30 मई 1930 : वह तारीख़ जब रवांई घाटी में बहती हवा तक सिसक उठी थी- बलिदान की अमरगाथा
Pen Point/देवेंद्र सिंह रावत, बड़कोट :
30 मई 1930 – टिहरी रियासत के रंवाई-जौनपुर क्षेत्र में बड़कोट के पास तिलाड़ी मैदान में निहत्थे किसानों का सैलाब उमड़ा था। ये कोई आम सभा नहीं थी, ये एक आक्रोश था — एक आवाज़ थी उन काले कानूनों के खिलाफ़ जिनसे रियासत की जनता बरसों से कराह रही थी। लेकिन प्रजा की इस आवाज़ को टिहरी की राजसत्ता ने गोलियों से कुचल दिया। 17 निर्दोष किसानों की जान गई, दर्जनों घायल हुए और सैकड़ों परिवारों की जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई। इसी वजह से इतिहासकार इसे “टिहरी का जलियांवाला बाग़” भी कहते हैं।
सामंतशाही की पटकथा और तिलाड़ी की ज़मीन
यह कांड एक दिन में नहीं घटा — ये एक व्यवस्था के लंबे समय से चले आ रहे शोषण का विस्फोट था। टिहरी की राजशाही में करों की इतनी भरमार थी कि आम जनजीवन सांस तक नहीं ले सकता था। औताली, गयाली, मुयाली, नजराना, दास-दासी बिक्री कर, घोड़ों के लिए घास और महल के लिए बकरा देना – ये सब ‘कानूनी’ जिम्मेदारियाँ थीं। यहां तक कि गाय-भैंस चराने के अधिकार तक छीने जा रहे थे।
राजा नरेंद्र शाह यूरोप की रंगीनियों में डूबा था, वहीं उसके अफसर – खासकर दीवान चक्रधर जुयाल और डीएफओ पद्मदत्त रतूड़ी – अंग्रेजी मानसिकता से लैस होकर जनता पर जुल्म ढा रहे थे। जंगलों में मुन्नार बंदी लागू की गई। गाय-बछियों को पहाड़ से गिरा देने जैसे आदेशों ने किसानों के आत्मसम्मान को चीर डाला।
विद्रोह की चिंगारी
20 मई 1930 को जब आंदोलन के नेताओं को गिरफ़्तार किया गया, किसानों का धैर्य टूट गया। डीएफओ रतूड़ी ने डंडाल गाँव में रिवाल्वर से गोली चलाई, दो किसान वहीं शहीद हुए। किसानों ने घायल मजिस्ट्रेट को ही साथ लेकर टिहरी राजमहल की ओर कूच किया। ये घटना दरअसल विद्रोह की चिंगारी थी जिसने जल्द ही लपट का रूप ले लिया।
30 मई को तिलाड़ी मैदान में हुई आमसभा दरअसल अपने नेताओं की रिहाई और फौज के आगमन पर विचार करने के लिए बुलाई गई थी। लेकिन दीवान चक्रधर जुयाल, जो जनरल डायर की मानसिकता का प्रतिनिधि था, ने तीन दिशाओं से घात कराकर किसानों पर फायरिंग करवा दी। यमुना किनारे का ये मैदान लहूलुहान हो गया। कई किसान तो गोलियों से नहीं, यमुना में छलांग लगाकर अपनी जान गंवा बैठे।
न्याय नहीं, प्रतिशोध मिला
इस बर्बरता के बाद न रियासत ने माफी मांगी, न कोई जांच हुई। उल्टा 68 किसानों पर मुकदमे चलाए गए, जिनमें से 15 तो जेल में ही शहीद हो गए। बेकसूरों को वकील तक नहीं रखने दिया गया। किसान नेता दयाराम कंसेरु, भून सिंह, हीरा सिंह, लुदर सिंह, जमन सिंह, दलपति, दलबू, धूम सिंह, रामप्रसाद व बैजराम जैसे लोगों ने सिर्फ़ ज़मीन नहीं, ज़मीर की लड़ाई लड़ी।
प्रेस पर हमला और चंदोला की सजा
जब पत्रकार विशंभर दत्त चंदोला ने इस घटना की रिपोर्ट गढ़वाली अखबार में प्रकाशित की, तो उसे मानहानि का केस झेलना पड़ा और एक साल की सजा हुई। अफसर चक्रधर जुयाल ने रिपोर्ट में केवल चार मौतें दर्शाई, जबकि चंदोला और स्थानीय लोग 100 तक मौतों का अंदेशा जता रहे थे।
इतिहास का न्याय
हालांकि जुयाल ने बाद में वायसराय के स्वागत और चाटुकारिता से खुद को बचाने की कोशिश की, लेकिन सच्चाई ये है कि 1939 में पद छोड़ते वक्त उसकी आंखों की रोशनी जा चुकी थी। क्या ये राजशाही के पापों का न्याय था? या प्रकृति की चेतावनी?
श्रद्धांजलि: शहीदों की स्मृति में
तिलाड़ी कांड केवल इतिहास का एक खंड नहीं, यह जनता के आत्मसम्मान की आखिरी चीख़ है, जिसे गोलियों से नहीं दबाया जा सका। आज भी यमुना किनारे बहती हवा में उन शहीदों की आहें गूंजती हैं। जिन किसानों ने जान दी, वे सिर्फ़ भूगोल के बाशिंदे नहीं थे – वे भविष्य के लिए बीज बोने वाले लोग थे।
उनके बलिदान ने इस बात को स्थापित किया कि जब हुकूमत अंधी हो जाती है, तो जनता की आंखों में क्रांति की लौ जलती है।
तिलाड़ी के शहीदों को नमन।