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जयंती विशेष: अंग्रेजी हुकूमत के लिए सिर दर्द बना रहा ‘मन्यम वीरूडु’

– आज दक्षिण भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी अल्लूरी सीताराम राजू की जयंती, जंगल के नायक नाम से थे प्रसिद्ध
PEN POINT, DEHRADUN : बीते साल प्रसिद्ध तेलुगू फिल्म RRR की धूम मची थी, फिल्म की प्रसिद्धि इस कदर थी कि इसके एक गाने को इस साल फिल्मी दुनिया का सबसे बड़ा ऑस्कर पुरस्कार तक मिला। रीलिज के दौरान कमाई के मामले में नए कीर्तिमान स्थापित करने वाली फिल्म आरआरआर दक्षिण भारत में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने वाले दो स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियों पर आधारित थी जिसमें से एक थे अल्लूरी सीताराम राजू। अल्लूरी सीताराम राजू जिसे दक्षिण भारत के जनजातीय क्षेत्र में लोग “मन्यम वीरुडु“ यानि ‘जंगल का नायक’ कहा करते थे। राजू सिर्फ आजादी की लड़ाई के लिए ही नहीं बल्कि अपने समाज में कई क्रांतिकारी बदलाव के लिए भी प्रसिद्ध थे।
आज के ही दिन 4 जुलाई 18 आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में अल्लूरी राजू का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम वेंकटराम राजू था। बचपन से ही उन्होंने अपने आसपास अपने संसाधनों पर अंग्रेजों का कब्जा, अपने लेागों के प्रति अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता को देखा और महसूस किया। उन्होंने 1922 से लेकर 1924 तक चले राम्पा विद्रोह का नेतृत्व किया। सीताराम राजू 18 साल की उम्र में संन्यासी बन गए। उन्हें जंगली जानवरों को वश में करने की क्षमता हासिल थी। इसके अलावा, उन्हें ज्योतिष और चिकित्सा का भी ज्ञान था। यही वजह है कि पहाड़ी और आदिवासी लोगों के बीच वे काफी लोकप्रिय हुए।
अल्लूरी सीताराम राजू अंग्रेजों के खिलाफ राम्पा विद्रोह करने के लिए प्रसिद्ध हैं। अंग्रेजों ने 1982 में मद्रास वन अधिनियम को लागू कर दिया। इस अधिनियम के लागू होने से स्थानीय आदिवासियों के जंगल जाने पर प्रतिबंध लग गया। अभी तक वे खेती करने के लिए जमीन का इंतजाम जंगलों को जला कर करते थे, जिसे पोडु कहा जाता था। अपने जंगलों पर ही अपने लोगों के जाने पर प्रतिबंध और अंग्रेजों के जुल्मों ने उन्हें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ खड़ा कर दिया, अपने लोगों की दशा को देख उन्होंने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ हथियार उठा लिए थे। उन्होंने 25 साल की उम्र में 1922 में रम्पा विद्रोह शुरू कर दिया।
सीताराम राजू अंग्रेजों को खुली चुनौती देते थे, जिससे अंग्रेज आग-बबूला हो जाते थे। वे राजू को पकड़ने के लिए पुलिस टीम को भेजते थे, लेकिन उनमें से कोई भी वापस नहीं आता था। राजू और उनके साथी सभी पुलिसवालों को मौत के घाट उतार देते थे। राजू और उनके साथियों को जब लड़ाई के लिए हथियार की जरूरत होती, वे अंग्रेजों के पुलिस स्टेशनों पर धावा बोलकर हथियार लूट लेते थे। उनकी मंशा अंग्रेजों को पूर्वी घाट से भगाने की थी।
रम्पा विद्रोह की जंग अंग्रेजों और राजू के बीच दो साल तक चली। आखिरकार 7 मई 1924 को चिंतबल्ली के जंगल में अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया। इसके बाद उन्हें पास के एक गांव में लाया गया और पेड़ से बांधकर उन्हें गोलियों से भून दिया गया। अंग्रेज उनकी मौत के जरिए यह संदेश देना चाहते थे कि उनसे टकराने का अंजाम क्या होता है। भारत सरकार ने सीताराम राजू पर 1986 में डाक टिकट जारी किया था। वहीं बीते साल उनकी जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी जयंती पर उनकी प्रतिमा का अनावरण किया था।

महात्मा गांधी थे प्रभावित पर चुनी थी हिंसा की राह
अल्लूरी सीताराम राजू महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित थे। महात्मा गांधी का उन पर जबरदस्त असर था। जब महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन शुरू किया था तो राजू ने भी महात्मा गांधी से प्रभावित होकर लोगों से खादी पहनने की अपील की साथ ही जनजातीय क्षेत्रों में शराब पीने, बनाने पर रोक लगाने के लिए भी उन्होंने अपने लोगों को राजी किया। राजू का प्रभाव क्षेत्र में इस कदर था कि उनके आह्वान पर बड़े पैमाने पर लोगों ने पहनावे के रूप में खादी को चुना और शराब पीने और बनाने पर रोक लगा दी। हालांकि, शुरूआती दौर में राजू महात्मा गांधी के अहिंसा के रास्ते को बेहतर मानते थे। लेकिन, अंग्रेजी सरकार द्वारा जनजातीय क्षेत्रों में हिंसा बल के आधार पर उनके पारंपरिक अधिकारों पर कुठाराघात करने और उनके खिलाफ क्रूरता दिखाने की कार्रवाईयों से तंग आकर राजू ने अहिंसा का रास्ता छोड़ हिंसा का रास्ता अपनाया और अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध शुरू कर दिया। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि भारत केवल बल के प्रयोग से ही आज़ाद हो सकता है अहिंसा से नहीं।

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