बिरले रागों के रहस्य छोड़ चला गया हिमालयी गंधर्व हुकमदास
Pen Point (Pushkar Rawat) : उत्तरकाशी के भागीरथी तट पर उनसे पहली मुलाकात हुई थी। शंकर मठ में। ये छोटा सा आश्रम हमारे जेपी दा (जयप्रकाश राणा) का रियाज करने का ठिकाना था। तबले में प्रभाकर और लोक कलाकारों की पहचान करने के महारथी हैं जेपी दा। ये बात करीब ग्यारह साल पहले की है। उस दिन जेपी दा एक नये नवेले गायक को गाने का रियाज करवा रहे थे। गाते हुए युवा गलती करता तो जेपी दा आंखें तरेर देते, उसका सुर गड़बड़ा जाता। तभी उनकी नजर आश्रम के नीचे से गुजर रहे एक उम्रदराज लेकिन सुडौल शरीर के आदमी पर पड़ी। उन्होंने उसे बुलाया और पास बिठा लिया। बड़े वीनीत भाव से उसने जेपी दा की बात सुनी और जीतू बगड्वाल का पंवाड़ा गाना शुरू कर दिया। हमारे रोंगटे खड़े हो गए। नए दौर का युवा गायक अवाक था। जिस गायन में उसे काफी मेहनत करनी पड़ रही थी, उसे वो बूढ़ा बड़े सहज ढंग से निभा रहा था। फिर उसने एक चैती गीत गाया- बास म्योलाड़ी बास म्यरा मैता की दिसा..इसने तो वहां मौजूद लोगों को निढाल ही कर दिया। अब जेपी दा बोले- ये हैं हुकमदास जी, लोकविधाओं के जानकार और फनकार। हुकमदास जी से इस तरह का परिचय शानदार था।
इसके बाद मुलाकातों का सिलसिला चल पड़ा। उत्तरकाशी के तिलोथ में चौरंगीखाल वाली सड़क किनारे हुकमदास का घर था। जिसे पत्नी झाबा देवी संभालती थीं। इसके अलावा चैती और पांडव लीला गायन में पत्नी भी हुकमदास को पूरी संगत देती। जब दोनों साथ में गाते हैं तो अलौकिक अनूभूति होती। लगता था कि हिमालयी गंधर्वों के दुर्लभ जोड़े को देख रहे हों। आज की दुनिया के हिसाब से दोनों अनपढ़ थे। लेकिन उन्हें सैकड़ों पंवाड़े, जागर और लोकोक्तियां कंठस्थ रहीं। उनसे पारंपरिक सदेई गीत सुनना अलग अनुभव था। उत्तरकाशी के चर्चित थिएटर ग्रुप संवेदना समूह के लिए कई गाथाओं और लोकविधाओं को जानने और समझने का स्रोत हुकमदास ही थे। गायन के साथ उन्होंने ढोल, मशकबीन, पिपरी, रणसिंगा और रामसुर का मानो पानी बना दिया है। धौंतरी इलाके में प्रसिद्ध हलवा देवता का पश्वा भी हुकमदास जी ही थे। जहां देवांश आने पर देवता परात भर हलवा खा जाता है। साठ से ऊपर की उम्र में भी स्वस्थ हुकमदास को उत्तरकाशी में कई मौकों पर ढोल बजाते हुए देखे जाते थे। मुस्कुराते हुए उनके चेहरे और माथे पर असंख्य लकीरें उभरती, जैसे उनके गूढ़ ज्ञान की परतें दिख रही हों।
साल 2020 में क्रूर कोरोना काल था। जिसमें हुकमदास की पत्नी का निधन हो गया। उसके बाद उनके इकलौता जवान बेटा भी नहीं रहा। कुनबे में कोई नहीं रहा तो हुकमदास अकेलेपन से जद्दोजहद करते रहे। आखिर सत्तर साल की उम्र में शनिवार आठ जून की सुबह यह हिमालयी गंधर्व भी दुनिया जहान से कूच कर गया।
रंगकर्मी जयप्रकाश राणा के मुताबिक हुकमदास जी व उनकी पत्नी झाबा देवी की जुगलबंदी देखने लायक होती थी। उनके द्वारा गाये गए गीत, उनकी लयकारी और चेहरे की भाव भंगिमा देखने लायक होती थी। राणा बताते हैं कि हैरानी की बात है कि उनके कुछ गीत आड़ लय में शास्त्रीय स्तर पर जाते थे, जिनके साथ हमें भी संगत करने में मुश्किल होती थी। ऐसे कलाकारों की भरापाई नहीं हो सकती हैं।
हुकमदास के पास मौजूद शब्दकोश और ज्ञान को लेकर राणा बताते हैं कि एक बाद उन्होंने टिहरी जिले के सेम मुखेम के पास एक जागर गाना शुरू किया। जिसे लगातार गाते रहे, हम बस में बैठ गए, वो गाते रहे और उत्तरकाशी में तिलोथ के पास उनके घर तक करीब चार घंटे साथ रहने तक भी वो जागर पूरा नहीं हुआ। लोक समाज में मौजूद ऐसे विलक्षण कलाकार ही हमारी अमूल्य धरोहर हैं।
जब हुकमदास के हुक्म पर अंग्रेज घाम में खड़ा रहा
एक बार रंगकर्मी डा.अजीत पंवार के संपर्क से अमेरिकी संगीतकार जैसन उत्तरकाशी पहुंचा। उसको मसकबीन सीखना था। जिसके लिए हुकमदास जी को ही चुना गया। दिलचस्प है कि मशकबीन विदेश से गढ़वाल में आई, और अब विदेशी ही इसे सीखने यहां आ रहे हैं। खैर, हुकुमदास की शागिर्दी में जैसन की ट्रेनिंग शुरू हुई। कई बार हुकुमदास छाया में कुर्सी डाल बैठे रहते और, जैसन को धूप में खड़ा कर रियाज करवाते। ये देख उनकी पत्नी नाराज होकर उलाहना देती कि मेहमान के साथ भला इस तरह पेश आते हैं, हुकमदास हंसकर कहते, अरे गोरों ने हम पर सौ साल राज करा, हम इन्हें हम घाम में खड़ा भी नहीं रख सकते। इस बात को वो आज भी पूरी हनक के साथ बताते हैं। करीब एक महीने लगातार अभ्यास के बाद जैसन ने मसकबीन को साध लिया। इस दौरान हुकमदास ने भी कुछ विदेशी धुनें उससे सीख ली। जैसन की विदाई से पहले दिन दोनों बाजार में एक दूसरे के कंधे पर हाथ डाले झूम रहे थे। जैसन की जेब से रॉयल स्टैग का हाफ भी झांक रहा था।
दरअसल, उत्तराखंड की संस्कृति के असल संवाहक हैं ढोली, बादी बदीन, हुड़किया। इनकी वाणी में इतिहास भूगोल के साथ ही परालौकिक ज्ञान भी छिपा हुआ है। उनके आह्वान पर लोकदेवता किलकारियां मारते हुए अवतरित होते हैं। शोधकर्ताओं ने इन्हें हिमालयी गंधर्व कहा है, जो सदियों से इस भूभाग को अपने स्वरों से सजाए हुए हैं। ये गंधर्व हमारे समाज का एक अहम हिस्सा् हैं, बस हम अपनी रौ में रहकर इन्हें पहचान नहीं पाते।