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जयंती विशेष : दून की घोसी गली से टोक्यो तक : रास बिहारी बोस- जंग ए आज़ादी का एक खामोश कमांडर

कुछ लोग इतिहास पढ़ते हैं, कुछ लोग इतिहास रचते हैं। रास बिहारी बोस उन्हीं लोगों में से एक थेजिन्होंने चुपचाप रहकर, लेकिन सबसे तेज़ हलचलें कीं।”

क्या आपने पलटन बाजार की उस गली को देखा है जहां रास बिहारी बोस कभी रहा करते थे? या तिब्‍बती मार्केट के पीछे रेंजर्स कॉलेज यानी एफआरआई की उन इमारतों को, जिनके भीतर आज़ादी की लहर गुपचुप हिलोरें मार रही थी? आजाद हिंद फौज तो तैयार करने वाले इस आजादी के मतवाले का देहरादून में लंबा वक्‍त गुजरा।

Pen Point. 25 May 2025 : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में रास बिहारी बोस का नाम उन विरले क्रांतिकारियों में लिया जाता है, जो सबसे लंबे समय तक सक्रिय रहे और जिनकी कार्यशैली में गहराई के साथ गुप्त रणनीति थी। 25 मई को रास बिहारी बोस की जयंती पर यह जरूरी हो जाता है कि हम उनके जीवन के उस अध्याय को याद करें जो उत्तराखंड की शांत वादियों, खासकर देहरादून की गलियों में दर्ज है।

हार्डिंग बम कांड: जब दिल्ली दहल उठी

23 दिसंबर 1912 की सुबह दिल्ली के चांदनी चौक में वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की शोभायात्रा पर बम फेंका गया। राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के बाद यह पहला बड़ा औपचारिक जुलूस था। सुबह 11:45 बजे, जैसे ही हाथी पर सवार हार्डिंग पंजाब नेशनल बैंक के सामने पहुँचे, जोरदार धमाका हुआ। वायसराय बाल-बाल बचे लेकिन महावत की मौत हो गई। इस घटना ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया।

इस ऐतिहासिक विस्फोट की योजना के पीछे रास बिहारी बोस थे, जिन्होंने इसे अंजाम देने के लिए करीब 37 दिनों की छुट्टी ली थी। लेकिन जब दिल्ली की सड़कों पर विस्फोट गूंज रहा था, ठीक उसी वक्त देहरादून का एक दफ्तर—वन अनुसंधान संस्थान (FRI)—अपने एक क्लर्क को रोज़ की तरह आने का इंतजार कर रहा था।

देहरादून: जहां क्रांति की नींव रखी गई

रास बिहारी बोस 1906 में देहरादून आए थे। सेना में घुसपैठ करने की कोशिश असफल रही तो उन्होंने वन अनुसंधान संस्थान में नौकरी कर ली। आठ वर्षों तक वह इसी संस्थान में काम करते रहे और यहीं से उन्होंने देशव्यापी क्रांतिकारी नेटवर्क को गुप्त रूप से सक्रिय रखा।

65 रुपये मासिक वेतन पर नियुक्त रास बिहारी बोस को FRI में हेड क्लर्क के पद तक तरक्की मिली। लेकिन उनकी असली पहचान ऑफिस फाइलों से कहीं दूर थी—वह युगांतर क्रांतिकारी संगठन के एक बेहद सक्रिय सदस्य थे। इस दौरान वह देहरादून के पलटन बाजार के पास घोसी गली में किराए के मकान में रहते थे।

उत्‍तराखंड के सीनियर पत्रकार राजू गुसांई के अनुसार- पलटन बाजार स्थित सूचना पट में भी घोसी गली में उनके रहने का उल्लेख है, लेकिन उनका असली ठिकाना आज भी अज्ञात है।

गुमनाम बने रहने के लिए उन्होंने कई बार घर बदला। वे राजपुर रोड स्थित नाभा हाउस (210) में भी ठहरे थे, जहां उन्हें डीएवी स्कूल के संस्कृत शिक्षक रघुवीर शर्मा इंग्लिश सिखाने आते थे। दिल्ली बम कांड के बाद रघुवीर शर्मा से भी पूछताछ की गई थी। वे बसंत विश्वास से टेगोर विला में मिला करते थे, जो कोलकाता के पीएन टैगोर का था।

दिल्ली से लौटकर सीधे डेस्क पर

बम कांड के अगले ही दिन, वह रात की ट्रेन से देहरादून लौटे और सुबह कार्यालय भी ज्वॉइन कर लिया। यह रणनीति ही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी—संदेह से परे रहना। कहते हैं कि कुछ महीने बाद जब वायसराय हार्डिंग छुट्टियों पर देहरादून आया, तो रास बिहारी बोस ने उसके स्वागत में एक कार्यक्रम तक आयोजित कर डाला—और उसकी “दिल्ली की बहादुरी” की सराहना भी की!

जब नौकरी गई, पर क्रांति बची रही

1914 में लंबी छुट्टियों और गतिविधियों के कारण रास बिहारी बोस को नौकरी से निकाल दिया गया। लेकिन तब तक वह अंग्रेजों की नज़रों में आ चुके थे। जब उनके साथी गिरफ्तार होने लगे तो वह भेष बदलकर देश छोड़ने में कामयाब रहे। अंततः वह जापान पहुंचे जहां उन्होंने आज़ाद हिंद फौज की बुनियाद रखी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस को उसकी कमान सौंपी।

2006 में खुले दस्तावेज़

वर्ष 2006 में देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान ने रास बिहारी बोस से जुड़े कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज़ सार्वजनिक किए—जिनमें उनकी नियुक्ति, छुट्टी के आवेदन और सेवा से बर्खास्तगी संबंधी फाइलें शामिल थीं। ये दस्तावेज़ एक सादे सरकारी क्लर्क के असाधारण क्रांतिकारी बनने की गवाही देते हैं।

एक नाम, एक विरासत

आज जब देश रास बिहारी बोस को याद करता है, तो उनके टोक्यो और आज़ाद हिंद फौज वाले अध्याय पर खूब बात होती है। लेकिन उनका देहरादून अध्याय कम ही उजागर होता है—जहां उन्होंने ‘गुलामी के भीतर आज़ादी’ की योजना बनाई। इस जयंती पर यह जरूरी है कि हम उन्हें उसी शहर से फिर याद करें, जिसने उनकी चुपचाप चलाई गई सबसे तेज़ लड़ाई का मंचन किया।

 

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