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यात्रा: आदि कैलाश का रोमांच और व्यास घाटी की चुनौतियाँ समेटे हुए है ये सफर

Pen Point (Pushkar Rawat) : पिथौरागढ़ जिले के सीमांत इलाके में एक बार फिर जाना हुआ। महज एक महीने के अंतराल में मुनस्यारी के बाद धारचूला पहुंचने तक मन में काफी रोमांच था। लेकिन मुनस्यारी के खुशनुमा मौसम के उलट यहां की गर्मी ने अहसास ही नहीं होने दिया कि हम पहाड़ में हैं। काली नदी के दायें तट पर धारचूला काफी अस्त व्यस्त सा कस्बा है। भारत नेपाल व्यापार के लिये प्रसिद्ध इस कस्बे में नई बसावतें तेजी से आकार ले रही हैं। नदी के बाएं तट पर नेपाल का दार्चूला कस्बा है जहां एक चहल पहल भरा बाजार के साथ ही जिला मुख्यालय भी है। यहां एक झूला पुल के जरिए दोनों देशों के बीच विभिन्न वस्तुओं का व्यापार और रिश्तों का निबाह होता है।

खैर, इस बार धारचूला से आदि कैलाश जाने की योजना बन गई। 16 जून को इसके लिये जरूरी मेडिकल चेकअप और इनर लाइन पास बनवाने में पूरा एक दिन लगा। इस दौरान दिल्ली, मुंबई, गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश से पहुंचे पर्यटकों के साथ लाइन में खड़े हुए तो पता चला कि आदि कैलाश की यात्रा को लेकर उत्साह बढ़ता जा रहा है। बीते साल अक्‍टूबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आदि कैलाश दर्शन के बाद लोग इस ओर का रूख करने लगे हैं।

यूं तो इस यात्रा पैकेज में आदि कैलाश के साथ ओम पर्वत भी शामिल है, जिसमें पूरे चार दिन लगते हैं। लेकिन समय की कमी के चलते हमने एक ही दिन में धारचूला से आदि कैलाश जाकर लौट आने का फैसला किया। यह दूरी करीब 95 किमी की है। लिहाजा 17 जून को रविवार की सुबह पांच बजे धारचूला से एक स्थानीय बोलेरो में सवार होकर हमारा दल यात्रा पर रवाना हो गया। सीमा सड़क संगठन लगातार सामरिक महत्व वाली इस सड़क पर काम कर रहा है, जिसके चलते जगह जगह मशीनें खड़ी दिखाई देती हैं। धारचूला से करीब बीस किमी दूर तवाघाट से एक रोड दारमा और चैंदास धाटी को चली जाती है, यहीं से व्यास घाटी शुरू होती है जिससे आदि कैलाश के बेस कैंप जोलिंग कोंग तक पहुंचा जाता है।

तवाघाट में दारमा घाटी की ओर से आने वाली धौली गंगा नेपाल से आने वाली काली नदी से मिलती है। लेकिन धौली गंगा पर एनचपीसी का हाईड्रो प्रोजेक्ट होने के कारण अब नदी का पानी सूख चला है। गौरतलब है कि बिजली की जरूरतों का दबाव धौली गंगा समेत भारतीय सीमा वाली नदियों पर ज्यादा है। वहीं नेपाल के साथ सहमति ना होने के कारण काली नदी पर बांध परियोजनाएं फिलहाल नहीं बन सकती।

आगे बढ़ते हुए महसूस हुआ कि काली नदी अलग तरह के संकट का सामना कर रही है। इस संवेदनशील इलाके में भारत के लिये सामरिक दबाव के कारण सड़क बनाना जरूरी है, वहीं सामने नेपाल की ओर भी महाकाली कॉरीडोर सड़क परियोजना के लिये पहाड़ खोदा जा रहा है। ऐसे में दोनों ओर कई भूस्खलन जोन तैयार हो गए हैं, जहां पहाड लगातार दरक रहे हैं। बड़े बोल्डर और मलबे से कई जगह नदी पट गई है। एक किलोमीटर से दस किलोमीटर तक लंबे डेंजर जोन होने के कारण अथाह जलराशि वाली काली नदी कई जगहों पर बहुत संकरी नजर आती है। लगता है कि भूस्खलन से नदी का प्रवाह कभी भी अवरूद्ध हो जाएगा। वैसे भी काली नदी को बेहद गुस्सैल माना जाता है। अतीत पर नजर डालें तो सन् 1843 में नदी का प्रवाह भूस्खलन से अवरूद्ध होने के बाद झील बन गई थी, जिसके फटने से निचली घाटी में बहुत नुकसान हुआ था। इसके बाद लगातार इस इलाके में पर्यावरणीय हलचलें भूस्खलन, बाढ़ और भूकंप जैसी आपदाओं का सबब बनती रही हैं। साल 2013 में भी धौली और काली में आई बाढ़ ने निचली घाटी में धारचूला, बलुवाकोट, जौलजीबी और झूलाघाट तक तबाही मचाई थी।

