ज्वलंत मुद्दा : उत्तराखंड में पलायन पर क्यों चुप्पी साधे हुए हैं सियासी दल…
PEN POINT,DEHRADUN : देश में लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। इस आम चुनाव के शुरूआती चरण में ही उत्तराखंड की पांच लोक सभा सीटों पर भी 19 अप्रैल को वोटिंग होनी है। राज्य का 80 फ़ीसदी हिस्सा पहाड़ी है। इस वजह से ही इसे पहाड़ी राज्य कहा जाता है। पहाड़ के लोगों ने इस अलग राज्य के लिए बड़ी लम्बी लड़ाई लड़ी। कारण था अविभाजित उत्तरप्रदेश में इस क्षेत्र की समस्याओं का कोई हल ना होना।
ऐसे में पहाड़ों की आवाज लखनऊ तक नहीं पहुँच पाती थी। देश आजाद होने के कई दशकों तक भी इस पहाड़ी भू भाग का यही हाल रहा। चुनाव होते थे, विधायक, सांसद चुनकर दिल्ली, लखनऊ पहुंचते थे, उनमें से कोई मंत्री भी बनता था। लेकिन जिस तरह से राजधानी से पहाड़ो की दूरी थी, वह यहाँ के आम जनमानस क्या, खास और रुतबे वाले लोगों के लिए भी बड़ी कष्टकारी हुआ करती थी। ऐसे में लोगों के जहन में आजादी से पहले से ही अलग राज्य की मांग का बीज तो पहले से ही अंकुरित था। लेकिन देश की माली हालत इतनी नहीं थी कि शुरूआती दौर में ही यह राज्य अस्तित्व में आ जाता। लेकिन बावजूद इसेक कई दशकों में देश में कई राज्य अस्तित्व में आए, लेकिन इस पहाड़ी इलाके की किसी ने सुध नहीं ली। इसके बाद नब्बे के दसक में आरक्षण के विरोध में उपजा आंदोलन राज्य आंदोलन में तब्दील हो गया। जिसमें दर्जनों लोगों ने अपनी जाने गंवाई। 9 नवम्बर 2000 को राज्य बना। लोगों को उम्मीद जगी कि अब अपने पहाड़ रोजगार से गुलजार होंगे। राजधानी पहाड़ में बनेगी। लोगों को पलायन नहीं करना पडेगा। पहाड़ खुशहाली से भर जाएंगे। लेकिन हुआ ठीक इसके उलट। लोगों को राज्य बनने के इतने साल बाद आज 2024 में भी बच्चों को पढ़ाने और मामूली इलाज के लिए भी पहाड़ छोड़कर शहरों का रुख करना पड़ रहा है।
पहाड़ में गांव के गाँव खाली हो गए हैं। वहां रोजगार के मौके नहीं हैं। स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं। बुनियादी शिक्षा का स्तर भी आज के प्रतियोगी दौर के लिहाज से मयस्सर नहीं हो पा रहा है। ऐसे में विकास के लिए खर्च होने वाली सरकारी राशि का बड़ा हिस्सा भी पहाड़ों के बजाय उत्तराखंड के मैदानी जिलों में खर्च हो रहा है। सरकार विकास के दावे के ढोल पीटती रहती है। लेकिन असल तस्वीर पलायन की बढ़ती दर से साफ़ हो जाती है।
इन दिनों प्रदेश में लोकसभा चुनाव का प्रचार जोरों पर चल रहा है। बीजेपी कांग्रेस बड़े बड़े दावे करने में लगी हुई है। वहीं टिहरी सीट पर तो एक निर्दलीय उम्मीदवार ने भी जीत का ख़म ठोका हुआ है। उनकी लड़ाई भी इन बुनियादी सवालों के इर्द गिर्द ही घूम रही है। लेकिन उसी तुलना में उत्तराखंड में बारी-बारी सत्ता में काबिज रही बीजेपी और कांग्रेस इस मुद्दे को इतने जोर शोर से नहीं उठा रही हैं। यानि अब भी इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने को लेकर इन राष्ट्रीय पार्टियों के पास कोई रोड मैप नहीं है।
जानकार उत्तराखंड में पलायन के दो प्रमुख कारण मानते हैं। पहला रोजगार के कम अवसर होना। दूसरा कृषि के परम्परागत तरीका में बदलाव न लाना। जहां तक रोजगार का मामला है, अभी तक उत्तराखंड में रोजगार को सरकारी नौकरी से ही जोड़ा जाता रहा है। जिसमें किस तरह से गड़बड़ियाँ और सरकारी लेट लतीफी होती रही है, उसने भी सरकार की इमेज को बेहद नकारात्मक बना दिया है। सरकारी नौकरियों के अवसर आबादी के अनुपात में कम ही नजर आता है। ऐसे में सरकारी क्षेत्र में रोजगार के मौके कम तो होंगे ही।
पंकज चौहान कहते हैं कि सरकारी क्षेत्र के इतर अगर देखें तो उत्तराखंड में खेती किसानी से जुड़े हुए सेक्टर में बड़े मौके हो सकते थे, लेकिन इस दिशा में गंभीरता से सरकारों ने काम नहीं किया। इसलिए पहाड़ो में रह कर ही पशुपालन को अगर मजबूत आय वाले कार्य क्षेत्र में बदला जाता, तो इस दिशा में बहुत आगे बढ़ा जा सकता था। इसके इतर वे मानते हैं कि पहाड़ी इलाको में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं तथा आजीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध न होने से पलायन यहाँ बड़े मुद्दे में शामिल है। हालाँकि सियासी दल इसे बहुत जोरशोर से नहीं उठा रही हैं।
