लद्दाख ही नहीं पूरे हिमालय की आवाज है सोनम वांगचुक की ये मुहिम
Pen Point, Dehradun : लद्दाख को पूर्ण राज्य दर्जा देने की मांग को लेकर पर्यावरणविद् सोनम वांगचुक होली से ठीक पहले अपना 21 दिन का उपवास खत्म कर दिया। लेकिन उनका आंदोलन अब भी जारी है। अब इसने रिले उपवास का रूप ले लिया है। जिसमें युवा, बौद्ध भिक्षु, बुजुर्ग और चेंग्पा चरवाहे भी शामिल होंगे। दरअसल यह मांग सिर्फ लद्दाख तक ही नहीं बल्कि पूरे हिमालयी इलाके को बचाने की अपील है। जिसके तहत वांगचुक और अन्य लोग सिंधु, सुरु, श्योक, नुब्रा और लद्दाख की अन्य नदियों के अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं। वे सियाचिन ग्लेशियर, त्सो मोरीरी और पैंगोंग त्सो झीलों, चांगपा चरवाहों, बकरियों की पश्मीना नस्ल, लद्दाखी बौद्ध धर्म और इस्लाम की अनूठी परंपराओं और नीली आंखों वाले ड्रोकपा लोगों के समुदायों की सुरक्षा चाहते हैं। विकास की गतिविधियों के बीच हिमालय के नाजुक मिजाज की अनदेखी यहां रहने वालों पर भारी पड़ रही है। यह आंदोलन ऐसे वक्त में जोर पकड़ रहा है जब देश में लोकसभा चुनाव का मौसम है। लेकिन हकीकत यह है कि राजनीतिक चर्चाओं और वायदों से पर्यावरणीय संकट का मुद्दा नदारद है।
पड़ोसी राज्य हिमालचल और लद्दाख से मिलते जुलते हालात उत्तराखंड में भी हैं। जहां बीते एक साल से जोशीमठ के लोग अपने पुनर्वास के लिये संघर्ष कर कर रहे हैं। इसके अलावा उत्तराखंड के उच्च और मध्य हिमालयी क्षेत्र में हर साल आपदाओं का दायरा बढ़ता जा रहा है। जोशीमठ समेत विष्णुगंगा हिमस्खलन, सिलक्यारा टनल हादसा जैसे अनेक ऐसे उदाहरण हैं। जिनके कारण पता लगाने पर यही बात सामने आती है कि इनमें से अधिकांश आपदाएं और दुर्घटनाएं मानव जनित ही है। केदारनाथ त्रासदी के घाव अभी भरे भी नहीं हैं लेकिन इसके बावजूद सबक नहीं लिया जा रहा है। भारी पनबिजली परियोजनाएं, बड़े राजमार्ग और रेलवे प्रोजेक्ट के लिये सुरंगों की खुदाई का सिलसिला लगातार जारी है। हालांकि इन सभी परियोजनाओं के लिये पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्ट जरूरी होती है, लेकिन आम तौर पर इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट की अनदेखी कर दी जाती है। सिलक्यारा टनल हादसे में यह बात खुल कर सामने आई है।
लद्दाख आंदोलन से जो बातें सामने आ रही हैं उसके मुताबिक लद्दाख का वन्य जीवन सदियों से इसके सुदूर पहाड़ों और घाटियों में लोगों का भरण-पोषण करता रहा है। हिम तेंदुआ जंगली भेड़ और बकरियों (कैप्रिड जैसे भरल या नीली भेड़, मार्खाेर और आइबेक्स) की आबादी को नियंत्रित करता है। यह अत्यधिक चराई को रोकता है, जो बदले में ढलानों पर पौधों के पुनर्जनन को बढ़ावा देता है। और यह बाढ़ को रोकता है। तो, आप हिम तेंदुए की आबादी और बाढ़ के बीच पारिस्थितिक संबंध देख सकते हैं, ”उन्होंने कहा। गौरतलब है कि एशियाई महाद्वीप की अधिकांश नदियां हिमालय या उच्च एशिया निवास स्थान (लद्दाख सहित) से निकलती हैं, जिन्हें तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। उत्तराखंड के पहाड़, नदियां और बुग्याल भी ऐसे ही हालात से गुजर रहे हैं।
उत्तराखंड के पर्यावरणविद विजय भट्ट के मुताबिक हम उत्तराखंड में भले ही एक राज्य बन गए हों। लेकिन इसके लिए योजना अभी भी केंद्रीकृत है और उन लोगों द्वारा तय की जाती है जो विकास के अलग तरह के प्रतिमान को स्थापित करना चाहते हैं। इसके परिणामस्वरूप हमने केदारनाथ, धौलीगंगा, सिल्क्यारा सुरंग, विष्णुगाड परियोजना और जोशीमठ के डूबने जैसी घटनाओं के रूप में प्रभाव देखा है। लेकिन अधिकारी उदासीन हैं।