रिपोर्ताज : क्यों कहा जाता है “एक मुनस्यार और सारा संसार बराबर”
Pen Point (Pushkar Rawat) : तारीख 14 मई, दिन मंगलवार। पिथौरागढ़ जिले के चौकोड़ी में हम चार लोगों के छोटे से काफिले ने डेरा डाला। एक परिचित सज्जन धर्मशक्तु जी ने रात को रूकने का इंतजाम करवा दिया। अगले दिन सुबह आगे का सफर शुरू हुआ। चौकोड़ी के चाय बागानो, दान सिंह मालदार और भगत दा के होटल के किस्से सुने। बातचीत करते हुए एक घंटे बाद हम गंगोलीहाट में थे। हाट शब्द हमेशा ही मेरी उत्सुकता बढ़ाता रहा है, मसलन बाड़ाहाट, रणिहाट, डीडीहाट आदि। गंगोलीहाट महाकाली मंदिर, नर बलि और प्राचीन गुफाओं के रहस्य समेटे हुए है। पाताल भुवनेश्वर गुफा भी इसी इलाके में है। कुछ देर रुकने के बाद यहीं पर तय हुआ कि अब मुनस्यारी का रूख किया जाए।
इसके लिये हमें वापस चौकोड़ी के रास्ते ही लौटना पड़ा। इस रास्ते पर अगला कस्बा थल है, हां वही ‘थल की बजारा’ गीत वाला। उत्तराखंड के अधिकांश कस्बों की तरह थल भी अस्त व्यस्त और अलसाया हुआ सा बाजार है। यहां बाजार में जाम लगा हुआ था, कारण पूछने पर पता चला कि एक आदमी को दो लोहे के पाइप ट्रक में रखवाने हैं। भला आदमी पाइप सड़क पर छोड़ दुकानदार से मोल भाव कर रहा था। वाहनों की चिल्लपों और शोरगुल से उसका दिल पसीजा और किसी तरह जाम खुल सका। थल के बाद एक सड़क मुनस्यारी को और दूसरी डीडीहाट के लिये निकल जाती है। जहां से करीब सात किमी दूर नाचनी से तल्ला जोहार का इलाका शुरू हो जाता है। कुमाऊं के इस खास इलाके में मेरा यह पहला सफर हुआ। नाचनी से जंगम, क्वीटी होते हुए बिर्थी फॉल तक सफर में कोई परेशानी नहीं हुई।
बिर्थी से गुजरते हुए ही लगा कि जमीन कई जगह पर धंस रही है। बुरी तरह दरकी हुई सड़क का जिम्मा अब बीआरओ के पास है, जिसने बड़े हिस्से को फिलहाल ब्लैक टॉप कर दिया है। लेकिन सड़क इतनी तंग और संकरी है कि अधिकांश जगहों पर एक बार में एक ही गाड़ी गुजर सकती है। दरअसल यहां हमें कई घुमावदार मोड़ों पर चढ़ते हुए पूरे पहाड़ को पार करना था। हर मोड़ के बाद हम जितना ऊपर चढ़ रहे थे, नीचे घाटी और गहरी होती जा रही थी, इसके साथ ही हमारी सांसें भी अटक रही थी। लग रहा था कि सीधी खड़ी चट़टान को कुरेदकर सड़क बनाने वाले इंसान नहीं हो सकते। भयमिश्रित शंकाओं के साथ अनमने ढंग से करीब बीस किमी का ये सफर तय हुआ और हम हिलटॉप पर पहुंच गए। इस आखिरी मोड़ पर जैसे ही हमारी गाड़ी घूमी सामने के नजारे ने हमें सम्मोहित कर दिया।
यह कालामुनी टॉप था जहां से विराट हिमालय मानों बाहें पसारे हमारा स्वागत कर रहा हो। पर्वतराज के बीचों बीच पंचाचूली की पांच दमकती चोटियां मुकुट सी नजर आ रही थी। हमारा डर और शंका चट से हवा हो गए। किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा। गाड़ी कब रूकी पता नहीं चला हम एकटक इस दृश्य को निहार रहे थे। सोचा इसे कैमरे में कैद करते हैं और मोबाइल लेकर गाड़ी से बाहर निकल आए। लेकिन तेज और बर्फील हवाओं से हमारी कंपकंपी छूट गई। मैने अपने बैग से एक पतला सा जैकेट निकालकर पहना, लेकिन सनसनाती हवा के थपेड़ों में वह भी निरीह नजर आया, मानो कह रहा हो मुझे माफ करना मालिक। ठंड से बचने के लिये हम तुरंत ही गाड़ी में बैठ गए।
