दादा साहेब फाल्के : गुमनाम मौत के बाद फिर जिंदा हुए भारतीय फिल्मों के पितामह!
आज दादा साहेब फाल्के की पुण्यतिथि, अरबों की फिल्म इंडस्ट्री की शुरुआत दादा साहेब ने एक सस्ते से कैमरे और जुगाड़ से जुटाए गए सामान के साथ की थी
PEN POINT, DEHRADUN : क्रिसमस का दिन था और साल 1910 था, बंबई के अमरिका इंडिया पिक्चर पैलेस में ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नाम की फिल्म दिखाई जा रही थी। फिल्म देख रहा एक युवा बाकी दर्शकों के साथ इस अद्भुत और नए अनुभव को देख रहा था तो तालियां बजाने के साथ साथ निश्चय कर चुका था कि एक मैं भी भारतीय धार्मिक और मिथकीय चरित्रों को बड़े पर्दे पर पेश करूंगा। नाम था घुंडीराज गोविंद फाल्के, जो बाद में दादा साहेब फाल्के के नाम से प्रसिद्ध हुए। भारतीय सिनेमा के पितामह या कहें जनक माने जाते हैं । उनके नाम से आज दादा साहेब फाल्के अवार्ड भारतीय सिनेमा में अभूतपूर्व काम करने वाले अभिनेताओं को दिया जाता है।
अक्सर सामान्य ज्ञान में एक सवाल आता है कि भारत की पहली फिल्म कौन सी थी तो आसान सा जवाब होता है कि राजा हरीशचंद्र। भारतीय सिनेमा की शुरूआत इसी साइलेंट फिल्म से हुई थी जिसका निर्माण किया था घुंडीराज गोविंद फाल्के ने। स्क्रीन पर पहली फिल्म देखने के 3 साल बाद ही 43 साल के फाल्के ने भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म बनाकर आज इस अरबों रूपये की फिल्म इंडस्ट्री की शुरूआत की थी। 1870 में नासिक में पैदा होने वाले भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के की आज पुण्यतिथि है। भारत के सिनेमा का इतिहास पश्चिम के सिनेमा के इतिहास से बहुत बाद का नहीं है। 1895 में लुमियर बंधु ने दुनिया की पहली चलती-फिरती फिल्म बनाई जो कि सिर्फ 45 सेकेंड की थी। इसे पेरिस में दिखाया गया था। एक दो साल के बाद ही 1896-97 में यह भारत में प्रदर्शित की गई। इसके करीब 15 साल बाद 1910 में तब के बंबई के अमरीका-इंडिया पिक्चर पैलेस में ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ दिखाई गई थी।
फिल्म बनाने के जुनून में बहुत कुछ गंवाया
इस फिल्म के बनने के करीब 15 साल बाद इसे देखने वाले घुंडीराज गोविंद फाल्के ने बंबई में मौजूद थियेटरों की सारी फिल्में देख डाली। दो महीने तक वो हर रोज शाम में चार से पांच घंटे सिनेमा देखा करते थे और बाकी समय में फिल्म बनाने के उधेड़बुन में लगे रहते थे। इससे उनके सेहत पर असर पड़ा और उनकी आंखों को इस लत का खामियाजा भुगतना पड़ा। लगातार हर रोज फिल्म देखने के चलते वह लगभग अंधे हो चुके थे।
चिकित्सकों की मदद से और तीन चार चश्मों की मदद से वह अपनी रोशनी वापिस पा सके। उन्होंने पहली भारतीय फिल्म बनाने के लिए ब्रिटिश सरकार के पुरातत्व विभाग में अपनी फोटोग्राफर की सरकारी नौकरी छोड़ दी। वो एक पेशेवर फोटोग्राफर बनने के लिए गुजरात के गोधरा शहर गए थे। वहां दो सालों तक वो रहे थे लेकिन अपनी पहली बीवी और एक बच्चे की मौत के बाद उन्होंने गोधरा छोड़ दिया था।
आज भले ही हम सुनते हैं कि फलां फिल्म का बजट पांच सौ करोड़ का है, लेकिन सुनकर ताज्जुब होगा कि दादा साहब फाल्के ने महज 20-25 हजार की लागत से पहली फिल्म बनाने की शुरुआत की थी। इसे जुटाने के लिए फाल्के साहब को अपने एक दोस्त से कर्ज लेना पड़ा था और अपनी संपत्ति एक साहूकार के पास गिरवी रखनी पड़ी थी।
