ज्वलंत मुद्दा : खेती बाड़ी और जंगली जानवरों का आतंक, क्यों नहीं है चुनावी मुद्दे में शामिल …
PEN POINT, DEHARADUN : उत्तराखण्ड में पाँच लोकसभा क्षेत्र, तीन राज्यसभा सीट, 70 विधानसभा क्षेत्र , दो मण्डल और 13 जिले, 95 विकासखण्ड और 110 तहसीलें हैं। इनमें 97 नगर निकाय और 7485 ग्राम पंचायतें हैं। इस तरह उत्तराखण्ड के विकास के लिए प्रशासनिक और जन-प्रतिनिधित्व का ढांचा स्थापित किया गया है। राज्य का 80 फीसदी हिस्सा पहाड़ी है, लेकिन आबादी का ज्यादा हिस्सा 20 फीसदी मैदानी हिस्से में बसा हुआ है। इसमें भी पहाड़ी इलाकों में बसावट लगातार कम होती जा रही है। पर्वतीय इलाकों में जन जीवन हमेशा से ही बेदह मुश्किलों भरा रहा है। ऐसे में यहाँ पलायन के स्तर पर कभी कमी दर्ज नहीं की गयी। राज्य बनने के बाद इसमें ज्यादा तेजी से इजाफा हुआ। यहाँ का जीवन खेती बाड़ी पर ही मूल रूप से निर्भर रहा है। खेती बाड़ी और पशुपालन से घरेलू आय, अपनी जरूरतें और वस्तु विनिमय के जरिए अन्य जरूरी चीजों को जुटाना खास तौर पर इसमें शामिल रहा है। लेकिन जो एक बड़ी मुसीबत यहां हमेशा से ही बनी रही, वह है मानव वन्य जीव संघर्ष। अब यह घटनाएं बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं। इसका असर न केवल राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में देखा गया है, बल्कि मैदानी इलाकों में ऐसी घटनाएं बड़ी संख्या में बढ़ी हैं। ये घटनाएं खेती बाड़ी चौपट होने के अलावा इंसानी जिंदगियों पर भी भारी पड़ती जा रही हैं। आय दिन मीडिया की सुर्खियों और आज के सोशल मीडिया के दौर में तो सीधे ये सामने आ जाती हैं। जिसमें हर साल वन्यजीव संघर्ष में जान गंवाने वालों की तादाद में इजाफा दर्ज किया जा रहा है।
अलग राज्य बने हुए पूरे 23 साल हो गए हैं। इस बीच राज्य के लोगों ने पहले विधानसभा चुनाव के लिए 2002 और पहले पंचायत चुनाव के लिए 2004, पहले नगर निकाय चुनाव 2003, पहले लोक सभा चुनाव के लिए 2004 में मतदान किया था। इसके बाद हर पॉंच साल में अब तक कितने चुनाव हो चुके हैं, इसका आप अंदाजा लगा सकते हैं। इस वक्त भी देश भर के साथ ही उत्तराखण्ड में लोकसभा का प्रचार-प्रसार बड़े जोर-शोर से चल रहा है। बीजेपी और और कांग्रेस इस चुनाव में अपना पूरा दम-खम लगाए हुए है। लेकिन यहांॅ के लोगों की जीवन के लिए नासूर बनती मानव-वन्य जीवन संघर्ष की घटनाओं से लोगों को निजात दिलाने का मुद्दा किसी भी दल के चुनावी एजेण्डे में प्रमुखता से शामिल नहीं है। आइये आज प्रुमुखता से इसी गंभीर मुद्दे पर कुछ रायसुमारी जानने की कोशिश करते हैं।
कार्फी लम्बे वक्त से पौड़ी में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता करन रावत का इस पूरे मसले पर साफ कहना है कि उत्तराखण्ड के जीवन, जीविका और समाज को सीधे तौर पर मानव-वन्य जीव संघर्ष प्रभावित कर रहा है। यहाँ गाँवो में रहने वाले लोग गुलदार , भालू और अन्य जंगली जानवरों के शिकार बन रहे हैं। जिसमें गुलदार की घटनाएं सबसे अधिक हैं। इस वजह से लोग अपने गाँव छोड़कर शहरी इलाकों में बसते जा रहे हैं। लेकिन अब तो तेंदुओं के उत्तराखण्ड के शहरों तक भी पहुंच बेहद आसान हो गई है। वे कहते हैं कि यह संघर्ष लगातार बढ़ता जा रहा है। सरकार के जिम्मेदार विभाग यू ंतो बड़े बड़े दावे करते हैं लेकिन इस समस्या का समाधान प्रभावित लोगों को नहीं मिल पा रहा है, बल्कि ये अपने विकराल रूप में पहुंचती हुई दिख रही है। ऐसे में हमारे जन प्रतिनिधियों ने इस ओर कभी गंभीरता नहीं दिखाई, जो बेहद खेद जनक है। इस गंभीर मुद्दे को चुनाव के प्रमुख एजेण्डे में शामिल होना चाहिए था। लेकिन अफसोसजनक है कि किसी का इस ओर ध्यान नहीं है।