रवि रावत कहते हैं कि पलायन से लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता देखा गया है। कौशलयुक्त, सामाजिक संपर्क और कम आय वाले लोगों का जीवन स्तर भी तेजी से सुधरता है। उन्हें शहरों में कुछ परेशानियाँ जरूरी उठानी पड़ती हैं। लेकिन लोग बच्चो को अच्छी पढाई और और परिवार को बीमारी के समय आसानी से अस्पताल तो मिल ही जाते हैं। यही वजह है कि लोग पहाड़ों से खुद को बचाने के लिए शहरों की तरफ चले आते हैं। सरकार अगर कुछ बुनियादी सुविधाएं लोगो को वही उपलब्ध करा दे तो कोई भी क्यों अपना घर गाँव छोड़ कर शहर की तरफ आएगा। वे कहते हैं कि निश्चित तौर पर यह एक बड़ा चुनावी मुद्दा होना चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार जसपाल नेगी लम्बे समय से पहाड़ी इलाकों में ही काम कर रहे हैं। वे उत्तराखंड में बढ़ते पलायन की वजह को बड़े शोधात्मक तरीके से सामने रख़ते हैं। नेगी कहते हैं कि उत्तराखंड में पलायन के पीछे के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों की गंभीर समीक्षा करने और स्थानीय स्तर पर आगे के विकास के लिए सुरक्षा और अवसर प्रदान करने की जरूरत है। सरकार ने जिस तरह के मानक पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों के विकास और बजट के लिए तय किये हैं, उन्हें स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। मैदान और पहाड़ की स्थानीय स्थितियों की समीक्षा की जानी चाहिए और उनमें सुधार किया जाना चाहिए। जब ये सुधार होंगे पहाड़ के लिए उचित आर्थिक पैमाना तय होगा तब पलायन जैसे गंभीर समस्या पर अंकुश लगेगा। इस गंभीर विषय को इस लोक सभा चुनाव में उठाया जाना चाहिए।
एक सरकारी सर्वे रिपोर्ट पर नजर डालें तो उत्तराखंड के 50% लोगों ने पलायन की सबसे बड़ी वजह आजीविका/रोजगार की कमी को माना है। महज 8.83% ने स्वास्थ्य सुविधा, 15.21% ने शिक्षा को वजह माना है। लेकिन इसकी जमीनी हकीकत इसके इतर है और भयावाह है। जो लगातार बढती जा रही है। उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में ही उद्योग धंधे हैं जिससे स्थानीय स्तर पर पलायन पहाड़ी क्षेत्रों से मैदानी क्षेत्रों की तरफ हो रहा है। उत्तराखंड में सीज़नल पर्यटन होता है वह भी तीर्थस्थलों में इसलिए यह भी स्थाई रोजगार नही है।
युवा और पंचायत प्रतिनिधि हरीश जोशी का मानना है कि उत्तराखंड में पलायन निश्चित रूप से रुक सकता है, बशर्ते सरकार साफ नीयत से काम करे और इस दिशा में काम ईमानदारी से हो। सरकार गावों में कॉलेज खोले वहां शिक्षकों की बरती करे। ऐसे ही पहाड़ में इंजीनियरिंग कॉलेज और ने तकनीकी संस्थान खोले जाएं। इन संस्थाओं में स्थनीय बच्चों को प्राथमिकता में दाखिला मिले जो पर्वतीय क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों से पढ़े हों। इससे बच्चों और उनके माता पिता गाँव में ही रहकर उन्हें पढाना पसंद करेंगे। रोजगार के लिए सहकारी कृषि को बढ़ावा दिया जाए और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग लगाएं जाएं। सरकार पर्यटन सुविधायों का विकास करें नए पर्यटन स्थलों का विकास किया जाए। साथ ही ग्रामीण विकास , होर्टिकल्चर के कर्मचारियों को गाँव की पोस्टिंग दी जाए। साथ ही पहाड़ी क्षेत्रों में मजबूत स्वास्थ्य सेवाएं भी उपलब्ध हों। अगर ये सब होता है तो लोग रिटायरमेंट के बाद गांवों मे रहना पसंद करेंगे। इसकेअलावा किसानों को गाँव में खेती करने पर उत्तराखंड सरकार कुछ मान देय दे। क्योंकि पहाड़ पर खेती बहुत कठिन और जोखिम भरा काम है। इन उपायों से पहाड़ के गाँव फिर से आबाद और खुश हाल बन स्काट हैं।
ये थी आज की हमारी पलायन पर कुछ जागरूक लोगों से इस चुनाव पर हुई बातचीत पर आधारित रिपोर्ट।