कठिन डगर थी भारत की पहली फिल्म बनाना
भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाने की दादा साहब फाल्के की कोशिशें अपने-आप में एक पूरी गाथा है। तब के रूढ़िवादी समाज में महिलाओं के लिए सिनेमा देखना तक वर्जित माना जाता था तो सिनेमा में काम करने का सवाल ही नहीं था। लिहाजा, उनकी पहली फिल्म में पुरुष ही नायिकाओं के किरदार निभाया करते थे। हालांकि, दादा साहेब फाल्के चाहते थे कि नायिका का किरदार कोई महिला ही करे इसके लिए वह बंबई समेत कई शहरों के वेश्यालयों की खाक छान चुके थे लेकिन कोई महिला काम करने को तैयार नहीं हुई। भारत में फिल्म निर्माण को स्थापित करने में फाल्के साहब का पूरा परिवार लगा हुआ था। गहने बेचकर कई बार उनकी पत्नी ने उनकी मदद की थी। पहले विश्वयुद्ध के दौरान दादा साहब फाल्के के सामने एक वक्त ऐसा आया जब वो पाई-पाई को मोहताज हो गए थे। उस वक्त वो ‘श्रियाल चरित्र’ का निर्माण कर रहे थे। उनके पास कलाकारों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं थे। 19 सालों के अपने करियर में दादा साहब फाल्के ने कुल 95 फिल्में और 26 लघु फिल्में बनाई थीं। गंगावतरण उनकी आखिरी फिल्म थी। यह फिल्म 1937 में आई थी। यह उनकी पहली और आखिरी बोलती फिल्म भी थी हालांकि यह फिल्म असफल रही थी।
वी शांताराम की मदद से घर मिला
इसके अगले साल भारतीय फिल्म इंडस्ट्री अपनी सिल्वर जुबली मना रही थी। सरदार चंदुलाल शाह की अगुवाई में मनाई जा रही सिल्वर जुबली में भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के को भी बुलाया गया था लेकिन उन्हें इस कार्यक्रम में इतना सम्मान भी नहीं दिया गया कि उन्हें अग्रिम पंक्ति में बिठाया जाए। दर्शक दीर्घा में बैठे दादा साहेब फाल्के को वी शांताराम ने पहचाना और सम्मान के साथ स्टेज पर ले आए। सिल्वर जुबली समारोह के आखिरी दिन वी शांताराम ने निर्देशकों, निर्माताओं और कलाकारों से अपील की वे सब मिलकर चंदा दे ताकि दादा साहब फाल्के के लिए एक घर बनाया जा सके। हालांकि बहुत कम पैसे इकट्ठा हो सके लेकिन वी शांताराम ने अपने प्रभात फिल्मस कंपनी की ओर से उसमें अच्छी खासी रकम मिलाकर फाल्के साहब को घर बनाने को दिया।
इस तरह नासिक के गोले कॉलोनी में उन्हें एक छोटा सा बंगला आखिरी वक्त में नसीब हो सका। इस बंगले में वो ज्यादा दिन नहीं रह सके।
आज के ही दिन 1944 में उनकी एक गुमनाम शख्स की तरह मौत हो गई। जबकि तब तक उनका शुरू किया हुआ कारवां काफी आगे निकल चुका था और फिल्मी दुनिया की बदौलत कुछ शख्सियतों ने अपना बड़ा नाम और पैसा कमा लिया था।
1969 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में दादा साहेब फाल्क्े पुरस्कार की शुरुआत की। जो भारतीय फिल्मों का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है। 1970 में भारतीय डाक विभाग ने उन पर एक डाक टिकट जारी किया, और 2001 में उनके नाम से फिल्मों में लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड शुरू किया गया। इस तरह गुमनाम मौत के बाद भारतीय सिने जगत में फिर से स्थापित हो गया।