अब बता दें कि बीते तीन साल में उत्तराखण्ड में गुलदार के हमले में 63 लोगों की मौतें हुई। बाघ के हमलों में 25 लोगोें ने अपनी जान गंवाई। हाथी के हमले में 27 लोगों की मौतें हुईं। इसके अलावा भालू के हमले से 3 मौतें हुई हैं। सबसे ज्यादा 369 लोग सांप के काटने से घायल हुए हैं। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक साल 2023 में ही जंगली जानवरों के हमले में 66 लोगों की मौतें हुई और 317 लोग घायल हुए हैं।
पत्रकार गणेश नेगी बताते हैं कि पहाड़ों में महिलाओं और बच्चों पर गुलदार के हमले के मामले 70 प्रतिशत से ज्यादा हैं। यहाँ ग्रामीण इलाकों में महिलाएं खेती-बाड़ी और पशुपालन के लिए खेतों और चारे के लिए जंगलोें पर निर्भर हैं। ऐसे में बच्चे घर-गांवों में महिलाओं का हाथ बंटाने के लिए उनक साथ आते-जाते हैं। ऐसे में गुलदार महिलाओं और बच्चों पर ज्यादा हमला करते हैं। लेकिन अब पहाड़ोे में गुलदारों की संख्या बेतहाशा बढ़ गई है और वो घर-आंगन तक आ कर महिलाओं और बच्चों पर बेखौफ हो कर हमला कर रहे हैं और उन्हें अपना शिकार बना रहे हैं। इसे लेकर किस तरह से लोगों को निजात दिलाई जाए इस पर सरकार गंभीर नजर नहीं आ रही हैं। जबकि यह पहाड़ के जन जीवन से जुड़ा हुआ बहुत बड़ा मुद्दा है। लेकिन किसी चुनावी मंच पर इस पर कोई बात नहीं हो रही है। यह बेहद चिंता का विषय न केवल नेताओं के लिए होना चाहिए बल्कि इस पर मतदाताओं को भी ध्यान देने की जरूरत है। ये सवाल बेखौफ हो कर चुनाव लड़ने वाले नेताओं और उनकी पार्टियों से पूछे जाने चाहिए।
इस ज्वलंत मुद्दे पर उर्मिला पटवाल कहती हैं कि उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में जहाँ एक ओर हिंसक जंगली जानवर ग्रामीणों की जिंदगी खत्म कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ खेती बाड़ी में दिन रात की मेहनत और खून पसीना बहा कर लोग जो फसल उगाते हैं उसे बंदर, सूअर बर्बाद कर देते हैं। किसान के हाथ कुछ नहीं लग पाता। यही कारण है कि अधिकांश पहाड़ी इलाकों में जी तोड़ मेहनत करने के बाद कोई फायदा नहीं मिलता, एसे में अब वे खेती से मुंह मोड़ने को मजबूर हो रहे हैं। ऐसे में उन्हें 5 किलों गेंहं औेर चावल के लिए सरकार की तरफ देखने के लिए मजबूर होना पड़ता है। आज कल चुनाव का हो हल्ला सुनाई दे रहा है। हर कोई अपनी पार्टी और अपने लिए वोट मांग रहा है, लेकिन जनता के ऐसे असल मुद्दों और सवालों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है।
उत्तराखण्ड में जंगली जानवर पहले जंगलों तक सीमित थे, अब वे ग्रामीण और कस्बों में मानव वस्तियों की तरफ आने लगे हैं। इससे मानव-वन्य जीव संघर्ष तेजी से बढ़ रहा है। यह राज्य अपनी अलौकि प्राकृतिक छटा और हरे भरे बुग्यालों, जंगलों, नदियों, और झरनों से अटा पड़ा है। इसीलिए यह दुनिया भर से आने वाले पर्यटकों की पसंद में सुमार होता जा रहा है। यहां के प्राकृकित जंगलों में कई तरह के जानवर पाए जातें हैं जिनमें बाघ, गुलदार, तेंदुआ, हिम तेंदुआ, हाथी, भालू समेत हिरन सहित कई अन्य जानवर शामिल हैं। इन्हें देखने के लिए पर्यटक यहां पहुंचते हैं। लेकिन अब इनमें से हिंसक जानवरों यहां के लोगों की ही जान के दुश्मन बनते जा रहे हैं। जहॉं हिसक पशु आदम खोर हो कर इंसानों को अपना निवाला बना रह हैं। वहीं बंदर, सूअर, हाथी और नील गाय यहांॅं फसलों को चौपट कर दे रहे हैं। ऐसे में इसका बुरा असर यहां की मानव बसावट वाले ग्रामीण इलाकों के साथ ही अब शहरी इलाकों पर भी पड़ता दिख रहा है। लोग अपने घर-गॉव और कस्बों को छोड़ कर अन्यत्र ठौर की तलाश में बाहर निकल रहे हैं।
ऐसेे में इस लोक सभा चुनाव में इतना सब कुछ होने के बाद भी कहीं नेताओं और राजनीतिक दलों की चर्चा में यह प्रमुख विषय शामिल तक नहीं है। ऐसे में इसका जवाब यहां के मतदाताओं को वोट की चोट से देना होगा।
बता दें कि इस बार के लोक सभा चुनाव में जनता में कोई खास उत्साह नजर नहीं आ रहा है। मतदाताओं की ये बेरुखी किसकी बत्ती गुल करेगी, यह देखने के लिए फिलहाल अभी 4 जून का इंतजार करना पड़ेगा।