11वां दीक्षांत समारोह: जनांदोलन से उपजे गढ़वाल विश्वविद्यालय का इतिहास जानिए
Pen Point, Dehradun : बुधवार 8 नवम्बर को एचएनबी गढ़वाल केंद्रीय विश्विद्यालय का दीक्षांत समारोह आयोजित किया जा रहा है। इस बार एक बार से फिर इस समारोह को भव्य बनाने के लिए जबरदस्त तैयारियां की गयी हैं। खास कर इसलिए क्योंकि इस बार इस समारोह में बतौर मुख्य अतिथि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू यहाँ आ रही हैं। अगले महीने की एक तारीख को गढ़वाल में उच्च शिक्षा का प्रमुख केंद्र रहा यह विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के पचास साल पूरे करने जा रहा है। इससे पहले यह दीक्षांत समारोह आयोजित किया जा रहा है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू इन दिनों उत्तराखंड के दौरे पर हैं। अपने बेहद बीजी शेड्यूल के बावजूद वे बुधवार को गढ़वाल विश्वविद्यालय के चौरास परिसर पहुंचेंगी। राष्ट्रपति की विश्विद्यालय के अति होनहार छात्रों को डिग्रियां बांटेंगी। इस मौके पर उत्तराखंड के राज्यपाल गुरमीत सिंह और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी इस कार्यक्रम शिरकत करेंगे। ये तो रही बात इस भव्य कार्यक्रम की। इसके अलावा यहाँ ये भी जानना बेहद दिलचस्प हो जाता है कि आखिर इस पहाड़ी क्षेत्र के लोगों को उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए इस यूनिवर्सिटी की स्थपना से पहले किन मुसीबतों से जूझना पड़ता था, और इस पूरे गढ़वाल क्षेत्र में उच्च शिक्षा का कोई केंद्र न था। इस वजह से कई गरीब होनहार छात्र उच्च शिक्षा हासिल करने से वंचित रह जाते थे।
इसी जरूरत को महसूस करते हुए गढ़वाल में एक विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए समाज के प्रबुद्ध लोगों ने अपनी आवाज उठानी शुरू की। इसके लिए जनसमर्थन मिलना तय था। धीरे-धीरे ये चर्चा और आवाज एक आंदोलन के रूप में मुखर होकर सामने आई। क्योंकि विश्वविद्यालय न होने के कारण गढ़वाल मंडल के छात्रों को इंटरमीडिएट के बाद उच्च शिक्षा के लिए कानपुर, आगरा और लखनऊ जैसे शहरों का रुख करना पड़ता था। जिसमें कई तरह की मुसीबतों सामना परिवार और छात्रों को उठाने के लिए मजबूर होना पड़ता था। ऐसे में श्रीनगर में विश्वविद्यालय स्थापना के लिए साल 1971 में एक बड़ा आंदोलन शुरू किया गया। इस आंदोलन में समाज के सभी वर्गों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। महिलांए भी मुखर हो कर इस आंदोलन का हिंसा बनी। आंदोलन इतना व्यापक था कि विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए गढ़वाल मंडल के लोग भूख हड़ताल और गिरफ्तारियां देने से भी नहीं चुके। अब तक यह आंदोलन पूरी तरह से एक जान आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर चुका था। जिसका दबाव यहाँ के तत्कालीन तमाम जान प्रतिनिधियों पर पड़ा, और पहाड़ के इस सुदूरवर्ती क्षेत्र की यह आवाज दूर लखनऊ विधानसभा भवन तक में गूंजने लगी। बेहद व्यवस्थित ढंग से इस आंदोलन की रूप रेखा तय की गई। जिसमें 1971 में उत्तराखंड विश्वविद्यालय केंद्रीय संघर्ष समिति का गठन किया गया। इसके संरक्षण की जिम्मेदारी समाज सुधारक और उस दौर में बेहद सक्रिय और चर्चित रहे स्वामी मन्मथन और स्वामी ओंकारानंद को दी गई। समिति में प्रेम लाल वैद्य, प्रताप पुष्पवाण, प्रसिद्द साहित्यकार विद्या सागर नौटियाल, कृष्णानंद मैठाणी, वीरेंद्र पैन्यूली, कुंज विहारी नेगी, जयदयाल अग्रवाल, ऋषि बल्लभ सुंदरियाल और कैलाश जुगराण को जिम्मेदारियां सौंपी गई। ये तामाम लोग उस वक्त अपनी युवा अवस्था में बड़े ही जोश और जूनून से भरे हुए थे। इनकी एक जुटाता तत्कालीन राजनेताओं के लिए किसी चुनौती से कम नहीं मानी जा रही थी।
