जयंती विशेष : गॉड सेव क्वीन के विरोध में बंकिम चंद्र चटर्जी ने रचा था “वंदे मातरम”
Pen Point, Dehradun : बांग्ला साहित्य के प्रसिद्ध कवि और लेखक बंकिम चंद्र चटर्जी बगाल के चौबीस परमना नैहाटी में जन्मे थे। एक संभ्रात बंगाली परिवार से आने वाले बंकिम चंद्र प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए करने वाले पहले भारतीय थे। पढ़ाई के तुरंत बाद उन्हें बतौर डिप्टी कलेक्टर नियुक्ति मिल गई। कुछ समय तक बंगाल सरकार के सचिव पद पर भी रहे। उन्होंने रायबहादुर और सीआईइी की उपाधियों भी हासिल हुई। महज 27 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला उपन्यास लिखा था। लेकिन उसकी सबसे कालजयी और महान रचना वंदे मातरम गीत है। यह गीत कैसे अस्तित्व मे आया जानिये इस लेख में-
जब अंग्रेज भारत पर पूरी तरह काबिज हो चुके थे तो सरकारी समारोहों में ‘गॉड सेव द क्वीन’ गीत गाया जाने लगा। अंग्रेज शासकों ने इसे अनिवार्य कर दिया थ। इस आदेश से डिप्टी कलेक्टर के पद पर काम कर रहे बंकिंम चंद्र चटर्जी बड़े व्यथित हुए। बंकिंम बाबू सरकारी अधिकारी होने के साथ ही बांग्ला साहित्य के अग्रणी साहित्यकारों में शामिल थे। उन्होंने 1876 में अंग्रेजों के गीत के विकल्प के रूप में संस्कृत और बांग्ला में एक मिश्रत गीत रच डाला। गीत का शीर्षक था ‘वंदे मातरम’। दो पदों की यह रचना मूल रूप से मातृभूमि की वंदना थी। बाद में बंकिम चंद्र चटर्जी ने अपने चर्चित बांग्ला उपन्यास आनंदमठ में इस गीत को शामिल किया। उल्लेखनीय है कि यह उपन्यास उस संन्यासी विद्रोह पर आधारित था, जो अंग्रेज हुकूमत, जंमींदारों के शोषण और अकाल के कारण उठ खड़ा हुआ था। इस उपन्यास में भवानंद नामक संन्यासी विद्रोही इस गीत को लोगों को जागृत करने के लिये गाता है।
संस्कृत में गीत का पहला पद इस तरह है- “वन्दे मातरम् ! सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्, शस्य श्यामलाम् मातरम्। शुभ्र ज्योत्स्नां पुलकित यमिनीम्, फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् ; सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्, सुखदां वरदां मातरम्।”
उपन्यास में इस गीत के शेष पद भी जोड़े गए हैं जो बांग्ला भाषा में हैं, और उनमें भारत माता की स्तुति दुर्गा देवी के रूप में की गई है। 7 नवंबर 1975 को रविवार के दिन यह गीत पूरा हुआ और कहा जाता है कि बंकिम चंद्र चटर्जी ने सियालदह से अपने जन्म स्थान नौहाटी आते हुए ट्रेन में लिखा था।
स्वाधीनता संग्राम और वंदे मातरम
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की 1886 में स्थापना हुई और इसके दूसरे साल ही कोलकाता अधिवेशन में कवि हेमचंद्र ने वंदे मातरम को काव्य पाठ किया। रविंद नाथ टैगोर ने 1896 में कांग्रेस के 12वें अधिवेशन में इसे गाया। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने वंदे मातरम को शिवाजी के समाधी के तोरण द्वार पर लिखवाया। यह गीत लोकप्रिय होता गया और विभिन्न जगहों पर इसे गाया जाने लगा। बंग भंग के विरोध में 6 अगस्त 1905 में टाउन हॉल की सभा में तीस हजार से ज्यादा भारतीयों ने एक साथ बंदे मातरम को गाया। कहा जाता है कि बंग भंग के बाद वंदे मातरम संप्रदाय की भी स्थापना हो गई थी।
वंदे मातरम गीत की लोकप्रियता से ब्रिटिश सरकार घबराने लगी थी। लिहाजा इस पर पाबंदी लगाने का विचार होने लगा, इसके अलावा इस गीत को बदनाम करने की भी साजिशें रची जाने लगी। अंग्रेज लेखक पिअरसन ने लिखा कि मातृभूमि की कल्पना हिंदू धर्म के अनुकूल नहीं है और यह गीत यूरोप से प्रेरित है। जबकि हकीकत यह है कि भारत में लोग प्राचीनकाल से ही धरती को मां कहते आए हैं। 14 अप्रैल 1906 को बंगाल में बरिशाल नामक जगह पर कांग्रेस के जुलूस में वंदे मातरम नारा लगाने पर पाबंदी लगाते हुए लोगों पर लाठीचार्ज किया गया। इसके बावजूद वंदे मातरम गीत हर भारतीय की जुबान पर चढ़ता गया और कई जलसों, समारोहों और पुस्तकों, पत्र पत्रिकाओं के जरिये यह गीत अपना असर छोड़ता चला गया।
राष्ट्रगीत बना पर राष्ट्रगान नहीं
आजादी के आंदोलन में इस गीत की धमक के बावजूद यह राष्ट्रगान नहीं बन सका। दरअसल, राष्ट्र गान के चयन में रविंद्र नाथ टैगोर के जन गण मन को तरजीह दी गई। जिसके पीछे दलील यह थी कि गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में बताया गया है जिस पर कुछ मुसलमानों को वंदे मातरम गाने पर आपत्ति थी।
आजदी के बाद राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में २४ जनवरी १९५० को ‘वन्दे मातरम्’ को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी वक्तव्य पढ़ा जिसे स्वीकार कर लिया गया। अपने वकतव्य में उन्होंने कहा-
शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले। (हर्षध्वनि)। मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा। (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, २४-१-१९५०)