लेंटरदार मकान के लिये हम “अमर धन” क्यों गंवा रहे हैं ?
Pen Point, Dehradun : उत्तराखंड के पहाड़ों में लगभग हर गांव में एक नजारा बेहद आम है। खास तौर पर जिन गांवों तक सड़क पहुंच गई हैं। गांव की मुख्य बसावत एक ही जगह है, हालांकि कुछ मकान आस पास छितरे हुए हैं। गांव से कुछ पहले ही ईंट, सीमेंट और सरिया के ढेर दिखने शुरू हो जाते हैं। साथ ही मिट़ी पत्थर और लकड़ी के परांपगत घरों से लगे सीमेंट के घर भी नजर आने लगते हैं। जिन्हें पहाड़ में लेंटरदार मकान कहा जाता है। परंपरागत मकानों के साथ सीमेंट के ये ढांचे रहन सहन मेें आ रहे बदलाव का अहसास कराते हैं। हालांकि दिखने के साथ ही यहां की जलवायु के हिसाब से पुराने घर एकदम मुफीद हैं। इस बात को गांव के लोग भी मानते हैं, लेकिन बदलाव की आंधी के सामने बेबस नजर आते हैं। जबकि पहाड़ों में भवन निर्माण की बड़ी कारगर शैली रही है जो हर इलाके में स्थानीय जरूरतों के हिसाब से विकसित हुई है। इन मकानों में इस्तेमाल की गई लकड़ी, चिनाई का पत्थर और पटाल सालों बाद भी काम आते हैं। इसीलिये पहाड़ी शैली के इन घरों को अमर धन भी कहा जाता है।
उदाहरण के तौर पर उत्तरकाशी जिले के सरनौल गांव को लेते हैं। इस गांव के अधिकांश पुराने घर कोटी बनाल शैली में बने हैं। इन घरों को स्थानीय लोग चौखट कहते हैं। जिनमें नींव से लेकर छत तक देवदार के स्लीपरों का नपा तुला फ्रेम तैयार किया जाता है। फिर फ्रेम के बीच दीवारों पर मिट्टी और पत्थर की चिनाई की जाती है। लकड़ी की खिड़कियां और झरोखे बनाए जाते हैं। छत के लिये पटाल यानी पत्थर की स्लेट का इस्तेमाल किया जाता है। परंपरागत तौर पर इनमें लिंटल बैंड तकनीक अपनाई जाती है, जिससे इन पर भूकंप का असर नहीं होता। लेकिन अफसोस की बात ये है कि गांव के अधिकांश चौखट अब सूने पड़े हैं। कई सौ साल पुराने ये घर सीमेंट के नए घर बनने के बाद छोड़ दिये गए हैं।
यह कहानी सरनौल की ही नहीं उत्तराखंड के अधिकांश पहाड़ी गांवों की है। सीमेंट सरिया, इंट और अन्य निर्माण सामग्री के बाजार की चपेट में हर कस्बा, गांव और तोक तक आ गए हैं। सदियों के अनुभव से विकसित हुई भवन निर्माण कला अब दम तोड़ चुकी है। जिसमें अपने संसाधनों का ही उपयोग किया जाता था। लिहाजा अब इस काम के कारीगर भी गिने चुने ही रह गए हैं।
हाल ही में टिहरी जिले के कंडियाल गांव निवासी जयप्रकाश राणा ने अपने घर को ग्रामीणों की मदद से बनाया। उन्होंने परंपरागत तरीका तो अपनाया लेकिन मकान के एक हिस्से को नए तौर तरीके से ही बनाया। हालांकि एक हिस्से को उन्होंने पुराने डिजाइन में ही रहने दिया। गांव में भवन निर्माण को लेकर अपने अनुभव को पेन प्वांइट के साथ साझा करते हुए जयप्रकाश राणा बताते हैं कि दरअसल परंपरागत शैली में मकान बनाना आसान नहीं रहा। लकड़ी, पत्थर ओर पटाल की उपलब्धता बेहद सीमित हो गई है। जबकि तिबारियों की नक्काशी वाले कारीगरों का भी अब अकाल है। फिर भी कोई बनाना चाहे तो पहाड़ी शैली का मकान बहुत महंगा पड़ेगा।
कुमांऊ में परंपरागत मकान
