कोरोनाकाल : बीमारी से ज्यादा दर्द अचानक लगे लॉकडाउन ने दिया
PEN POINT DEHRADUN : साल 2020 मार्च का महीना, पूरी दुनिया के साथ ही भारत में भी कोरोना दस्तक दे चुका था। कोरोना महामारी मचाने को तैयार था। आम जनता सरकार से बड़ी आबादी की जिंदगी बचाने के लिए कड़े फैसले लेने की उम्मीद कर रही थी। दुनिया भर से कोरोना संक्रमण से हो रही मौतों की जो तस्वीरें पहुंच रही थी उसने लोगों की चिंता बढ़ा दी थी। देश में तब तक कोरोना मामलों और संक्रमण की दर बेहद कम थी लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए दुनियाभर से जो तस्वीरे सामने आ रही थी उसने लोगों में कल को लेकर बैचेनी और डर बढ़ा दिया था।
24 मार्च 2020 की शाम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न्यूज चैनलों के जरिए देशवासियों को संबोधित करते हुए कोरोना संक्रमण रोकने के लिए एलान करते हैं कि पूरे देश में लॉकडाउन लगा दिया गया है। इस एलान के बाद सड़कों पर वाहनों के पहिए थम गये, चौबीसों घंटे चलने वाली फैक्ट्रियों की मशीनों की आवाज भी थम गई, दुकानों, होटलों, ढाबों के शटर गिर गये। अपने घरों में रहने वालों ने चैन की सांस ली कि आखिरकार सरकार ने संक्रमण रोकने को कड़ा कदम उठा लिया लेकिन मेहनत मजदूरी, नौकरी करने अपने घरों से हजारों सैकड़ों किमी दूर रहने वाले लोगों परिवारों के लिए यह घोषणा जैसे कोरोना महामारी जैसी आपदा से भी बड़ी आपदा साबित हुई। शहरों की रफ्तार रूक चुकी थी सड़के विरान थी सब कुछ जल्दी शुरू होने की दूर दूर तक कोई गुंजाइश नजर नहीं आ रही थी। छोटे से किराए के दबड़ों के कैद मजदूरों को घरों में राशन के खाली बर्तन, दूर गांव में परेशान परिवार, खाली जेब कोरोना से ज्यादा जानलेवा नजर आने लगी थी।
लाखों मजदूर बिना आज और कल की परवाह किए, संक्रमण की परवाह किए, दूरी की परवाह किए उन किराए के दबडो से निकल पड़े। गर्मियां दस्तक दे चुकी थी, सड़के पत रही है, जगह जगह पर पुलिस बाहर घूम रहे लोगों को घरों में वापिस लौटने को लाठी फटकार रही थी लेकिन मजबूरी में फंसे इन मजदूरों ने चलना शुरू कर दिया था। न खाने का जुगाड़ न रहने का। कब तक घर पहुंचेंगे यह भी पता नहीं, बस एक लकीर को पकड़े हुए थे, उस काली लंबी सड़क पर चले जा रहे थे इस उम्मीद के साथ ही जैसे यह सड़क हर बार उन्हें घर से शहर और शहर से घर पहुंचा देती है शायद इस बार भी पहुंचा दे।
दिल्ली में मजदूरी करने वाले 39 वर्षीय रणवीर सिंह मूल रूप से मुरैना मध्य प्रदेश के रहने वाले थे, दिल्ली में एक रेस्तरां में फूड होम डिलिवरी का काम करते थे, लॉक डाउन लगने के बाद जेब में फूटी कौड़ी न थी, पैदल ही दिल्ली से मुरैना के लिए निकल पड़े। मार्च के गर्म दिनों में 200 किमी का सफर पैदल ही तय कर चुके थे, किसी तरह घर पहुंचना था लेकिन 200 किमी का पैदल सफर तय करने के बाद सड़क के किनारे गस खाकर गिर पड़े, फिर कभी नहीं उठ सके, घर नहीं पहुंच सके, बस मौत की खबर पहुंची। कड़े नियम थे तो घर वालों को आखिरी बार रणवीर सिंह का चेहरा देखना तक नसीब नहीं हुआ।
छत्तीसगढ़ की 12 वर्षीय जलामो मडगाम जनवरी महीने में अपने क्षेत्र के हजारों लोगों की तरह ही हर साल की तरह मिर्च के खेतों में मजदूरी करने के लिए तेलांगना गई थी। मार्च में लॉकडाउन जारी हुआ तो तेलांगाना में रहना खाना मुश्किल हो गया। गांव के अन्य लोगों के साथ पैदल ही छत्तीसगढ़ स्थित अपने गांव के लिए निकल पड़ी। तीन दिनों तक अपने अन्य साथियों के साथ उसने 100 किमी की दूरी पैदल तय कर ली थी। दिन में पारा 30 डिग्री पार था, 12 साल की वह मासूम बुरी तरह थक गई, अब गांव कुल 11 किमी दूर था लेकिन वह जिंदा गांव नहीं पहुंच पाई। थकान की वजह से सड़क पर गिरी और फिर कभी नहीं उठ सकी।
रणविजय और जलामो हीं नहीं ऐसे हजारों मजदूर, प्रवासियों की कहानी भी ऐसी ही थी जिनके लिए कोरोना की बजाए सरकार की यह पाबंदी जानलेवा साबित हुई। एक समाजसेवी संगठन सेव द लाइफ ने 25 मार्च से लेकर 31 मई तक विभिन्न मीडिया रिपोर्टों के जरिए जो आंकड़े एकत्र किए उसके अनुसार लॉकडाउन के बाद घर लौट रहे 200 से अधिक प्रवासी मजदूरों ने अपनी जान गंवाई। हालांकि, इन आंकड़ों को लेकर मतभेद है कई मौतों की रिपोर्ट तक नहीं हो सकी।
घरों में चैन से रह रहे लोगों के लिए सरकार का यह मास्टर स्ट्रोक लाखों लोगों के लिए एक ऐसी वेदना बनी जिसने उन्हें इतने गहरे जख्म दिए जो शायद ही कभी भर पाए। पुलिस द्वारा खदेड़े जाने, तपती गर्मियों में पैदल चलते रहना, पानी खाने को लेकर तरसना, गांव में पहुंचकर गांव के लोगों का बुरा बर्ताव न जाने कितने ऐसे अनुभवों से लाखों प्रवासी मजदूर गुजरे उसने कोरोना महामारी से ज्यादा गहरे जख्म दिए।
हालांकि, आने वाले सालों में देश भर के अलग अलग राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना नियंत्रण को अपनी उपलब्धि बताते हुए लोगों से वोट मांगे और लोगों ने वोट दिलाकर उन्हें भारी विजयी भी दिलाई लिहाजा उन लाखों प्रवासी मजदूरों की सिसकियां, उनके जख्म भी आसानी से भूला दिए गए।