धान की बुआई का मौसम और एक किसान की विरासत : इन्द्रासन धान की कहानी
Pen Point, 24 May 2025 : उत्तराखंड के तराई और मैदानी इलाकों में धान की बुआई का समय शुरू हो गया है। कहीं खेतों की जुताई हो रही है, तो कहीं पानी से लबालब भरे खेतों में रोपाई की शुरुआत हो चुकी है। धान के इन खेतों के बीच आज हम याद कर रहे हैं उस किसान को, जिसकी नज़र और जिद ने तबाही के बीच संभावना का बीज खोज निकाला था। हम बात कर रहे हैं नैनीताल जिले के इंदरपुर गांव के किसान इन्द्रासन सिंह की—एक ऐसा नाम, जिसने न केवल अपने खेत को फिर से सींचा, बल्कि देशभर के किसानों के लिए प्रेरणा बन गया।
तबाही के बीच जन्मी उम्मीद: ‘इन्द्रासन धान’
वर्ष 1962 में जब एक अज्ञात बीमारी ने उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) की तराई में धान की फसल को पूरी तरह बर्बाद कर दिया था, उस समय इन्द्रासन सिंह भी बाकी किसानों की तरह असहाय खड़े थे। लेकिन खेत के बीच कुछ हरे पौधे उन्हें अलग नज़र आए। वहीं से शुरू हुई एक नई यात्रा। उन्होंने उन कुछ बचे पौधों को सहेजा, उनकी देखभाल की, बीज को संरक्षित किया और अगले वर्ष बोया। साल-दर-साल यही प्रयोग दोहराया और कुछ वर्षों में 20 कुंतल बीज तैयार किया, जो न केवल रोग-प्रतिरोधी था, बल्कि उपज में भी बेहतर साबित हुआ। बासमाती की विभिन्न किस्मों के बीच ये किस्म किसानों को खूब भाने लगी।
किसानों में लोकप्रिय हुआ ‘इन्द्रासन धान’
बिना किसी प्रयोगशाला या वैज्ञानिक सहायता के इन्द्रासन सिंह ने जो धान तैयार किया, वह जल्द ही तराई के किसानों के बीच लोकप्रिय हो गया। फसल की गुणवत्ता और रोग न लगने की क्षमता ने इसे उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, बंगाल जैसे राज्यों तक पहुंचा दिया। गांव की पंचायत ने इस धान को नाम दिया — ‘इन्द्रासन धान’, और इसके साथ ही इन्द्रासन सिंह खुद एक किसान वैज्ञानिक के रूप में पहचाने जाने लगे।
सरकारी चुप्पी, लेकिन देश ने पहचाना
अफसोस की बात यह रही कि इतने वर्षों तक कोई कृषि विश्वविद्यालय या सरकारी अनुसंधान संस्थान उनके इस योगदान को मान्यता नहीं दे पाया।
लेकिन जब नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन (NIF) ने उनके कार्य को दस्तावेजीकृत किया, तो 2007 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें ‘सेकेंड अवार्ड फॉर प्लांट वैरायटी’ से सम्मानित किया।
32 साल इंतजार के बाद के बाद मिला यह सम्मान इन्द्रासन सिंह की लगन और लोक ज्ञान की गवाही देता है।
109 साल की उम्र में विदा, लेकिन खेतों में आज भी जिंदा हैं
2010 में 109 वर्ष की आयु में इन्द्रासन सिंह का निधन हो गया। लेकिन उनकी छोड़ी विरासत — ‘इन्द्रासन धान’ — आज भी उत्तराखंड समेत देश के कई हिस्सों में बोया जा रहा है।आज जब धान की रोपाई का मौसम है, किसान जब खेतों में उतर रहे हैं, तो उनके हाथ में सिर्फ बीज नहीं, एक विरासत भी है—जो बताती है कि एक किसान की नजर, सोच और श्रम किस तरह पूरे देश के लिए परिवर्तन की कहानी लिख सकता है।