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देहरादून में कैद किए जाते थे दूसरे विश्वयुद्ध के युद्धबंदी

– दूसरे विश्व युद्ध के दौरान धुरी राष्ट्रों के युद्धबंदियों को गिरफ्तार कर देहरादून में बनाया गया था बंदीगृह, जर्मनी इटली के हजारों सैनिकों को रखा गया सालों तक कैद
Pen Point, Dehradun : पिछली सदी के चौथे दशक में जब दुनिया दूसरे विश्व युद्ध की गवाह बनी थी तो राज्य की राजधानी देहरादून को तब अंग्रेजी हुकूमत ने धुरी राष्ट्रों के सैनिकों का कैदखाना बना दिया था। 1939 से 1947 तक देहरादून के प्रेमनगर और क्लेमनटाउन जर्मनी के नाजी सैनिकों और इटली के सैनिकों को कैद रखा गया था। साल 2015 मंे राज्य की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने द्वितीय विश्व युद्ध के इन कैदखानों को पर्यटन केंद्रों के तौर पर विकसित करने की योजना बनाने की घोषणा की थी लेकिन दशक भर बाद भी इस पर एक कदम आगे नहीं बढ़ा जा सका है। यहां कि राज्य की एक बड़ी आबादी को अभी भी जानकारी नहीं है कि देहरादून दूसरे विश्व युद्ध के इतिहास को समेटे हुए है।
3 सितंबर 1939 को जब ब्रिटेन और फ्रांस ने मिलकर जर्मनी के खिलाफ मोर्चा खोला था तो दुनिया दो धुरों में बंट गई। ब्रिटेन के साथ फ्रांस समेत राष्ट्रमंडल देश एक साथ खड़े हुए। अगले छह सालों तक चले इस युद्ध ने पूरी दुनिया की भू राजनैतिक व्यवस्था को ही बदल दिया था। इस दौरान भारत पर राज कर रहे ब्रिटेन ने देहरादून को उन कैदियों की कैदगाह के रूप में चुना जिनके खिलाफ ब्रिटिश शासन युद्ध लड़ रहा था। जर्मनी और इटली के हजारों सैनिकों को गिरफ्तार कर भारत पहुंचाया गया और देहरादून के प्रेमनगर और क्लेमेनटाउन में इनके लिए जेले बनाई गई। इन जेलों में जर्मनी इटली के हजारों सैनिकों ने अगले कई साल गुजारे और देश को ब्रितानी हुकूमत से आजादी मिलने के बाद ही इन कैदियों की रिहाई हो सकी। इन जेलों में सिर्फ जर्मनी इटली के सैनिक ही नहीं रखे गए बल्कि इन मुल्कों के कई आम नागरिकों को भी इन जेलों में रखा गया। प्रेमनगर स्थित युद्धबंदी जेल से ही आस्ट्रिया के मशहूर पर्वतारोही व लेखक हेनरिच हेरर ने 1944 में अपने साथियों के साथ भागकर उत्तरकाशी नेलांग के रास्ते तिब्बत में प्रवेश में किया और अगले सात साल वहां गुजारे। हेनरिच हेरर जब के2 में अपने साथियों के साथ आरोहण के लिए आए थे तो उसी दौरान दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया था, धुरी राष्ट्रों से जुड़े होने के कारण ब्रिटिश सेना ने उन्हें गिरफ्तार कर देहरादून स्थित जेल भेज दिया जहां से तिब्बत जाने के लिए उन्होंने दो बार भागने की कोशिश की और दूसरी बार वह तिब्बत पहुंचने में सफल रहे तो तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक गुरू दलाई लामा के खास मित्र बन गए।
देहरादून में बनाई गई इन युद्धबंदी जेलांे की नौ विंग में युद्धबंदियों को बुरी तरह की यातनाएं दी जाती थी हालांकि उन्हें सुधारने के लिए धर्मगुरूओं की तैनाती भी की गई थी जो उन्हें सदाचार के पाठ पढ़ाते थे। 1945 से 47 में युद्धबंदियों की रिहाई हुई और खाली हुए विंग आजादी के बाद इन्हें पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को आवंटित कर दिया गया। आज वहां कॉलोनियां अस्तित्व में आ गई हैं।
साल 2015 में पर्यटन विभाग ने इन युद्धबंदी कैंपों को पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित करने की योजना बनाई थी। जिससे विश्व युद्ध के इतिहास में रूचि रखने वाले लोगों को इस महत्वपूर्ण स्थल पर जाकर दूसरे विश्व युद्ध से जुड़ी अहम जानकारी मुहैया हो सके। लेकिन, यह योजना फाइलों से आगे नहीं बढ़ सकी। आज आलम यह है कि तेजी से फैलते फूलते देहरादून में यह युद्ध बंदी कैंप कहां गुम हो गए हैं किसी को पता नहीं है।

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