चीड़ : पहाड़ की वन संपदा के लिये भस्मासुर बन गया है ये विलायती पेड़
– उत्तराखंड के जंगलों में लग रही आग का सबसे बड़ा कारण माना जाता है चीड़, हर साल वनाग्नि से हजारों हेक्टेयर जंगल को खाक करने वाले चीड़ की आमद हुई थी 300 साल पहले
Pankaj Kushwal, Dehradun : राज्य के जंगल इन दिनों धू-धू कर जल रहे हैं। इस आग से उठ रहे धुंए ने पहाड़ों की आबोहवा को भी घुटनभरा कर दिया है। आग और धुएं से दृश्यता कम हुई है तो कई जगहों पर तापमान में भी बढ़ोत्तरी देखी जा रही है। बीते साल सर्दियों की दस्तक यानि नवंबर से लेकर अब तक प्रदेश भर में करीब 11 सौ हेक्टेयर वन भूमि वनाग्नि से जलकर खाक हो चुकी है। विकराल रूप ले चुकी वनाग्नि ने वैज्ञानिकों के माथे पर भी शिकन ला दी है। वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि बेकाबू हो चुकी वनाग्नि पर नियंत्रण न पाया गया तो यह ग्लेशियरों के पिघलने की दर को बढ़ा सकती है जिससे प्रदेश के ग्लेश्यिर खतरे में आ सकते हैं।
हर साल उत्तराखंड में गर्मियों की दस्तक होते ही जंगलों के सुलगने का सिलसिला हो जाता है । गर्मी बढ़ने के साथ जंगलों में लगी यह आग भी विकराल रूप लेने लगती है। जंगलों में लगी आग तब ही बुझ पाती है जब बादल बरसने शुरू होते हैं और इसी बारिश के साथ वनाग्नि को रोकने लेकर सरकारी चिंता भी बह जाती है। कैलेंडर बदल रहे हैं लेकिन वनाग्नि की घटनाएं और तंत्र की लापरवाही हर साल सामने आती है। इस साल अब तक प्रदेश में 1 हजार हेक्टेयर से अधिक जंगल जलकर राख हो चुके हैं। वनाग्नि की चपेट में सबसे ज्यादा वह वन क्षेत्र है जहां चीड़ के जंगल फैले हुए हैं। मिश्रित जंगल और चौड़ी पत्तों वाले पेड़ों के जंगल वनाग्नि से सुरक्षित हैं। प्रदेश में चीड़ को ही वनाग्नि का सबसे बड़ा कारण माना जाता है। चीड़ की सूखी पत्तियां और चीड़ के पेड़ में ज्वलनशील लीसा की मौजूदगी वनाग्नि के लिए बारूद का काम करती है। प्रदेश के जंगलों में चीड़ बहुत नया मेहमान है लेकिन यह मेहमान जल्दी ही अतिक्रमणकारी बन बैठा और मौजूदा वक्त में प्रदेश के वन क्षेत्र के 16 फीसदी से अधिक हिस्से पर कब्जा कर बैठा है। चीड़ का आगमन देश में अंग्रेजों की दस्तक के कुछ साल बाद हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी भारत पहुंची तो यहां की अकूत प्राकृतिक संपदा को लूटने का खेल भी शुरू कर दिया। देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक पहुंचने के लिए रेल बिछाने का काम शुरू किया गया। इसके साथ ही देश की जमीन और जंगलों में विदेश से आयतित उन पेड़ पौधों का रोपण शुरू किया जिससे वह मोटा मुनाफा पा सके इसके लिए देश के जंगलों में उगने वाले मूल पेड़ पौधों का सफाया गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी जब भारत पहुंची थी तो उसके बाद वह देश में रेलवे लाइन बिछाने पर भी काम करने लगी। रेलवे लाइन बिछाने के लिए उसे यूरोपीय वनों में उगने वाले उस लंबे पेड़ की जरूरत महसूस हुई जिससे रेल की पटरियां बनाई जानी थी। देश में रेलवे को विस्तार देने के लिए करीब 300 साल पहले अंग्रेज भारत में चीड़ के पेड़ को लेकर आए। क्योंकि इस पेड़ को पनपने के लिए यूरोपीय जैसी आबोहवा की जरूरत थी जो भारत में हिमालयी क्षेत्र के इलाकों में ही मिल सकती थी लिहाजा अंग्रेजों ने इस समुद्रतल से 3000 फीट से अधिक उंचाई वाले इलाकों में इसका वृक्षारोपण शुरू कर दिया। 