2 नवंबर: आज मॉरीशस की धरती पर गूंज रहे हैं भोजपुरी लोकगीत
Pen Point, Dehradun : 189 साल पहले आज ही के दिन यानी 2 नवंबर 1934 को ब्रिटिश सरकार का एटलस जहाज भारतीय मजदूरों को लेकर मॉरीशस पहुंचा था। इन मजदूरों में 80 प्रतिशत बिहार से थे। ठेके पर मजदूरी करने के कारण इन्हें गिरमिटिया कहा गया। माना जाता है कि मजदूर जब भारत से मॉरीशस गए थे तब उन्होंने इसे मारीच समझा था। रामायण में मारीच रावण का मामा था, लोक मान्यताओं में उसके देश का नाम भी मारीच था जहां ढेर सारा सोना था। अनुबंध के समय उनको यही लालच दिया गया, ऐसे में मजदूरों ने सोचा कि वहां से सोना कमाकर खुशी खुशी अपने देश लौट जाएंगे। लेकिन ऐग्रीमेंट पर अंगूठा लगते ही उन्हें अलग तरह के हालात देखने पड़े मॉरीशस पहुंचने के बाद जो दर्द और अमानवीयता उन्होंने झेली उसे बयान भी नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद उन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति को बचाए रखा। उनका मानना था कि भाषा गई तो संस्कृति समाप्त हो जाएगी। उन विपरीत हालात में उन्होंने इस बात को अपने जेहन में बनाए रखा। आज यही बात मॉरशीस का स्लोगन है।
इंसान जिंदगी में कैसे भी हाल में हो वह गीत गुनगुनाता है। खास तौर पर अपनी भाषा में वह अपने अहसासों को गीतों जरिये जाहिर करता है। मॉरीशस पहुंचने वाले मजदूरों ने भी अपनी दुधबोली के जरिये अपना लोक साहित्य को विकसित किया। उनके लोकगीतों में प्रवास की पीड़ा, बुनियादी सुविधाओं का अभाव और बेहतरी की उम्मीद जैसी भावनाएं शामिल हैं। एक गीत की बानगी देखिये-
आये हम सब हिन्द से, करन नौकरी हेत
गिरमिट काटी कठिन से, फिर सर्कारी खेत
फिर सर्कारी खेत, कोई स्वदेश लौट गए
कोई खरीदी भूमि, कोई गाँवन में बस गये।
भीड़भाड़ वाली जिंदगी से एकदम अलग धरती का स्वर्ग माना जाने वाला मॉरीशस एक मनमोहक टापू है, जिसकी जमीन पर कदम रखते ही वहां चारों ओर फैली हरियाली और समुद्र की लहरें आपके मन को अभिभूत कर देंगी। मॉरीशस के बारे में कहा जाता है कि इस देश में एक छोटा भारत बसता है। यही सोचकर एक गीत ऐसा भी है-
“सोनवा न मिलल त का ?
अपन परिश्रम संगे त अनलनजा
काटकूट के वन के उपवन त बनइलन
पत्थर तोड़-तोड़के बंजर भूमि के
उपजाऊ भूमि त बनइलन
खेती त लहलहाइल।
मेहनतकश भारतीय मजदूरों के बूते अब मॉरीशस दुनिया के पर्यटन नक़्शे में बेहद अग्रणी स्थान बना चुका है। उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत और श्रम से इस देश को नई पहचान दी है। बताया जाता है कि एटलस से जो मजदूर मॉरीशस ले जाए गए थे, उनमें 80 प्रतिशत तक बिहार के थे। इन मजदूरों को गिरमिटिया मजदूर कहा जाता था, यानी जिन्हें समझौते के तहत वहां मजदूरी करने लाया गया था। अंग्रेजों का मकसद मॉरीशस को कृषि प्रधान देश के रूप में विकसित करना था। अंग्रेज 1834 से 1924 के बीच भारत के कई मजदूरों को मॉरीशस ले गए। मॉरीशस जाने वालों में सिर्फ मजदूर नहीं थे। ब्रिटिश कब्जे के बाद मॉरीशस में भारतीय हिंदू और मुस्लिम दोनों व्यापारियों का छोटा लेकिन समृद्ध समुदाय भी वहां गया था। यहां आने वाले अधिकांश व्यापारी गुजराती थे। इतिहास के मुताबिक 19वीं शताब्दी में कई ऐसे घटनाक्रम हुए, जिससे मजदूरों के वंशज वहां जमीन खरीद सके। धीरे-धीरे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आया है। इस गीत में उनके दर्द को समझा जा सकता है।
गली के घीसल चट्टान पर, जब हमार गोर पड़ल
ऐसन लागल कि हमर पूर्वज के खून पसीना के महकवा
दुखदरद के कहानी छुपल बा !
आज भी मॉरीशस की कुल आबादी में करीब 48% सनातन परम्परा को मानने वाले हैं। उनके रीति रिवाजों को देख कर यह पता ही नहीं चलता कि आप विदेश में हैं। बल्कि वहां जाकर साफ़ तौर पर किसी भी उत्तर भारतीय शहर का आभास होने लगता है। मॉरीशस के लोग आज भी भारतीय एहसास और अपनेपन के साथ हिन्दी और भोजपुरी भाषा में बात करते हुए सुने जा सकते हैं। इससे भारत से वहां घूमने जाने वाले लोगों को उस विदेशी भूमि पर भी भारतीय मिट्टी की खुश्बू से सराबोर कर देती है।
मॉरिशस की 2011 की जनगणना के अनुसार, 48.5ः मॉरिशियाई जनसंख्या हिन्दु धर्म का पालन करती है, इसके बाद 32.7ः ईसाई, 17.2ः मुस्लिम और लगभग 0.7ः अन्य धर्मों को मानती है। 0.7ः लोगों ने स्वयं को नास्तिक या अधार्मिक बताया जबकि 0.1ः ने कोई उत्तर नहीं दिया।
यह छोटा सा टापू वाला देश अफ्रीकी देशों में सबसे ज्यादा प्रतिव्यक्ति आय वाले देशों में से शुमार है। इतिहास पर नजर डालें, तो मॉरीशस पर 1715 में फ्रांस ने कब्जा किया था। तब इसकी अर्थव्यवस्था विकसित हुई, जो चीनी के उत्पादन पर आधारित थी। 1803 से 1815 के दौरान हुए युद्धों में ब्रिटिश इस द्वीप पर कब्जा करने में सफल हुए। भारतीय मूल के सर शिवसागर रामगुलाम की अगुआई में ही मॉरीशस को 1968 में आजादी मिली थी। राष्ट्रमंडल के तहत 1992 में यह गणतंत्र बना। मॉरीशस एक स्थिर लोकतंत्र है, यहाँ नियमित रूप से स्वतंत्र चुनाव होते
गीत संकलन श्रोत- अपनी माटी