किताब : उत्तराखंड में विकास के दावों को आईना दिखाता दस्तावेज है ‘हे ब्वारी’
Pen Point, Dehradun : उत्तराखंड आंदोलन को बेहद करीब से जीने वाले लेखकों में शामिल थे त्रेपन सिंह चौहान। आंदोलन पर आधारित उनका उपन्यास यमुना को काफी सराहा गया। जिसमें उत्तराखंड राज्य की लड़ाई लड़ने वाली युवती यमुना की कहानी है। राज्य बनने के काफी समय बाद लेखक ने यमुना की सुध ली और उसकी खोज खबर में जुट गए। तब जाकर तैयार हुई हे ब्वारी।
किताब की भूमिका में चौहान एक जगह लिखते हैं- उत्तराखंड आंदोलन के बाद यमुना किस हाल में है? 2 अक्टूबर, 1994 की मध्य रात्रि को उत्तर प्रदेश पुलिस के हाथों मुजप्फरनगर में जो त्रासदी यमुना ने झेली उसके बाद उसका पति उसे अपने सथ पंजाब ले गया था, क्या वह पंजाब में चैन से बैठ पाई? राज्य बनने के बाद यमुना कहां है..वह क्या कर रही है.. इस तरह के सवाल मेरे मित्र मुझसे लगातार करते रहे हैं। सच में यमुना है कहां? राज्य में उसकी क्या हालत हैकृवह अब इस कथित अपने राज्य के बारे में क्या सोच रही है? यह लिखने का दबाव भी लगातार मेरे उपर था।
यह उपन्यास नहीं बल्कि उत्तराखंड के कथित विकास को आईना दिखाता दस्तावेज है। यमुना की कहानी जहां से आगे बढ़ती है वहीं से विकास के दावों की परतें उघड़ने लगती है। हकीकत के आगे सरकारी आंकड़ेबाजी तार तार होती चली जाती है। लालच और भ्रष्टाचार के तौर तरीकों से हाशिये पर धकेले जाते स्थानीय लोगों के हालात उजागर होते चले जाते हैं। लगता है राज्य बनने के बाद यही सब जैसे हमने अपने सामने होते हुए देखा है।
कहानी के एक हिस्से में यमुना का बेटा शहर जाने की जिद करता है- यमुना के अंदर झर्र झर्र कर करंट के कई झटके लगे और निकल गए। कैते हैं कि यां भोत विकास हो रा है। देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी में फैकटरी लग री है। हमें लगा चलो राज बनाने में हमारा चाहे कुछ फैदा नी हो रहा। इस प्रदेश में किसी का तो फैदा हो रा है। जिस राज के लिए हमने इतना कुछ बरबाद किया उस राज का फैदा हमारे भाई को मिलना चाए। इन फैकटरियों से हमको फैदा मिलना तो दूर वो हमारे छोरों का खून चूसने वाली जौंक बनकर आए हैं इस राज में। अपना हाड़ मांस गलाकर हम इन बच्चों को जवानी दे रहे हैं और वे इस जवानी को चूसकर बर्बाद कर रे हैं। यमुना की नसों में खून का संचार कुछ उबलने वाले रूप में दौड़ने लगा था। वह गुस्से में बोली, अब तू देरादून नी जाएगा। कतै नी जाएगा।
त्रेपन सिंह चौहान ने जितनी गहराई से पहाड़ के सभी मुद्दों को छुआ है, उतनी ही सहजता से कहानी भी कही है। मसलन जब यमुना के नाती को बाघ खा जाता है तो वन महकमे का रेंजर उनके घर पहुंचा हुआ है-
‘जंगल में जानवर नहीं रहे। बाघों को जंगल में खाना नहीं मिल रहा है, तो वह बस्ती की ओर रूख कर रहा है। वह बच्चों को आसान शिकार समझकर उन पर हमला कर देते हें’ रेंजर साहब अपने ज्ञान के आधार पर कह रहे थे।
संजीव के चेहरे पर विदू्प भरी हंसी उभर आई। बोला, रेंजर साहब! ज्ंगल में जानवरों की कमी नहीं है, कमी है तो जंगल की, जो विकास के नाम पर मिटाए जा रहे हैं। आपके बाधों ने यूनियन बना ली है कि वे जानवर नहीं लोगों पर हमला करेंगे।, संजीव की आवाज में कड़वाहट भर गई थी।
करीब 366 पेज के इस उपन्यास में लेखकर ने विकास की गतिविधियों के संचालन के लिए जिम्मेदार अफसरों, नेताओं और एनजीओ की आड़ लेने वालें की कार्यप्रणाली को इस तरह पेश किया है, जिससे लगता है कि उन्होंने इन सब बातों को बहुत बारीकी से देखा है।
वहीं शराब के चलन और उसकी बुराईयों के साथ ही गांव के लोगों में आपसी फूट कैसे पड़ती है, इसे भी त्रेपन सिंह चौहान की कहानी बहुत बेहतर तरीके से बताती है। कहानी में गांव में एक जगह लोग दारू के ठेके खिलाफ बैठक कर रहे हैं, सौंणू कहता है, दारू की दुकान बिल्कुल नहीं खुलनी चाहिए, सरकार को हम दिखा देंगे कि हमारे गांव के लोग लड़ाई भी जानते हैं, सौंणु कुछ और बोलता कि मंगसीरी यानी दीपक की मां और उसकी पत्नी सुमन कर्णचीर गाली बकते हुए प्रकट हुई। मंगसीरी के बाल खुले थे। वह जिस अंदाज में गांव की महिलाओं को गाली दे रही थी उसके मुंह में थूक का एक फेन आकर जमा हो गया था। ‘ये गौं कि नित्याणी रांड मेरा छोरा की रूटी टुकड़ी का पिछाड़ी पड़ियां। जिद जलन न फुकेगी ईं रांड। मैं दिखे देलू ये गौं की हैसियत..क्वे हमारी दारू की दुकान बंद करीक तक दिखैक दियो जरा’। नत्थेक भेजुलू यखन।
उपन्यास से गुजरते हुए कहानी और किरदार इस कदर बांध देते है कि इसके लंबे होने का अहसास नहीं होता। साहित्य उपक्रम से प्रकाशित उपन्यास की कीमत डेढ़ सौ रूपए है। उत्तराखंड के जन जीवन में रूचि रखने और इसके प्रति संवेदनशील लोगों के संग्रह में इस किताब की जगह जरूर बनती है।