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एक साल में कोई भी हो जाएगा उत्तराखंड का निवासी ?: क्या चुनाव में UCC की ये सच्चाई BJP के लिए मुसीबत बन जाएगी ?

Pen Point, Dehradun: उत्तराखंड के निवासी की जो नई कानूनी परिभाषा बताई जा रही है, उस पर बवाल होना शुरू हो गया है। पहले कांग्रेस की मुख्य प्रवक्ता गरिमा दसौनी ने इस बात को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए सार्वजानिक किया था। लेकिन इसे किसी ने  गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन “द वायर” न्यूज़ वेब साइट में उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत के एक आर्टिकल ने इसे बेहद गंभीर विषय में तब्दील कर दिया है। इसके बाद सीनियर जर्नलिस्ट मनु पंवार के यू ट्यूब चैनल पर भी जय सिंह रावत ने इसके सभी कानूनी पहलुओं पर बातचीत की और बताया कि यह किस तरह उत्तराखंड के लिए बहुत बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।

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रावत ने राजनीतिक लोगों को चकड़ैत करार देते हुए इस यूसीसी कानून को असंवैधानिक बताया है। वो कहते हैं कि 24 दिसम्बर को उत्तराखंड के देहरादून में विशाल रैली भूमि कानून और मूल निवास को लेकर आयोजित की गयी। उत्तराखंड के प्रतिष्ठित लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी की कॉल पर हजारों कि संख्या में लोग सडकों पर उतर आए। लग रहा था एक और उत्तराखंड आंदोलन खड़ा हो गया है। लेकिन जहाँ एक तरफ ये सब मांगे हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ उत्तराखंड सरकार यूसीसी कानून को अंतिम रूप दे रही थी। जिसमें उत्तराखंड में निवासी की परिभाषा एक साल कर दी गयी है। अभी तक तो स्थाई निवासी के रूप में स्थाई निवासी के लिए 15 साल की सीमा रखी गयी थी। लेकिन यह किसी एक्ट के जरिए लागू नहीं की गयी थी। उसे सरकार कभी भी बदल सकती है। लेकिन यूसी सी प्रारम्भिक में दिया गया है संक्षिप्त नाम कि कौन क्या होगा। इसमें प्रमुख विषय 3 में परिभाषा के तहत स्पष्टीकरण में 1  (ड) में स्पष्ट किया गया है : जिसमें लिखा गया है कि जो राज्य में कम से एक वर्ष से निवास रहा व्यक्ति उत्तराखंड का निवासी है। यह कानूनी रूप से तय की गयी है। अब यह सरकार का कोई साधारण जीओ नहीं है। बल्कि कानून बन गया है।

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रावत ने स्पष्ट किया है कि पहली बार उत्तराखंड में निवासी की परिभषा तय की गयी है। ये बहुत चिंता का विषय है। इसमें स्पष्ट है। इसमें कोई किन्तु परन्तु नहीं रखा गया है। वे कहते हैं कि कि यह कोई साधारण कानूनी बदलाव नहीं है यह बाकायदा विधान सभा से पास हो कर राज्यपाल के जरिये राष्ट्रपति की मोहर लग चुकी है। अब इस पर कोई बदलाव किया जाना टेढ़ी खीर होगा।

 

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रावत कहते बताते हैं कि उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए विशेष सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित किया गया था। लेकिन इसी कानून को लेकर जिस तरह से हिन्दू मस्लिम के नजरिये से प्रचारित करने का रास्ता अपनाया गया। वे कहते हैं यह यूसीसी कानून पूरी तरह चुनावी तौर पर लाया गया है। लेकिन यह उत्तराखंड के लोगों के लिए पहचान का संकट खड़ा करने वाला साबित होगा। ग्रामीण इलाकों को नगर निकायों में मिलाया जा रहा है, ताकि जमीनें बेचीं जा सके।

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उत्तराखंड के लोग अगर इसे समझ गए तो, तब उन्हें पता चलेगा कि ये तो सरकार ने हिन्दू मिस्लिम की आड़ में यूसीसी के नाम पर निवासी की परिभाषा चुपके से बदल दी गयी हैं। वे कहते हैं यह समान नागरिकता कानून की बजाय असमान नागरिकता कानून है। लेकिन लोगों के सामने इस बात को नहीं ले जाया जा रहा है। वे कहते हैं लोग चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं, लेकिन ये गलत है। साकार से नराजगी का जवाब देने का सबसे सही वक्त चुनाव है, वोट डालकर जवाब दीजिये।

उन्होंने पूछी जाने पर बताया किसी भी ने भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया। अब कांग्रेस इसे उठा रही है। लेकिन यूकेडी ने इसे देखा तक नहीं। कम से कम देखना तो चाहिए था।

आइये बताते है कि उत्तराखंड के इस बेहद खतरनाक और गंभीर मुद्दे पर कांग्रेस ने क्या कुछ कहा था ?

