आपदाओं का इतिहास बताता है, अब तबाही का सिलसिला तेज हो गया है
Pen Point, Dehradun : चतुर्मास यानी बरसात के चार महीने, जब जमीन की जरूरत को पूरा करने के लिये आसमान से खूब पानी बरसता है। चारों ओर हरियाली नजर आती है और खेतों में फसलें लहलहाने लगती हैं। लेकिन पहाड़ पर इन चार महीनों में अनहोनी का डर हमेशा ही बना रहता है। जब नाजुक मिजाज पहाड़ दरकने लगते हैं और उफनाती नदियां अपने तटवर्ती इलाकों को काटती हुई चलती हैं। इतिहास में झांककर देखें तो दैवीय आपदा की इन घटनाओं से जनजीवन को बड़ा नुकसान पहुंचा है। यही वजह है कि आज भी उत्तराखंड के गांवों में लोग चौमास के लिये रसद का इंतजाम पहले ही कर लेते हैं, उसके बाद घर या गांव से बाहर निकलने से बचते हैं।
पहाड़ी इलाकों में इन घटनाओं को किस्से कहानियों और लोकगीतों के जरिये याद भी किया जाता है। जिससे साबित होता है कि आपदाओं का यहां के समाज पर कितना गहरा असर है। खास बात ये है कि साल 2000 के बाद आसमान से आफत बरसने का ये सिलसिला तेज हुआ है। आपदा से जुड़े दस्तावेजों को टटोलें तो उत्तराखंड में सबसे पहली आपदा माह सितंबर 1803 के भूकंप के रूप में दर्ज है। भूकंप से भीषण तबाही हुई थी। भूकंप से जमीन में दरारें उभरने के बाद हुए भूस्खलन से गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर पूरी तरह मटियामेट हो गई थी।
साल 1868 में चमोली जिले की बिरही गंगा में हुए भूस्खलन ने नदी का प्रवाह रोक दिया था। जिससे नदी में बड़ी झील बनने के बाद अचानक फट गई और बाढ़ में करीब 75 लोग मारे गए। बताते चलें कि बिरही गंगा में इसके बाद भी एक भूस्खलन हुआ था जिससे गौना ताल झील ने आकार लिया।
सन् 1880 में नैनीताल में शेर का डांडा पहाड़ी से बड़ा भूस्खलन हुआ था, तब भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी, जिसके चलते नैनीताल अंग्रेजों का ही शहर हुआ करता था। इस हादसे में 151 लोग मारे गए जिसमें 42 यूरोपियन थे। इसके अलावा नैनीताल के बालिया में 1898 में हुए भूस्खलन मंें 29 लोगों की जान गई थी। दिलचस्प बात ये है कि इसके बाद उत्तराखंड में बड़ी आपदा की घटना करीब 70 साल बाद दर्ज हुई। जब 20 जुलाई 1970 को अलकनंदा नदी की बाढ़ में 55 लोगों के मारे जाने के साथ ही बड़े पैमाने पर मवेशियों का नुकसान हुआ था।
1970 से 1999 तक उत्तराखंड में भूस्खलन और बाढ़ की कुल 18 बड़ी घटनाएं हुई। जिनमें करीब दो हजार लोगों ने अपनी जान गंवाई। जब उततराखंड राज्य अस्तित्व में आया तो ऐसी आपदाओं से निपटने के लिये यहां सरकार ने आपदा प्रबंधन प्राधिकरण भी बनाया। हालांकि प्राधिकरण बनने के बाद त्वरित सूचना तंत्र तो विकसित हुआ, लेकिन दैवीय आपदा पर नियंत्रण की कोई ठोस पहल नहीं दिखी। जबकि अंधाधुंध विकास कार्यों ने पहांडों को और कमजोर कर दिया। जिससे भूस्खलन और बाढ़ का सिलसिला और तेज हो गया है।
साल 2001 से 2012 तक 21 बड़ी घटनाएं हुई जिनमें करीब दो सौ मौतें दर्ज की गई। साल 2013 में केदारनाथ आपदा आई। यह उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरे भारत की भीषण आपदाओं में शामिल है जिसमें करीब पचास हजार लोगों के मारे गए और और 47 हजार लोग लापता हैं।
जाहिर है कि ये सभी आपदाएं जून, जुलाई, अगस्त और सितंबर के महीने में आई हैं। बरसात के इन चार महीनों में सबसे ज्यादा घटनाएं अगस्त में दर्ज की गई हैं। हालांकि 2013 के बाद यह पैटर्न भी बदल रहा है और जून महीने में ही पहाड़ बड़े पैमाने पर दरकने लगते हैं। ऐसे में आपदाओं के असर को कम करने के लिये परंपरागत तरीकों के साथ ही नई तरकीबें भी तलाशनी होंगी।