जब ‘मां गंगा’ ने उबारा टिहरी रियासत को आर्थिक संकट से
– राजा भवानी शाह के राजगद्दी संभालते ही टिहरी रियासत का खजाना हो गया था बिल्कुल खाली, तब गंगा नदी ने दिखाई राज्य को कमाई का जरिया
PEN POINT, DEHRADUN : करीब डेढ़ सौ साल पहले टिहरी रियासत का खजाना बिल्कुल खाली हो चुका था। राजकोष में इतना कम धन बचा था कि राज्य का संचालन मुश्किल हो गया था। तब टिहरी रियासत को आर्थिक संकट से गंगा नदी ने उबारा था। यूं तो हिंदुओं की यह पवित्र नदी गंगासागर तक लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि को उपजाउ बनाने, लाखों लोगों की प्यास बुझाने का काम कर रही थी लेकिन 1860 के दौर में गंगा नदी से टिहरी रियासत को भी कंगाल होने से बचा दिया। गंगा के जरिए तब राजकोष को हर साल साढ़े 16 सौ का राजस्व देने लगी थी।
केंद्र सरकार की विशेष योजना के तहत आप देश के किसी भी कोने में बैठकर गंगोत्री, ऋषिकेश से इंडियन पोस्ट के जरिए गंगा जल मंगवा सकते हैं। 250 मिली लीटर के गंगा जल की बोतल मंगवाने के लिए आपको 121 रूपए चुकाने पड़ते हैं जबकि कुछ निर्धारित पोस्ट ऑफिस के काउंटर से इसी गंगा जल के लिए 30 रूपए चुकाने पड़ते हैं। हालांकि, इस योजना की शुरूआती दौर में हरिद्वार समेत अलग अलग इलाकों में गंगा तटों पर स्थित नगरों के पंडितों पुजारियों ने विरोध किया था, यहां तक ही हरिद्वार में भारी विरोध के बाद यह योजना हरिद्वार में शुरू नहीं की गई। आपको जानकर हैरानी होगी कि डेढ़ सौ साल पहले टिहरी रियासत के राजा भवानीशाह ने गंगा जल का व्यवसायिक उपयोग करना शुरू कर दिया था। सदियों से ही गंगा जल से हिंदुओं की आस्था जुड़ी रही है। धार्मिक आयोजनों के लिए लंबे समय से गंगा जल को घर में रखना हिंदुओं के बीच एक परंपरा बन गई थी लेकिन उस दौर में गंगा जल लेने के लिए गंगोत्री या हरिद्वार तक पहुंचना आसान नहीं था। गंगोत्री जाने तक का मार्ग 1850 से पूर्व तक बेहद खतरनाक था, भैरोंघाटी समेत रास्ते भर में नदियों को पार करने के लिए कच्ची रस्सियों के सहारे बनाए गए पुल को पार कर गंगोत्री धाम पहुंचने का जोखिम बिरले साहसी तीर्थ यात्री ही उठा पाते थे वहीं गोरखा आक्रमण के दौरान गंगोत्री तक जाने का मार्ग बुरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया था, मार्ग इतना खतरनाक बना दिया था कि इतिहास में उल्लेख मिलता है कि उत्तरकाशी तक पहुंचना भी लोगों के लिए मुश्किल हो गया था। ऐसे में गंगा जल पाने को ललायित हिंदुओं तक गंगा जल पहुंचाने का काम टिहरी रियासत के लंबगांव क्षेत्र जिसे रमोली क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, इस क्षेत्र के निवासी बर्तनों में गंगा जल भर कर मैदानी इलाकों में पहुंचाते थे जहां गंगा जल के व्यवसायी रमोली निवासी लोगों से गंगा जल खरीदकर देश भर में बेचते थे।
टिहरी नरेश सुदर्शन शाह के निधन के बाद राजगद्दी को लेकर राजपरिवार में खूब रस्साकसी हुई। आखिरकार साल 1859 में राजा भवानीशाह को टिहरी रियासत की कमान मिली। राजा सुदर्शन शाह के बीमार होने के साथ ही टिहरी राजकोष में भी लूट शुरू हो गई। जब भवानीशाह को राजगद्दी मिली तो राजकोष में कुल जमा 6600 रूपए ही बचे थे। ऐसे में नकदी की गंभीर समस्या के बीच भवानी शाह को राज्य के संचालन के लिए कमाई के नए रास्ते खोलने थे।
ऐसे में भवानी शाह की नजर रमोली क्षेत्र के उन लोगों पर गई जो वर्षों से गंगा जल का व्यापार कर रहे थे। गंगा प्राकृतिक संपदा थी, लिहाजा रखरखाव पर खर्च शून्य था। ऐसे में इस संपदा से राजखजाने को भरने का विचार उनके मन में आया तो राजगद्दी संभालने के अगले साल ही यानि 1960 में उन्होंने रमोली के निवासियों पर शीतकाल के दौरान गंगा जल मैदानों तक बेचने के लिए लेकर जाने पर रोक लगाते हुए गंगा जल के व्यावसायिक दोहन के लिए ठेका प्रथा शुरू की। शुरूआती दो साल के लिए रमोली के ही कंडियालगांव निवासी धरमू और घुंघरू ने गंगा जल आपूर्ति का ठेका 3301 रूपए 4 पैसे में ले लिया। यानी अगले चार सालों में राजकोष में बची रकम गंगा जल के जरिए दोगुनी हो गई।
हालांकि, भवानी शाह का राजकाज कुल 12 साल का रहा लेकिन राज्य की आय बढ़ाने और खर्च कम करने पर उनका पूरा ध्यान केंद्रित रहा। लिहाजा 12 साल के राजकाज के दौरान 66 सौ रूपए के साथ मिले खजाने मंे उनकी मृत्यु के समय 2 लाख 45 हजार रूपए जमा हो चुके थे।
स्रोत – टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास डॉ. शिवप्रसाद डबराल।