1790 में यूरोप और उत्तरी अमेरिका से चीड़ लाकर हिमालयी क्षेत्र में रोपा गया। बड़े पैमाने पर चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों का सफाया कर चीड़ को रोपा और उगाया गया। तेज धूप, पानी की कम जरूरत और छोटी जड़े होने के चलते चीड़ को निचले हिमालयी क्षेत्र की हाबोहवा खूब रास आई।
चीड़ धीरे धीरे चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों का वन क्षेत्र भी हड़पने लगा और तेजी से विस्तार पाता गया। हालांकि, दशकों से इस पेड़ का इस्तेमाल लीसे के लिए किया जाने लगा। चीड़ के पेड़ से निकलने वाले लीसे से तारपीन समेत कई अन्य उपयोग किए जाते हैं। प्रदेश सरकार को भी चीड़ के पेड़ों से निकलने वाले लीसे से हर साल करीब 70 करोड़ रूपए का सालाना राजस्व मिलता है। लेकिन, यदि चीड़ के पेड़ों के चलते वनाग्नि से होने वाले नुकसान की बात करें तो वनाग्नि से हर साल प्रदेश को 35 से 40 करोड़ रूपए के राजस्व की चपत लग रही है। चीड़ का पेड़ प्रदेश के जंगलों के लिए दशकों से ही खतरा बना हुआ है। तेजी से विस्तार पाते चीड़ के जंगल जहां पहाड़ के उगने वाले और जल संरक्षण, मृदा क्षरण को रोकने वाले पेड़ों की जगह कब्जा रहा है तो चीड़ राज्य के पहाड़ों को ‘चीड़ रेगिस्तान’ में भी तब्दील कर रहा है। दिखने में खूबसूरत लगने वाले चीड़ के जंगल राज्य के लिए ‘खतरनाक खूबसूरती’ साबित हो रहे हैं।
चीड़ के सफाए को लेकर राज्य सरकार ने भी कई बार कदम उठाए हैं लेकिन 1980 में सर्वोच्च न्यायालय की ओर से उत्तराखंड मेंसमुद्रतल से एक हजार मीटर से अधिक उंचाई वाले इलाकों में किसी भी तरह के हरे पेड़ काटने पर रोक के आदेश इसके आड़े आ रहे हैं। साल 2015 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने प्रदेश के लाखों चीड़ के पेड़ों को काटकर उनके स्थान पर अन्य प्रजातियों के पेड़ लगाने का प्रस्ताव तैयार कर स्वीकृति के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भेजा था। लेकिन, इस प्रस्ताव को केंद्र सरकार ने खारिज कर दिया उसके बाद कई बार विधायकों, जन प्रतिनिधियों की ओर से चीड़ का सफाया कर अन्य प्रजाति के पेड़ों को उगाए जाने की मांग होती रही हैं। चीड़ को हटाने की मांग के पीछे बाजिव कारण भी दिखते हैंं। राज्य के जंगलों में उगने वाले बांज, बुरांश, मोरू समेत अन्य चौड़ी पत्तियों वाले पेड़ जहां भू जल को संरक्षित कर जलस्रोतों को रिचार्ज करने का काम करते हैं तो वहीं इनकी मोटी और लंबी जड़े हिमालयी जंगलों में भू-क्षरण को भी रोकती है लेकिन चीड़ इस मामले में पीछे हैं। साल 2017 में कुमाउं विश्वविद्यालय के भू विज्ञान विभाग की ओर से किए गए शोध में दावा किया गया था कि जहां बांज बुरांश के जंगलों में भू जल को रिचार्ज की दर 23 फीसदी पाई गई तो वहीं चीड़ के जंगलों में भू जल स्रोत को रिचार्ज करने की दर केवल 8 फीसद पाई गई। चीड़ को लेकर 2019 में अमेरिकन इंडियन फाउंडेशन में प्रकाशित शोध पत्र में चीड़ को हिमालय की ‘खतरनाक सुंदरता’ बताया गया।