गोरखा हमले से तबाह गढ़वाल की जमीन पर सबसे पहले उगाई गई थी भांग
Pen Point, Dehradun : भांग, उत्तराखंड में 2016 में तत्कालीन सरकार ने नशे के लिए प्रयोग होने वाले इस पौधे को वस्त्र उद्योग के लिए उगाने की योजना शुरू की। अगले साल 2017 में सत्ता बदली और त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री बने। उन्होंने भी भांग की व्यवसायिक खेती की इस योजना में रूचि दिखाई। योजना में कम मादकता वाले भांग का उत्पादन कर उसके रेशों से कपड़े तैयार किए जाएंगे। साल 2020 में इस नीति के तहत पहला लाइसेंस भी जारी किया गया। इस तरह उत्तराखंड भांग के व्यवसायिक उत्पादन को कानूनी मान्यता देने वाला देश का पहला राज्य बना। शुरूआती दौर में भांग के रेशों से कपड़े तैयार करने की इस योजना का खूब प्रसार भी किया गया। लेकिन, यह नीति हमेशा सवालों के घेरे में रही क्योंकि प्रदेश में भांग नशे के रूप में उपयोग किए जाने वाला सबसे प्रमुख पदार्थ है। पुलिस विभाग के आंकड़ों की ही माने तो पुलिस हर साल करीब ढाई कुंतल से अधिक भांग या चरस तस्करों से बरामद करती है। तमाम दावों और कोशिशों के बाद भी भांग के व्यवसायिक उत्पादन की योजना सफल नहीं हो सकी। लेकिन, यह पहली बार नहीं था जब भांग के व्यवसायिक उत्पादन की योजना लागू की गई हो। करीब दो सौ साल पहले जब गोरखा हमलावरों से अंग्रेजों ने गढ़वाल को मुक्ति दी थी तो हमलों से तबाह खेती में सबसे पहले व्यवसायिक उपयोग के लिए भांग उगाई गई थी और भांग की खेती गढ़वाल के एक बड़े हिस्से में अगले सौ सालों तक जारी रही।
करीब दो सौ साल पहले यानि सन 1815 के बाद अंग्रेजों ने गढ़वाल के एक बड़े हिस्से में भांग की व्यवसायिक खेती शुरू की थी और अगले सौ सालों तक गढ़वाल के बड़े हिस्से में भांग की खेती कर उसके रेशों का निर्यात होता रहा। हालांकि, ज्यादातर रेशों का उपयोग गढ़वाल में स्थानीय ग्रामीण अपने लिए परिधान बनाने को करते रहे। 1805 में जब गोरखों ने गढ़वाल पर हमला बोला तो इस हमले ने पूरे क्षेत्र के भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति को पूरी तरह से बदल दिया था। गोरखा हमलावरों ने पूरे इलाके में खूब तबाही मचाई थी, ग्रामीणों ने खेत खलिहान छोड़कर नए इलाकों में शरण ली। अगले 12 सालों तक पूरे इलाके में खेत पूरी तरह से बंजर हो चुके थे, ग्रामीण गोरखों के डर से वापिस गांव लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। ब्रिटिश सेना ने गोरखाओं को हराकर गढ़वाल को गोरखों के क्रूर शासन से मुक्ति दी तो ग्रामीणों ने भी राहत की सांस ली। हालांकि, इसकी बड़ी कीमत गढ़वाल को दो हिस्सों में बंट कर चुकानी पड़ी। गढ़वाल राजा को श्रीनगर की जगह टिहरी विस्थापित होना पड़ा और आधा राज्य अंग्रेजों के हवाले करना पड़ा।
ब्रिटिश शासन का हिस्सा बने गढ़वाल में यूं तो खेती किसानी की भरपूर संभावनाएं थी लेकिन करीब दशक भर तक खेतों में फसल नहीं बोई गई थी लिहाजा ज्यादातर खेत बंजर पड़े थे। अंग्रेजों के लिए भी इन खेतों में किसानी के लिए ग्रामीणों को तैयार करना आसान न था, खेती किसानी न होती तो ब्रिटिश शासन के लिए कर जुटाना भी मुश्किल होने लगा था। ऐसे में अंग्रेजी हुकूमत को ऐसी फसल के उत्पादन का विचार आया जिसमें मेहनत बहुत कम हो लेकिन उत्पादकता की संभावनाएं अधिक हो। लिहाजा,
ब्रिटिश हिस्से वाले गढ़वाल के चांदपुर और धैजुली राठ परगना में भांग की खेती शुरू की। यहां पैदा होने वाली भांग उच्च गुणवत्ता की मानी जाती थी। यहां उगने वाले भांग से निकाले जाने वाले रेशों की खपत आसपास के ही चांदपुर, धनपुर, कंडारस्यूं, घुरडूरस्यूं जैसे इलाकों में ही होती थी। तब गढ़वाल के ज्यादातर हिस्सों में कपास का उत्पादन बेहद कम था, उंचाई वाले इलाकों में भेड़ की ऊन तन ढकने के लिए कपड़े बनाने के काम आता लेकिन निचले हिस्से में इस कमी को भांग के रेशों ने पूरा किया। लिहाजा, अगले सौ साल तक इस इलाके में भांग की खूब खेती हुई। हालांकि, समय बदलने के साथ ही ग्रामीणों ने अन्य फसलों की खेती शुरू की तो भांग की खेती का दायरा भी सिमटने लगा। साल 1920 के बाद व्यवसायिक भांग की खेती किसानों ने लगभग बंद कर दी थी।
(नागपुर गढ़वाल में जन्में और ब्रिटिश दौर के मशहूर सर्जन रहे डॉ. राय पति राम बहादुर द्वारा साल 1916 में लिखी गई गढ़वाल – एनिसिएंट एंड मार्डन किताब से।)