बता दें कि बीते हफते ही उत्तराखंड कांग्रेस की मुख्य प्रवक्ता और हाल ही में लोकसभा चुनाव को लेकर यूपी की मीडिया प्रभारी बनाई गई गरिमा दसौनी ने कांग्रेस प्रदेश मुख्यालय में प्रेस वार्ता आयोजित कर सरकार पर समान नागरिक संहिता की आड़ में प्रदेशवासियों के साथ छलावा करने का आरोप लगाया था।

जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकार ने प्रदेश की जनता के साथ किया छल: किया है। दसौनी ने इस बात को और पुख्ता तौर पर जोर देते हुए कहा कि इससे पहले भी 2018 में तत्कालीन पूर्व मुख्यमंत्री रहे त्रिवेंद्र रावत ने भू कानून में संशोधन करके उत्तराखंड की जमीनें बाहरी लोगों और भू माफिया के पास गिरवी रख दी, जबकि पूर्ववर्ती सरकारों में बाहरी व्यक्ति उत्तराखंड में केवल 200 वर्ग मीटर से अधिक की जमीन नहीं खरीद सकता था। लेकिन त्रिवेंद्र रावत ने भू कानून में संशोधन किया और इस नियम को खत्म कर दिया। उन्होंने कहा कि अब वर्तमान भाजपा सरकार ने प्रदेश की जनता पर एक और कुठाराघात किया है।

दसौनी ने कहा कि धामी सरकार ने समान नागरिक संहिता की जो परिभाषा दी है, उसके तहत उत्तराखंड में मात्र 1 साल से अधिक समय से रहने वाले व्यक्ति को यहां का निवासी माना गया है। उन्होंने कहा कि प्रदेश की जनता आज सशक्त भू कानून और मूल निवास की मांग पर अड़ी हुई है। ऐसे में कानून बन चुके समान नागरिक संहिता में इस तरह का प्रावधान उत्तराखंड के लोगों के साथ धोखा है। इसके अलावा गरिमा ने कहा कि निवासी की जो परिभाषा समान नागरिक संहिता के ड्राफ्ट में अंकित की गई है, उसमें उत्तराखंड के जनमानस के भीतर असमंजस की स्थिति बन गई है।

द वायर में जय सिंह रावत ने लिखा है कि समानता के नाम पर बनाई गई इस असमान संहिता को लेकर जो संवैधानिक प्रश्न उठ रहे हैं, वे तो अपनी जगह हैं ही, लेकिन अब इस संहिता में ‘निवासी’ की नई कानूनी परिभाषा को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। चूंकि यह विवाद भावनात्मक है, विपक्षियों ने उसे भाजपा के धार्मिक एजेंडा के तोड़ के रूप में थाम लिया है. धामी सरकार की यूसीसी में महज एक साल से उत्तराखंड में रह रहे व्यक्ति को राज्य का निवासी मान लिया गया है, जबकि लोग 1950 से पहले से यहां रहने वाले को ही यहां का मूल निवासी घोषित करने की मांग कर रहे हैं।

उत्तराखंड वासियों की सांस्कृतिक पहचान और गरीब पहाड़ियों की जमीनें बचाने को लेकर राज्य में मूल निवास और मजबूत भू कानून को लेकर जनता काफी समय से आंदोलित है. इस मुद्दे को लेकर उत्तराखंड के प्रख्यात लोक गायक और कवि नरेंद्र सिंह नेगी के आह्वान पर 24 दिसंबर 2023 को देहरादून में एक ऐसी विशाल रैली हो चुकी है, जिसने लोगों को उत्तराखंड आंदोलन की याद ताजा करा दी थी। इसी मुद्दे को लेकर कई प्रमुख नगरों में रैलियां हो चुकी है जिनमें हजारों की संख्या में लोग अपनी भावनाएं प्रकट कर चुके हैं।

राज्य के लोग सन् 1950 से पहले से उत्तराखंड में रह रहे लोगों को मूल निवासी घोषित करने की मांग कर रहे हैं ताकि प्रदेश में तरक्की के अवसरों पर पहला हक मूल निवासियों को मिल सके और पहाड़ के लोगों की अपनी सांस्कृतिक पहचान अक्षुण बनाए रखी जा सके. इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश काश्तकारी एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1972 की धारा 118 की तर्ज पर भू कानून की मांग उठ रही है ताकि धन्ना सेठ और राजनेता, नौकरशाह और माफिया की तिकड़ी लोगों की जमीनें बचाई जा सके।

