जब बिना लड़े ही क्रूर गोरख्याणी के कब्जे में आ गया था अल्मोड़ा
-आज के ही दिन सवा दो सौ साल पहले आतंक का पर्याय बने गोरख्याणी ने उत्तराखंड में जमाना शुरू किया था साम्राज्य
PEN POINT DEHRADUN : उत्तराखंड का इतिहास गोरख्याणी की क्रूरता के किस्सों से भरा पड़ा है। पड़ोसी देश नेपाल से गोरखों का हमला और उसके बाद कुमाऊं और गढ़वाल में मचाई हिंसा व लूटपाट की कहानियां आज भी रूह कंपा देती है। उत्तराखंड के इतिहास का वह क्रूर अध्याय अल्मोड़े से शुरू हुआ था। करीब सवा दो सौ साल पहले आज के ही दिन गोरखा साम्राज्य ने अल्मोड़े में बिना लड़े ही कब्जा जमाया था।
22 मार्च 1790 में अल्मोड़ा में गोरखा शासन ने कब्जा जमाया था। प्रो. अजय रावत अपनी किताब “उत्तराखंड का समग्र इतिहास” में लिखते हैं- उस समय कुमाऊं की राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक दशा अच्छी न थी। समाज हर तरफ विघटित हो चुका था। सामाजिक व्यवस्थाकारों ने ऐसी ऐसी व्यवस्थाएं कर रखी थी कि एक एक वर्ण में सौ सौ उपजातियां स्थापित हो चुकी थी। समाज की आर्थिक हालत बहुत खराब हो चुकी थी। सूखे तो कभी अतिवृष्टि ने खेती किसानी बर्बाद कर दी थी उस पर राजाओं की ओर से सिंचाई की व्यवस्था भी नहीं की गई थी जिससे समस्याएं बड़ी विकराल थी। वहीं, अनाज वितरण की व्यवस्था न होने से एक जगह से दूसरी जगह तक अनाज पहुंचाना और उपलब्ध करवाना भी मुश्किल था। समाज का जमींदार वर्ग राजाओं द्वारा शोषण का शिकार बना हुआ था।
गोरखों की राह आसान करने का काम राजदरबार में मची गुटबाजी ने भी की। राजदरबार गुटबाजी का केंद्र बना हुआ था। महरा व फर्त्यालों के दलों में जब चाहे जिसे उठायें, जब चाहें जिसे बिठाए की स्थिति बनी हुई थी, उन्हीं के नक्शे कदम पर जोशी दीवान कार्य करते थे। राजभक्ति व देशभक्ति का कोई नामलेवा नहीं रह गया था। सबके अपने अपने स्वार्थ थे। राजदरबार से ही लोग कुमाऊं की हर कमजोरी को नेपाल जाकर गोरखों को बताया जाता था। गोरखों को पता चल चुका था कि कुमाऊं में दरबार के अंदर मची अंर्तकलह उनकी राह आसान कर देगी। लिहाजा जनवरी 1790 में हस्तिदल चौतरिया काजी जगजीत पांडे, सेनापति अमर सिंह थापा तथा शूरवीर थापा के नेतृत्व में गोरखा वीरों ने काली नदी पार कर दो मार्गों से अल्मोड़े की ओर प्रस्थान किया। एक झूलाघाट से सोर होता हुआ गंगोलीहाट व सेराघाट की ओर बढ़ा तथा दूसरा दल सीधे बिसुंग होते हुए अल्मोड़े की ओर बढ़ा। गोरखों के इस आकस्मिक आक्रमण से कुमाऊं में हाहाकार मच गया।
गोरखों को साक्षात यमराज का रूप माना जाने लगा और उनकी दस्तक से ही अफरातरफी मच गई। लोग जान बचाकर जंगलों की तरफ भागने लगे। कुमाऊं के शासकों ने गोरखो को रोकने की कोशिश तो की लेकिन सफल नहीं हो सके। महेंद्र चंद ने गंगोली में जाकर लड़ाई तो की लेकिन गोरखो के हाथों हार से वह पहाड़ छोड़कर मैदान की तरफ कूच कर गया। बिना किसी प्रतिरोध के गोरखे आखिरकार चैत्र कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन 1790 में उन्होंने अल्मोड़े के चंदों की राजधानी में प्रवेश किया। इस समय हरक देव भी उनके साथ था।
चंदों के चौमहल में प्रवेश कर गोरखो ने उनकी पत्नियों व पुत्रियों को अपने साथ रख लिया तथा दरबार में रात दिन नाना षडयंत्र में संलग्न दरबारियों को बेरहमी से प्रताड़ित किया, बहुत से दरबारी तो गोरखों का आगमन मात्र सुनकर पहले ही गुफाओं व जंगलों में जा छिपे थे। अल्मोड़े में उन्होंने घर घर जाकर खूब लूट पाट की तथा जहां जो भी खाने को मिला उसे छीन लिया।
कुमाऊं में गोरखों ने 1790 से लेकर 1815 तक शासन किया। उनका अधीश्वर नेपाल में शासन करता था और कुमाउं जैसे प्रांतों में गवर्नर शासन करते थे, जिन्हें सुब्बा या सूबेदार कहा जाता था। कुमाउं में गोरखों का अधिकार हो जाने के बाद जोगा मल्ल शाह को कुमाउं का सुब्बा नियुक्त किया गया।
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