इस समिति के साथ अगली पांत में महिलाओं का बहुत बड़ा समूह जुड़ गया था। जिसने 26 जुलाई को 1971 को विश्वविद्यालय की मांग के लिए श्रीनगर में भूख हड़ताल शुरू कर दी। इसके बाद 16 सितंबर 1971 को विश्वविद्यालय की मांग के लिए पूरा गढ़वाल मंडल बंद रहा। इसका परिणाम यह हुआ की अब इस आंदोलन के साथ गढ़वाल तमाम जनपदों में विश्वविद्यालय की मांग के लिए उत्तरकाशी, पौड़ी, देहरादून, चमोली और टिहरी जिलों में आंदोलन होने शुरू हो गए। इसके लिए गाँधी के आंदोलन के हथियार को अपनाया गया, जिसमें यहाँ विभिन्न स्थानों में सत्याग्रहियों ने प्रदर्शन कर गिरफ्तारी देनी शुरू कर दी। प्रशासन ने स्वामी मन्मथन और कुंज विहारी नेगी को गिरफ्तार कर रामपुर जेल भेज दिया। लेकिन बावजूद इसके यह आंदोलन तेज होता गया। तत्कालीन सरकार ने समय और जनता की भावनाओं को समझते हुए इस आंदोलन व्यापकता को देखने और महसूस करने के बाद 23 नवंबर 1973 को उत्तर प्रदेश शासन ने श्रीनगर में राज्य विश्वविद्यालय स्थापना की अधिसूचना जारी की। इसके बाद एक दिसंबर 1973 को श्रीनगर में गढ़वाल विश्वविद्यालय की स्थपना की गयी। तीन साल के आंदोलन के बाद एक दिसंबर 1973 को स्थापित आज के हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय पाने 50 पूरे करने जा रहा है। इन पचास सालों में इस विश्विद्यालय से अब तक करीब 20 लाख से ज्यादा छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा में डिग्रियां हासिल कर देश और दुनिया में बड़ी-बड़ी जगहों पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
26 जुलाई को 1971 को विश्वविद्यालय की मांग के लिए श्रीनगर में मातृ शक्ति ने भूख हड़ताल की। 16 सितंबर 1971 को विश्वविद्यालय की मांग के लिए समूचा गढ़वाल मंडल बंद कराया गया। विश्वविद्यालय के लिए उत्तरकाशी, पौड़ी, देहरादून, चमोली और टिहरी जिलों में आंदोलन हुए। विभिन्न स्थानों में सत्याग्रहियों ने प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तारी दीं। स्वामी मन्मथन और कुंज विहारी नेगी को गिरफ्तार कर रामपुर जेल भेज दिया गया। इस आंदोलन का व्यापक असर देखने को मिला। जिसके परिणाम स्वरुप श्रीनगर में विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए 16 सितंबर 1971 में उत्तर प्रदेश विधान सभा में 23 विधायक कार्य स्थगन प्रस्ताव लाए। इन तमाम विधायकों ने तत्काल लोक महत्व के प्रश्न पर विचार करने की मांग की। इस दौरान सरकार पर तुरंत इसका कोई खास असर नहीं हुआ लेकिन जब यह आंदोलन बदस्तूर चलता रहा तो लंबे आंदोलन को देखते हुए 23 नवंबर 1973 को उत्तर प्रदेश शासन ने श्रीनगर में राज्य विश्वविद्यालय स्थापना की अधिसूचना जारी की। एक दिसंबर 1973 से विश्वविद्यालय विधिवत रूप से संचालित होने लगा।
पहले कुलपति
बीडी भट्ट को गढ़वाल विश्वविद्यालय के पहले कुलपति बनने का गौरव प्राप्त है। वह वर्ष 1973 से 1977 तक कुलपति रहे। मेजर एसपी शर्मा यहां पहले कुलसचिव बने। शुरुआत में बिड़ला परिसर श्रीनगर गढ़वाल विश्वविद्यालय के अधीन था। इसके बाद पौड़ी और टिहरी मेें भी परिसर स्थापित किए गए। समय के साथ छात्रों की संख्या और श्रीनगर में बढ़ती आबादी के चलते बिड़ला परिसर का विस्तार किया गया। इसमें अलकनंदा नदी के पार टिहरी क्षेत्र में चौरास में परिसर को विस्तार दिया गया।
केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा
इसके बाद साल 2009 में इस विश्वविद्यालय को 15 जनवरी 2009 को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया। अपने स्थापना काल में पांच संकाय से शुरू हुए गढ़वाल विश्वविद्यालय में केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद 14 संकाय आकार ले चुके हैं।इस साल विश्विद्यालय अपने 50 साल पूरे कर रहा है। इस लिहाज से इस साल यूनिवर्सिटी में स्वर्णजयंती कार्यक्रम चल रहे हैं। इस दौरान सालभर विश्वविद्यालय आंदोलन संबंधी अभिलेखों को संकलित करने का काम प्रमुखता से किया जा रहा है। अब 8 नवम्बर को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू यहाँ दीक्षांत समारोह में पहुँच रही हैं।