका निकाला। उन्होंने चुनाव आयोग में दो और चुनाव आयुक्तों जीवीजी कृष्मामूर्ति और एमएस गिल की नियुक्ति कर दी। 1 अक्टूबर1993 को जब शेषन पुणे में थे सरकार ने जीवीजी कृष्णामूर्ति और एमएस गिल को नया चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिया। लेकिन, टीएन शेषन ने इन चुनाव आयुक्तों से सहयोग नहीं किया। जब टीएन शेषन अमेरिका गए तो उन्होंने इन दोनों के बजाए उप चुनाव आयुक्त डीएस बग्गा को अपना चार्ज सौंपा। शेषन के इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि शेषन की अनुपस्थिति में एमएस गिल मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर काम करेंगे।
फोटोयुक्त वोटरकार्ड करवाए शुरू
चुनावों फर्जी वोट तब चुनाव आयोग के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी। मतदान के दौरान फर्जी वोटों पर लगाम लगाने के लिए उन्होंने सरकार के पास प्रस्ताव भेजा कि वोटर आईडी कार्ड पर मतदाताओं की फोटो लगाई जाए। सरकार ने यह मांग यह कहकर खारिज कर दी कि मतदाता कार्डों पर फोटो लगाने में बहुत खर्चा होगा। लेकिन, टीएन शेषन भी अड़ गए। उन्होंने भी फैसला सुना दिया कि जब तक मतदाता पहचान पत्रों पर मतदाताओं के फोटो नहीं लगाएगे जाएंगे तब तक देश में एक भी चुनाव नहीं होगा। सरकार टीएन शेषन के अड़ियल रवैये से वाकिफ थी लिहाजा साल 1993 में फोटो वाले मतदाता पहचान पत्रों की शुरूआत की गई।