समान नागरिक संहिता उत्तराखंड, 2024 के प्रारंभिक अध्याय के क्रम संख्या 3 में विभिन्न प्रावधानों से संबंधित कानूनी परिभाषाएं दी गई हैं. इसी क्रम संख्या 3 के (ड) के खंड चतुर्थ (iv) में प्रावधानित है कि ‘जो व्यक्ति कम से कम एक वर्ष से राज्य में निवास कर रहा है या राज्य सरकार या केंद्र सरकार की ऐसी योजना का लभार्थी है जो राज्य में लागू है, वह राज्य का निवासी माना जाएगा।

कहां तो राज्यवासी पिछले 74 साल से उत्तराखंड में रहने वाले को मूल निवासी घोषित करने की मांग कर रहे हैं और कहां धामी सरकार ने एक साल से राज्य में रहने वाले को ही कानूनन यहां का स्थाई बना दिया. तो क्या एक साल से कोई विदेशी भी उत्तराखंड में रह रहा हो तो सामरिक दृष्टि से संवेदनशील इस सीमांत राज्य में वह ‘निवासी’ मान लिया जाएगा? नेपाली जनसंख्या यहां आती-जाती रहती है। तिब्बती लोग 1949 से देहरादून के कुछ क्षेत्रों में रहते हैं. इस संबंध में भी इस एक्ट में कोई स्पष्टीकरण नहीं है. सन् 2003 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी ने नया भू कानून बनाया था तो उसकी प्रस्तावना में लिखा था कि सीमांत क्षेत्र में जमीनों की खरीद-फरोख्त का राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्त्व मद्देनज़र और भोले-भाले पहाड़ियों की जमीनें बचाने के लिए यह कानून बनाया जा रहा है।

वर्तमान में राज्य गठन से 15 साल पूर्व यानी 1985 से उत्तराखंड में रह रहे लोगों को स्थाई निवासी मानने का शासनादेश लागू है. लेकिन अब बाकायदा विधानसभा द्वारा पारित और भारत के राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित कानून ने एक साल की समय सीमा को कानूनी जामा पहना दिया। इसलिए धार्मिक कारणों से यूसीसी का स्वागत कर रहे आम लोग भी इसे धोखा मानने लगे हैं। जिस यूसीसी को भाजपा ने चुनावी हथियार बनाया है वही हथियार बूमरैंग करने लगा है। कानून के जानकारों के अनुसार पहली बार राज्य में निवासी शब्द को विधानसभा ने कानूनन परिभाषित किया है इसलिए यह प्रावधान गैर उत्तराखंडियों को सरकारी नौकरियों से लेकर हर जगह फायदा पहुंचाएगा।

गौरतलब है कि जनता की भारी मांग पर तत्कालीन नारायण दत्त तिवारी सरकार ने वर्ष 2003 में राज्य की बची-खुची जमीनें भूमाफिया, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और नवधनाढ्यों के हाथों खुर्दबुर्द होने से रोकने के लिए उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950 में बदलाव कर नया कानून बनाया था, जिसमें बाद में भाजपा की बीसी खंडूरी सरकार ने हल्का संशोधन कर कानून को कुछ सख्त बना दिया था। लेकिन 2017 में भाजपा के सत्ता में आते ही उस कानून पर भूमि कारोबारियों की सहूलियत के लिए औद्योगीकरण के नाम पर निरंतर छेद किए जाते रहे. बाद में धामी सरकार पर मजबूत भू कानून का दबाव पड़ा तो नए कानून का मजमून बनाने के लिए पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में एक समिति बना दी गई जिसने अपनी सिफारिश समेत कानून का ड्राफ्ट भी 2023 में सरकार को सौंप दिया था. इस समिति की रिपोर्ट को तो सरकार ने कहीं दबा दिया, लेकिन बिना मांगे समान नागरिक संहिता के नाम पर नई समिति बना डाली।

राज्यवासी जब मजबूत भू कानून की मांग कर रहे थे, तब राज्य सरकार ने पहले ‘लैंड जिहाद और ‘मजार जिहाद ‘के नाम पर मुद्दे को भटकाया, और अब बिना मांगे समान नागरिक संहिता को जनता को थोप दिया है, जिसका एक प्रमुख प्रावधान, ‘निवासी’ की परिभाषा, सरकार के लिए मुश्किल का सबब बन गई है।

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