अब हम कालामुनी टॉप से मुनस्यारी की ओर उतर रहे थे। एकाध किलोमीटर की दूरी तय हुई कि सड़क की बाई ओर पेड़ों के झुरमुट के बीच से एक खूबसूरत मोनाल प्रकट हुआ। हमने उसका फोटो लेने का मन बनाया तो वह फुदकते हुए थोड़ी दूर चला गया। हम उसके रंग बिरंगे पंखों की तारीफ कर रहे थे कि, इतने में राज्य पक्षी जी सर्राटे से उड़कर बर्फीली वादियों की ओर चल दिये। शाम धुंधली होने तक हम मुनस्यारी में थे, मई के महीने में ठंड ठीक ठाक हो रही थी। छोटा सा टाउन है और होटल से ज्यादा यहां होम स्टे हैं। हमारे स्थानीय मेजबान ने बताया कि दिन में बारिश से ठंड तो हुई लेकिन मौसम भी साफ हो गया है। यहां पता चला कि कालामुनी टॉप पार करने के बाद हम मल्ला जोहार में आ गए हैं। यहां रात ऐसी गुजरी जैसी देहरादून की सर्दियों में गुजरती है।
अगली सुबह करीब साढ़े पांच बजे नींद खुली। सड़क से बाहर झांककर देखा तो कुछ लोग मॉर्निंग वॉक कर रहे थे। चाय पीने बाद मैं भी सड़क पर टहलने लगा। महसूस हुआ कि यहां के लोग सीधे सरल और मेहनतकश हैं। राजमा और आलू की काफी पैदावार करते हैं। जोहार की इस धरती ने उत्तराखंड को कई दिग्गज बेटे दिये हैं। शेर सिंह पांगती और उत्तराखंड के मुख्य सचिव रहे आरएस टोलिया भी यहीं के थे। टोलिया ने तो रिटायरमेंट के बाद शहरों की बजाए मुनस्यारी में रहने की मिसाल पेश की थी।
कुछ ही देर में सूर्यदेव पंचाचुली की चोटियों के बीच से झांकने लगे। मुनस्यारी के ठीक सामने कई छोटे बड़े ग्लेशियर नजर आते हैं। लेकिन इस इलाके में सबसे बड़ा मिलम ग्लेशियर है जहां से गोरी गंगा निकलती है। गोरी गंगा के दाईं ओर मुनस्यारी है और बाईं ओर कई गांव नजर आते हैं। मदकोट रोड पर पैदल चलते हुए एक घर में शादी का माहौल था, बारात की तैयार हो रही थी, ढोल मजीरे के साथ छोलिया नृत्य हो रहा था। बारात मेहमानों को टीका पहनाने के साथ सफेद टोपी पहनाई जा रही थी। बताया गया कि पहले टोपी की जगह पगड़ी पहनाई जाती थी, लेकिन रेडीमेड के दौर में अब पगड़ी की उलझन से बचने के लिये टोपी का चलन हो गया है।
नाश्ते के बाद यहां के रहने वाले बहादुर सिंह गनगरिया जी हमें नंदा देवी मंदिर ले गए। रास्ते में उन्होंने सड़क से नीचे सरमोली गांव भी दिखाया जिसे कुछ महीने पहले भारत सरकार ने पर्यटक गांव घोषित किया है। काफी हद तक समतल इस जगह को डाणाधार कहते हैं। मुझे लगा कि इससे खूबसूरत जगह मैंने आज तक नहीं देखी, करीने से सजाया गया मंदिर परिसर और गोरी पार की बर्फानी दुनिया किसी को भी मंत्रमुग्ध कर सकती है। मैं मंदिर के पास घास पर मेंढक की तरह उताणा यानी पीठ के बल लेट गया। गुनगुनी धूप ने कुछ ऐसे सहलाया कि मेरी आंख लग गई। लोग फोटो खींच रहे थे लेकिन मैं कुदरत के इस करीश्मे को सिर्फ महसूस करना चाहता था। करीब बीस मिनट बाद वापसी की कॉल हुई तब जाकर मेरी तंद्रा टूटी। पहली नजर खलिया टॉप की ओर पड़ी, मन में विचार आया कि ठीक ही कहा गया है- एक मुनस्यार और सारा संसार बराबर, यानी सुंदरता में मुनस्यारी का इलाका एक तरफ और बाकी संसार एक तरफ।