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तवाघाट के बाद पांगला होते हुए हम बूदी पहुंचे। इसके बाद गब्र्यांग और नपल्च्य गांवों की सीमा को छूते हुए अगला पड़ाव गुंजी है। गुज्याल लोगों के गांव गूंजी से ओम पर्वत के लिये एक अलग सड़क चली जाती है। आम तौर पर लोग एक दिन गुंजी, नाबी या कुटी गांव में ही रात को रूकते हैं और दूसरे दिन आगे का सफर करते हैं। गुंजी की तरह ही गर्ब्‍यांग  में गर्ब्‍याल, नपल्च में नपल्च्याल, नाबी में नाबियाल और कुटी में कुटियाल लोग रहते हैं। पर्यटकों की आमद बढ़ने से इन गांवों में काफी होम स्टे बन चुके हैं। बताया गया कि जोलिंगकोंग में सरकार करीब पांच सौ कमरों का आवास गृह बनाने की तैयारी में थी, लेकिन फिलहाल स्थानीय लोगों के विरोध के कारण यह काम रूका हुआ है।

गुंजी के बाद हमें ठंडक महसूस होने लगी। जोलिंगकोंग की ओर चढ़ते हुए गाड़ी की आवाज भी बदलकर ट्रैक्टर जैसी हो गई थी, स्थानीय ड्राईवर ने बताया कि ऑक्सीजन की कमी के कारण ऐसा होता है। आदि कैलाश से करीब पांच सौ मीटर पहले आईटीबपी की पोस्ट पर हमारे परमिट चैक किये गए। पूरे सफर में करीब पांच जगह परमिट चैक किये गए थे। पर्यटकों की आवाजाही के चलते सामरिक सुरक्षा बढ़ा दी गई है। यहां आईटीबीपी और आर्मी हर वक्त मुस्तैद है उसके साथ ही बीआरओ लगातार सड़क निर्माण के काम में लगी है।
दरअसल, चीन ने भारतीय सीमा के पास लिपुलेख दर्रे तक सड़क तैयार कर ली है। इसीलिये अपनी सामरिक तैयारियों के तहत भारत सरकार भी लिपुलेख तक सड़क पहुंचाने के काम में जुटी है। बताया जा रहा है कि चारधाम सड़क परियोजना के तहत टनकपुर-लिपुलेख नाम की यह सड़क कुछ ही समय में पूरी कर दी जाएगी।

करीब दस बजे हम अपने अंतिम पड़ाव जोलिंगकोंग में थे, यहां से आदि कैलाश पर्वत के दर्शन शुरू होते हैं। जोलिंगकोंग में समुद्रतल से करीब 4800 मीटर की उंचाई पर है। यहां तेज बर्फीली हवाओं ने हमारा स्वागत किया, लेकिन इस उच्च हिमालयी इलाके में गाड़ियों की तादाद और पर्यटकों के जत्थे देख हम हैरान रह गए। यहां खाने पीने के लिये करीब एक दर्जन ढाबे बने हुए हैं। कुटी गांव के लोगों की जमीनें होने के कारण लगभग सभी दुकानें उन्हीं की हैं। इसके अलावा घोड़े खच्चर वाले भी स्थानीय लोग ही हैं। पंजाब से आए कुछ लोगों ने यहां भंडारा लगाया हुआ है, जहां पर्यटकों को चाय पकौड़े मुफ्त में दिये जा रहे हैं। स्थानीय लोग उन्हें टेढ़ी और सवालिया निगाहों से देख रहे हैं।

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जोलिंगकोंग के एक ढाबे पर बैठी महिला से बातचीत में मैंने बताया कि मैं मशहूर पर्वतारोही चंद्रप्रभा ऐतवाल और सुमन कुटियाल को जानता हूं, महिला बड़ी खुश हुई और उन्होंने करन कुटियाल का भी जिक्र किया। परिचय प्रगाढ़ हुआ तो उन्होंने मुझे एक टोपी उपहार में देने के साथ ही एक चाय और दो क्रीम रोल मुफ्त में खिलाए। दरअसल, ये तीनों लोग अब उत्तरकाशी के वाशिंदे हैं इनका मूल पिथौरागढ़ जिले की दूरस्थ व्यास घाटी में है।

