मानसून की दस्तक के साथ 400 से ज्यादा गांवों में शुरू हुआ रतजगा
– प्रदेश में 411 गांव बीते सालों में मानसून के दौरान हुए भूस्खलन, भूधंसाव से आपदा प्रभावित, अकेले गढ़वाल मंडल में ही 106 से अधिक गांवों को है तत्काल विस्थापन की जरूरत
Pen Point, Dehradun : उत्तरकाशी जनपद की अस्सी गंगा घाटी के ढासड़ा गांव के ग्रामीण मानसून की दस्तक के साथ ही हर साल की तरह सुरक्षित पनाह के लिए गांव से दो किमी दूर मवेशियों के लिए बनाए गए कच्चे छप्परों में शरण लेने की तैयारियों में जुट गए हैं। ढासड़ा गांव के निकट साल 1991 में आए विनाशकारी भूकंप का केंद्र था जिस कारण यहां पहाड़ी पर बड़ी दरार उभर आई थी, जिसके चलते गांव के उपर पिछले तीन दशकों से भी ज्यादा समय से खतरा मंडरा रहा है। ग्रामीण हर साल मानसून की दस्तक के साथ ही गांव छोड़ मजबूरन मवेशियों के साथ रहने लगते हैं। ग्रामीणों को पिछले तीन दशक से भी ज्यादा समय से सुरक्षित इलाकों में विस्थापन का इंतजार है। वहीं, उत्तरकाशी जनपद के प्रमुख पर्यटन गांव बार्सू में भू धंसाव के चलते ज्यादातर घरों पर बड़ी बड़ी दरारें उभर आई है, गांव में लगातार धंसाव जारी है लेकिन गांव के विस्थापन की प्रक्रिया फिलहाल फाइलों में ही उलझी पड़ी है। मानसून की दस्तक के साथ ही ग्रामीणों की रात की नींद भी काफूर हो जाती है। जब उत्तराखंड में मानसून की दस्तक के साथ ही बीते दिनों से पड़ रही प्रचंड गर्मी से राहत मिल रही है तो वहीं प्रदेश की एक बड़ी आबादी के लिए फिर से रतजगा करने चुनौती भी खड़ी हो रही है।
उत्तराखंड बीते डेढ़ दशक के दौरान मानसून के दौरान भारी भूस्खलन, भूधंसाव, बाढ़, बादल फटने जैसी आपदाओं का गवाह बना है। 2012 में मानसून के दौरान असी गंगा नदी में आई विनाशकारी बाढ़ हो या 2013 में केदारनाथ व गंगोत्री में भारी बारिश से बादल फटने के बाद आया प्रलय हो। राज्य बनने के बाद हजारों लोगों को मानसून के दौरान आई आपदाओं में जान गंवानी पड़ी है। राज्य में मानसून के दौरान भूस्खलन से ही साल 2015 से 2018 तक ही 300 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। जबकि, बादल फटने के कारण आई बाढ़ मंे मरने वालों की तादात 10 हजार से भी ज्यादा है। प्रदेश भर में ही करीब 411 गांव बीते सालों में मानसूनी बारिश के चलते आपदा प्रभावित हो चुके हैं। जहां लोग जान जोखिम में डालकर निवासरत हैं। हालांकि, इन गांवों के विस्थापन को लेकर कई चरणों में सर्वे भी हो चुके हैं और प्रभावित ग्रामीण भी लंबे समय से विस्थापन की मांग करते रहे हैं लेकिन संसाधनों और भूमि उपलब्धता की कमी के चलते सरकार भी आपदा प्रभावित गांवों को विस्थापित करने के अभियान में तेजी नहीं ला सकी है। अकेले गढ़वाल मंडल में ही करीब 106 से अधिक गांवों के ढाई हजार परिवार खतरे की जद में जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं। मानसूनी बारिश के कारण गांव धंसाव की कगार पर है, नदियों में आए उफान से भू कटाव भी तेजी से हो रहा है तो भारी बारिश के चलते नए भूस्खलन क्षेत्र भी पैदा हो चुके हैं। ऐसे में ग्रामीणों को मानसून सीजन में रतजगा कर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करनी पड़ती है।
ग्रामीण सुरक्षित जगहों पर विस्थापित करने की गुहार लंबे समय से राज्य सरकार से लगा रही है। 2012 से लेकर 2016 तक कांग्रेसी शासनकाल में राज्य में आपदा प्रभावित गांवों के विस्थापन की गति बेहद धीमी रही। आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की रिपोर्ट की ही माने तो 2012 से लेकर 2016 तक दो गांवों के 11 परिवारों का ही विस्थापन हो सका, यह हाल भी तब थे जब 2011 में बनी विस्थापन नीति को 2012 में लागू किया गया। इस नीति के लागू होने के बाद उम्मीद जताई जा रही थी कि प्रभावित गांवों के विस्थापन में तेजी आएगी। हालांकि, 2017 में भाजपा ने राज्य में सरकार बनाने के बाद आपदा की दृष्टि से संवेदनशील गांवों के विस्थापन में जरूर तेजी दिखाई। साल 2017 में राज्य सरकार ने प्रदेश में आपदा के लिहाज से बेहद संवेदनशील 395 गांवों के विस्थापन की योजना बनाई थी। जिसमें पहले चरण में अति संवेदनशील 73 गांवों के 3491 परिवारों को विस्थापित किया जाना था जिसके लिए अनुमानित लागत 10 हजार करोड़ रूपए से अधिक बताई गई थी। हालांकि, शुरूआती दौर में सरकार ने तेजी दिखाते हुए 2017 से लेकर 2021 तक 80 आपदा प्रभावित और अति संवेदनशील गांवों के 1423 परिवारों को विस्थापित किया। हालांकि, कोरोना संकट के बाद आपदा के लिहाज से संवेदनशील और प्रभावित गांवों के विस्थापन का अभियान थम गया।