भाई बहन के अटूट प्रेम का लोकगीत है सदेई और सदेऊ की कथा
Pen Point, Dehradun : लोकजीवन की संवेदनाएं जब स्वर बनकर छलकती हैं तब लोकगीत जन्म लेता है। जिस पर किसी रचनाकार का नहीं अपितु पूरे समाज का अधिकार हो जाता है। समय की सीमाओं से परे उस गीत में अपने लोक का हर रंग समाहित होता है और पीछे होती है एक कथा। जो सत्य घटना भी हो सकती है और किंवदंति भी। उत्तराखंड की वादियों में भी सदियों से ऐसे गीत गूंज रहे हैं। गढ़वाल के गांवों में गाया जाने वाला सदेई गीत गीत भी ऐसा ही है। जो एक लोककथा के रूप में प्रचलित है। इस गीत को सुनना एक अलग तरह की अनुभूति है, भाई बहन के अमर प्रेम पर आधारित इस गीत को सुनकर आज भी गांव में हर विवाहिता भावुक हो उठती है।
‘हे जी रंचणात रंचे, रंचे हरे गोविंदा, हे रामा कैन रंचे सकल संसारा बै हो’…गढ़वाल में बाजगी इन्हीं पंक्तियों के साथ सदेई गीत का गायन शुरू करते हैं। यहां सदेई की कथा हर घर में सुनाई और गायी जाती है। अक्सर दूर जंगलों में घास-लकड़ी काटती हुयी विवाहित युवतियां भी इस कथा को गीतों के स्वर में गाती हैं। सदेई गीत गाते हुए वे मायके की याद में खो जाती हैं। वास्तव में वे ससुराल में रहकर अपने कष्टों को बताती और मायके की कुशल क्षेम की कामना करती हैं। इस गीत के पीछे की कहानी कुछ इस तरह है कि प्राचीन समय में पौड़ी गढ़वाल के राठ क्षेत्र की कन्या सदेई का विवाह कर्णप्रयाग क्षेत्र के चुला-कठूड़/थाती-कठूड़ गांव में कठैत परिवार में हुआ था। सदेई अपने परिवार की इकलौती सन्तान थी। संयोगवश मायके से किसी भी सगे-संबंधी ने काफी समय तक उसकी सुध नहीं ली। मायके की खुद (याद) में खोई सदेई ने ससुराल से मायके जाने वाले रास्ते में एक सिलंग का पौधा लगाया। उस निर्जन स्थल से उसके मायके की धार दिखती थी। वह सिलंग के पौधे की देखभाल करती हुई अपने परिजनों को याद करती थी।
चैत के महीने जब गांव की अन्य बहुओं के भाई-बंधु कलेवा लेकर आते तो उसका दुख और भी बढ़ जाता। वह सिंलग के पौधे/पेड़ के पास आकर अपनी मायके की कुलदेवी झालीमाली से अपना भाई पैदा होने की प्रार्थना करती। उसने प्रतिज्ञा की, यदि देवी उसको भाई होने का वरदान देगी तो वह देवी की हर इच्छा को पूरी करेगी। सदेई की मनोकामना पूरी हुयी। मायके में उसका भाई पैदा हुआ। उसका नाम सदेऊ रखा गया। इधर सदेई के भी दो पुत्र हुये। इनका नाम उमरा एवं सुमरा था। परन्तु किसी कारणवश सदेई कई साल तक अपने मायके नहीं जा पायी। सदेऊ जब बारह वर्ष का हुआ तो उसने मां से अपनी दीदी सदेई से मिलने की जिद कर दी।
दीदी के लिए कुछ सौगात लेकर सदेऊ बीहड़ जंगल की बाधाओं को पार करता हुआ सदेई के गांव पहुंचा। सदेई पहली बार अपने भाई के उसके मायके आने की खुशी में अपनी पूर्व प्रतिज्ञा मुताबिक झालीमाली देवी को अठवा्ड देने लगी तो, आकाशवाणी हुयी कि देवी पशु बलि से संतुष्ट नहीं होगी। सदेई ने मानव बलि के रूप में स्वयं को अर्पित करने की प्रार्थना देवी से की। देवी ने स्त्री बलि स्वीकार करने से मना कर दिया। देवी के आदेशानुसार सदेई के भाई या पुत्रों की बलि ही उसे मान्य है। सदेई किसी भी कीमत पर झालीमाली देवी की मनोकामना के उपरान्त मिले अपने भाई को नहीं खोना चाहती थी। उसने अपने दोनों पुत्रों को भाई के बदले बलि स्वरूप देवी को भेंट कर दिया। भाई के प्रति अटूट स्नेह वाली सदेई पर देवी झालीमाली अपार प्रसन्न हुयी। देवी ने उसे घर के अन्दर जाने को कहा। सदेई ने घर के अन्दर जाकर देखा कि अभी-अभी देवी को अर्पित उसके दोनों पुत्र उमरा और सुमरा जीवित हैं और अपने मामा सदेऊ के साथ हंस-खेल रहे हैं। सदेई बार-बार देवी झालीमाली को धन्यवाद देती है।
सदेई की यह कथा अमर हो गयी। तब से बाजगी या परंपरागत ढोली गढ़वाल में इस कथा को लोगों के बीच जाकर सुनाते हैं। सदेई गीत की अन्तिम पंक्तियां श्रोत्राओं के लिए आशीर्वाद के रूप में इस प्रकार हैं। ‘धन्य होली वा वैण सदेई, धन्य होलू वो भाई सदेऊ, धन्य भाई-बैण की वा पीरीत, जु हमन गीत मा गाई, सदेई का घर जनो होए मंगल, होयान तुमकू भी दिशा-धियाण्यों।’ प्रसिद्ध गढ़वाली कवि कवि पंडित तारादत्त गैरोला ने सदेई कथा पर सन् 1921 में ‘सदेई’ गढ़वाली काव्य की रचना कर उसको प्रकाशित किया। जबकि इतिहासकार शिव प्रसाद ड़बराल ने सन् 1971 में तारादत्त गैरोला के सदेई काव्य संग्रह को पुनः प्रकाशित किया।