आस पास मौजूद स्थानीय लोगों ने बताया कि पहले इस इलाके से कैलाश मानसरोवर यात्रा होती थी। हालांकि आदि कैलाश यात्रा पर गिने चुने लोग ही आते थे। लेकिन अब पर्यटकों की तादाद बढ़ी है। कई स्थानीय लोग यात्रियों की बजाए पर्यटकों की आमद से चिंतित नजर आए। वाहन चलाने वाले बलवंत का मानना था कि पर्यटन अपने साथ कई तरह की चुनौतियां लेकर आता है जिससे स्थानीय लोगों के हित और संस्कृति खतरे में पड़ सकती है।

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जोलिंगकोंग से करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर पार्वती मंदिर और सरोवर है। वहां तक पैदल के अलावा घोड़े खच्चरों से जाने का इंतजाम भी है। स्थानीय समुदाय अपने संसाधनों और हक हकूकों को बाहर के लोगों के साथ किसी भी हाल में साझा नहीं करना चाहता है। इसीलिये जोलिंगकोंग से आगे पार्वती सरोवर तक सड़क है लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के कारण वहां तक वाहन ले जाने पर पाबंदी है। लिहाजा पैदल या घोड़े खच्चरों से ही जाना होगा। हमारे दल ने पैदल ही इस दूरी को नापने का फैसला किया। करीब आधे घंटे के बाद हम पार्वती सरोवर के पास खड़े थे।

ऑक्सीजन की कमी के कारण यहां बहुत जल्दी सांस फूलने लगी थी। जिसके चलते बाहर से आए कई पर्यटकों को काफी परेशानी हो रही थी। यहां कारोना काल में सीखा गया कपूर सूंघने वाला नुस्खा उनके काम आ रहा था। कुछ लोग हांफते हुए यात्रियों को देख कपूर की पुड़िया भी बांट रहे थे। सरकार ने भले ही यहां यात्रा शुरू करवा दी हो लेकिन स्‍वास्‍थ्‍य सुविधा उपलब्‍ध कराना शायद भूल गई। शुक्र है कि सेना का अपना मेडिकल कैंप जोलिंगकोंग में मौजूद है, जहां रक्‍तचाप और सांस संबंधी दिक्‍कतों वाले कई पर्यटक पहुंच रहे थे। पार्वती मंदिर में बहुत से पर्यटक नजर आ रहे थे, कुछ लोग पूजा पाठ कर रहे थे तो कुछ लगातार छोटा कैलाश हिमाशिखर को नमन कर रहे थे। बहुत से घोड़े खच्चर भी वहां बंधे थे, इस ठंडे मरूस्थल में उनके खाने के लिये घास भी आस पास मौजूद नहीं थी।

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अद्भुत हिमालयी सौंदर्य देख यहां रूकने का मन करता है, लेकिन ऐसी जगहों पर दोपहर बाद मौसम करवट बदल लेता है। दिन के दो बजे तक हम सरोवर के आस पास घूमते रहे। ग्लेशियरों से बनी पार्वती सरोवर झील पार्वती नदी का मूल स्रोत है यह नदी भी आगे जाकर काली नदी में मिल जाती है। इस दौरान हम सभी ने महसूस किया कि आस पास के बहुत से ग्लेशियर पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। कई चोटियों बर्फविहीन होकर धूसर नजर आ रही थीं। स्थानीय निवासी नरेंद्र कुटियाल ने बताया कि पहले जून तक जोलिंगकोंग और पार्वती सरोवर के आस पास बर्फ होती थी। अब यहां बारिश होने लगी है पहले बारिश नहीं होती थी, बादल आते थे और सीधे बर्फ ही गिरती थी। उन्होंने बताया कि मौसम बदलने के कारण हमारे यहां खेती और फसलों पर भी इसका असर पड़ा है। जलवायु बदलाव के इन संकेतों को इस संवेदनशील इलाके में रहने वाले लोगों से बेहतर कोई नहीं समझ सकता।

अब मौसम बदलने लगा था। छोटा कैलाश हिमशिखर बादलों की ओट में छिप गया और तेज हवाओं के साथ फुहारें गिरने लगी। ऐसे में हमने लौटने का फैसला किया और जोंलिंगकोंग में एक ढाबे पर खाना खाने के बाद वापसी की राह पकड़ी। कुल मिलाकर व्यास घाटी एक साथ कई चुनौतियों से जूझ रही है, यहां सड़क का सफर जान हथेली पर रखकर करना होता है, चीन सीमा पर सुरक्षा के दबाव के बिजली की जरूरत पूरा करने का दबाव पहले से ही है, अब आदि कैलाश जाने की होड़ भूगर्भीय दृष्टि से संवेदनशील इस इलाके लिये नई चुनौती है।

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