उत्तराखंड के अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों में आज भी पुराने मकान बड़ी शान से खड़े नजर आते है। इन घरों पर गौर करें तो हर घर के बाहर पत्थर का आंगन होता है। जहां अनाज सुखाने की जगह, ओखली और अन्य पारिवारिक उत्सव और त्यौहार मनाए जाते हैं। मकान के निचले तल को गोठ कहते हैं। जिसमें मवेशियों को रखा जाता है। आंगन से दोनों ओर एकल या जोड़े कमरों की ओर जाने वाली सीढ़ियाँ उठती हैं। एक भाग का उपयोग रसोई के रूप में किया जाता है जबकि दूसरे का उपयोग सोने के लिए किया जाता है। सभी कमरों का फर्श लकड़ी के तख्तों और स्लीपरों से तैयार कियाजाता है। जिस पर मिट्टी और गाय के गोबर से लिपाई होती है।
घर के मुख्य प्रवेश द्वार को खोली कहते हैं। यह आम तौर पर देवदार या तुन की लकड़ी से बनता है। जिसके शीर्ष समेत दोनों ओर पर देवी-देवताओं, पशुपक्षियों के चित्रो सहित विभिन्न आकृतियों की बेहद बारीक नक्काशी होती है।
कामरा के ऊपर ढालदार छत बनाई जाती है। जिसमें लकड़ी का एक बड़ा लॉग और उसके सपोर्ट के लिये दोनों ओर कई लॉग होते हैं। इसके साथ ही लकड़ियों से एक सतह तैयार की जाती है। जिसे घास गोबर और मिट्टी से ढका जाता है। इसके उपर चपटी एक साइज की पटाल लगाई जाती हैं। इनके ऊपर टहनियों का एक बिस्तर है। फिर इस बिस्तर को मिट्टी, गाय के गोबर और घास के लेप से ढक दिया जाता है। शीर्ष पर, सपाट पत्थर या पाटल रखे जाते हैं और मिट्टी से सील कर दिए जाते हैं। इन घरों में ऐपण और लिखाई जैसी परंपरागत चित्रकला का भी सुंदर इस्तेमाल किया जाता है।
गढ़वाल के परंपरागत मकान
गढ़वाल में पौड़ी, चमोली , टिहरी और उत्तरकाशी जिले के कुछ हिस्सों में भवन निर्माण की गढ़वाली शैली नजर आती हैं। जिसमें घर के पत्थरों की सतह वाले आंगन को चौक कहा जाता है। घर का निचला हिस्सा ओबरा होता है, जहां मवेशियों को रखा जाता है। उपरी मंजिल को बौंड कहा जाता है। जिसमें सामने छज्जा निकालकर डंडयाली बनाई जाती है। यह डंडयाली नीचे से डिजाइनदार खंबों पर टिकी होती है। उपर की मंजिल में डंडयाली के साथ लगभग बीच में लकड़ी के तोरण होते हैं जिन पर शानदार नक्काशी होती है। इसे तिबारी कहते हैं। उपरी मंजिल और छत के बीच का हिस्सा स्टोर के काम आता है। ऐसे घरों को ढाईपुरा भी कहा जाता है। गढ़वाल में भी मकानों में देवदार या तुन की लकड़ी का बहुधा उपयोग किया जाता है। घर की लिपाई पुताई लाल मिट्टी और गाय के गोबर से ही होती है।
आर्किटेक्ट पंकज बिष्ट के मुताबिक पहाड़ में मकान बनाने के लिये पुरानी शैली से बहुत सी चीजें सीखने लायक हैं, हालांकि नए मकानों में लोग इन बातों को नजर अंदाज कर रहे हैं। लेकिन नई और पंरापरागत तकनीकों को मिलाकर एक कारगर शैली विकसित की जा सकती है और कुछ लोग इस पर काम भी कर रहे हैं। जो दिखने में परंपरागत भी लगे और नई तरह की जरूरतों को भी पूरा कर सके।
भवन निर्माण से जुड़े इंजीनियर ऋषि के मुताबिक पहाड़ों में अंग्रेजों ने भी स्थानीय संसाधनों से बहुत शानदार इमारतें खड़ी की हैं। उन्होंने भी अपनी इमारतों में कई जगह स्लेट यानी पटाल की छतों का उपयोग किया है। यह तकनीक स्थानीय वातावरण के लिये उपयोगी थी। लेकिन अब पहाड़ की जलवायु में सीमेंट के साथ टाइल और संगमरमर का उपयोग किया जा रहा है, जिस वजह से ठंडे इलाकों में ऐसे मकानों से स्वास्थ्य संबधी दिक्कतें होने का खतरा है।