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जब टिहरी रियासत में नहीं थी दो भैंस रखने की इजाजत

– 30 के दशक के आखिर में नई वन व्यवस्था लागू करने के बाद ग्रामीणों के वनाधिकारों में कर दी टिहरी राजपरिवार ने कटौती, ग्रामीणों को थी सिर्फ एक भैंस पालने का अधिकार
Pankaj Kushwal, Pen Point : लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह बयान खूब वायरल हुआ था जिसमें वह कहते हैं कि अगर कांग्रेस की सरकार आई और आपके पास दो भैंस हैं तो एक भैंस कांग्रेस लेकर जाएगी। इस बयान को खूब चटकारे लेकर शेयर किया गया था, इस पर इंटरनेट पर खूब मीम्स भी बने। लेकिन, आपको जानकर हैरानी होगी कि एक दौर में टिहरी रियासत में राजा ने एक व्यवस्था बनाई थी जिसमें यदि टिहरी रियासत निवासी किसी ग्रामीण के पास दो भैंस हो तो राजा के कारिंदे उससे एक भैंस छीनकर ले जाते थे। नई वन व्यवस्था के तहत किसी भी ग्रामीण को एक से ज्यादा भैंस रखने की अनुमति नहीं थी।
कैसा लगे कि जब फरमान आए कि आप सिर्फ एक भैंस, एक गाय और एक जोड़ी बैल से ज्यादा जानवर नहीं पाल सकते हैं। सुनने में अटपटा जरूर लगेगा लेकिन आजादी से कुछ साल पहले तक टिहरी रियासत के अजीबोगरीब फरमान ने पूरी रियासत के ग्रामीणों को मुश्किल में डाल दिया था। राजा के फरमान का विरोध करना तब बड़ा अपराध माना जाता था लेकिन इस फरमान से टिहरी रियासत में विद्रोह की ऐसी आग उठी जिसे बुझाने के लिए तब अंग्रेजी सरकार ने तक हाथ खड़े कर दिए थे।
यूं तो टिहरी रियासत में राजा कीर्ति शाह के शासन काल में स्थानीय ग्रामीणों को वन उत्पाद, खेती किसानी, पशु चुगान को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं थे। 17 मार्च 1892 को टिहरी रियासत के राजा बने कीर्ति शाह ने अपने शासनकाल में टिहरी रियासत में कई महत्वपूर्ण कार्य किए। शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं की स्थापना के लिए कीर्तिशाह का कार्यकाल महत्वपूर्ण माना जाता है। टिहरी रियासत में सुधारों के लिए समर्पित रहे कीर्तिशाह को लंबी उम्र नहीं मिली और बीमारी की वजह से महज 39 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। जिसके बाद उनके सबसे बड़े पुत्र नरेंद्र शाह को टिहरी का राजा बनाया गया। राजपाट संभालने के बाद नरेंद्र शाह ने रियासत में अधिक सुधार और राजस्व बढ़ाने की योजनाओं पर काम किया। उन्हांेने अपने वन अधिकारी पदमादत्त रतूड़ी को विशेष प्रशिक्षण के लिए फ्रांस भेजा था। फ्रांस से प्रशिक्षण लेकर लौटे तो उन्होंने राजदरबार में वन कानूनों को अधिक कठोर करने और जंगल से जुड़ी सुविधाओं पर रोक लगाने की सिफारिश की। बकौल पद्मदत्त रतूड़ी राज्य की आय बढ़ाने के लिए वनों को संसाधन के रूप में सिर्फ राज दरबार ही प्रयोग में लाए। इसके बाद 1927 में नई वन व्यवस्था पेश की गई। जिसमें ग्रामीणों को उनके वनों से हक को प्रतिबंधित कर नए तरीके से परिभाषित किया गया। वन सीमा नए तरीके से तय की गई, आलम यह था कि लोगों के खेत, खलिहान, पशु बांधने की जगह भी नए तरीके से ही सीमांकन में वन के भीतर मानी गई। टिहरी राजा यहीं नहीं रूके, वनों में घास लकड़ी का न्यूनतम उपभोग हो इसके लिए ग्रामीणों के लिए पशु पालने की तक संख्या निर्धारित की गई। नई वन व्यवस्था से स्थानीय ग्रामीणों में गुस्सा भड़क उठा था लेकिन राजदरबार के खिलाफ खुलकर आने की हिम्मत करना दुलर्भ था। हालांकि, ऐसा नहीं था कि वन अधिकारों को लेकर ग्रामीणों ने अपने गुस्से का प्रदर्शन न किया हो। राजा कीर्तिशाह के शासनकाल के दौरान 1906 में जब अंजनीसैंण स्थित चंद्रबदनी मंदिर के आसपास वनों सीमांकन के लिए वन अधिकारी अपने कारिंदों के साथ यहां पहुंचे तो ग्रामीणों को जैसे ही भनक लगी वह अगली सुबह लाठी डंडों के साथ विरोध करने पहुंच गए। ग्रामीण वनों के नए सीमांकन से इतने उग्र हो गए कि उन्होंने सीमांकन करने आए दल पर ही हमला कर दिया । दल को जैसे तैसे जान बचाकर भागना पड़ा। हालांकि, इसके बाद कुछ सालों के लिए वनों के सीमांकन को रोक दिया गया। लेकिन, नरेंद्र शाह के राजा बनने के बाद नई वन व्यवस्था लागू की गई। डॉ. अजय सिंह रावत ब्रिटिश प्रशासनिक व्यवस्था के लेख में बताते हैं कि नई वन व्यवस्था का सबसे प्रबल विरोध रंवाई के लोगों ने शुरू किया था। तब राजशाही के इस फैसले के खिलाफ बोलने और लोगों को जागरूक करने के लिए प्रकाशित होने वाले गढ़वाली समाचार पत्र में एक अनाम रंवाई निवासी ने लिखा कि नई बंदोबस्त व्यवस्था में फरमान जारी हुआ है कि जिसके पास 100 बकरी है उसे बस 10 बकरी रखने की ही अनुमति है और ग्रामीण सिर्फ एक जोड़ी बैल, एक गाय और एक भैंस ही रख सकेगा। टिहरी के दीवान राय पंडित चक्रधर जुयाल ने एलान किया था कि जिसके पास दो भैंसे होंगी उससे एक भैंस छीन ली जाएगी। इस फैसले के बाद ग्रामीणों में खासकर रवांई क्षेत्र के ग्रामीणों में खासा रोष पैदा हो गया था। जिसकी परिणीती 1930 में तिलाड़ी कांड के रूप में सामने आई थी।

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