ज्वलंत मुद्दा: निजी स्कूलों की मनमानी पर सियासी दल क्यों चुप्पी साधे हुए हैं?
Pen Point, Dehradun : एक ओर राजनीतिक दल इन दिनों लोकसभा चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। वहीं दूसरी ओर स्कूलों कॉलेजों में बच्चों में दाखिले और महंगी किताबों और फीस को लेकर अभिभावक खासे परेशान नजर आ रहे हैं। गौर करने वाली बात है कि बीते कुछ सालों में शिक्षा महंगी हुई है और गरीब तथा मध्यमवर्ग के पहुंच से बाहर हो रही है। साफ नजर आ रहा है कि शिक्षा तेजी से मुनाफा वसूली का धंधा बनती जा रही है। जन सामान्य भी मानने लगा है कि इसमें न सिर्फ व्यवसायिकता आई है, बल्कि यह धीरे धीरे शिक्षा माफिया के हाथ की कठपुतली बनती जा रही है। ऐसे में लोग इस महँगी होती शिक्षा को लेकर परेशान तो हैं। जिसके कारण अभिभावकों ने निजी स्कूलों की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिए संगठित होने की भी कोशिशें की लेकिन इसका ज्यादा असर धरातल पर नजर नहीं आया। एक और बड़ा सवाल है कि जिस शिक्षा के नाम पर लोग पहाड़ से पलायन कर शहरों की तरफ आए थे, वह भी अब क्या उनकी पहुँच से बाहर होती जा रही है। ऐसे में उनके पास आखिर बचता क्या है ?
मुश्किल यह है कि पिछले कुछ दशकों में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा, इंजीनियरिंग-मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल कोर्सेज की फ़ीस और दूसरे खर्चों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है जिसके कारण शिक्षा आम ग़रीब और वर्किंग क्लास परिवारों की पहुंच से बाहर होती जा रही है। इन दिनों देश में चुनाव का शोर सुनाई दे रहा है। लेकिन अभिभावकों का एक तबका ऐसा भी है, जो महंगे स्कूलों से बच्चों का दाखिला अन्यत्र स्कूल में करवा रहे हैं। यानी सस्ते स्कूलों की तलाश कर रहे हैं।
देहरादून की रहने वाली ममता के पति एक जनरल स्टोर चलाते हैं। दोनों इन दिनों बच्चों के दाखिले और महंगी कॉपी किताओं और फीस से परेशान हैं। ऐसे में यह दंपति अपने बेटे को अगली क्लास के लिए उसके स्कूल से निकालने जा रहे हैं। जब उनसे पूछा गया कि देश में चुनाव हो रहा है और आपके क्षेत्र में सभी दलों के प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। महँगी होती शिक्षा के लिए वो किसे जिम्मेदार मानती हैं ? उनका जवाब था कि जिन लोगों को हम वोट डाल रहे हैं, उन्हें हम जैसे सामान्य लोगों की चिंताओं से कोई लेना देना नहीं है। आज कुछ भी ऐसा नहीं है जो सस्ता हो। ऐसे में घर के कई तरह के बजट में कमी लानी पड़ती है। खास कर बच्चों की पढाई-लिखाई को सबसे ज्यादा प्राथमिकता के तौर पर रखना पड़ता है। लेकिन अब हालत यह हैं कि ये बोझ उस तरह से नहीं उठा पा रहे हैं, लिहाजा बच्चे का स्कूल बदलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
ऐसे में बच्चे के मन पर भी बुरा असर पड़ता है, उसके दोस्त, सहपाठी छूट जाते हैं, जो पहली कक्षा से उसके साथ पढ़ रहे थे। मायूसी हो कर लम्बी गहरी सांस लेकर वो कहती हैं कि क्या कर सकते हैं, मन मार कर ऐसा फैसला करना पड़ रहा है। वह कहती हैं निश्चित तौर पर एक वोटर के रूप में वे इस बार अपना वोट बदलने का मन बनाने जा रही हैं।
वहीं दूसरी कक्षा में अपने बेटे का अभी-अभी दाखिला करवाने वाले संतोष कहते हैं कि पढ़ाई के बेसिक स्तर पर बच्चे कि एक कॉपी की कीमत 100 रुपये है , ऐसे में आप बाकी किताबों, फीस और बाकी चीजों का आंकलन कर सकते हैं। वो कहते हैं कि एलकेजी यूकेजी और प्ले ग्रुप तक के स्कूल इतनी महँगी फीस ले रहे हैं कि के कई बार बच्चों की आगे की पढाई के लिए सोचने से ही डर लगने लगता है। उनका कहना है कि इस पर कोई आवाज उठाने वाला नहीं है। चुनाव हैं लेकिन महंगी शिक्षा नेताओं के लिए कोई मुद्दा नहीं है। आम आदमी बच्चों की पढाई लिखाई को लेकर कितना परेशान है, इससे इन नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता।
निजी स्कूलों की मोनोपॉली में फंसी पढाई-लिखाइ
महंगी किताबें, ड्रेस और बेतहाशा महँगी फीस वसूलना निजी स्कूलों की आदत बन गई है। निजी स्कूल की कॉपी-किताबें निश्चित एक दुकान पर मिलने का टेंड चल रहा है। बाजार में बुकसेलर की मोनोपली बनी हुई है और अभिभावक के पास पुस्तकें और वर्दी लेने के लिए एक दुकान के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं है। दूसरी ओर सरकारी स्कूलों की बदहाली भी बड़े पैमाने पर इसके लिये जिम्मेदार है।
खुद सरकार के एक आंकड़े पर नजर डालें तो तस्वीर कुछ इस तरह से नजर आती है। माध्यमिक से आगे की पढ़ाई-लिखाई आम गरीब, वर्किंग क्लास और निम्न-मध्यमवर्गीय परिवारों की पहुंच से बाहर होती जा रही है। उच्च शिक्षा पहले से ही पहुंच के बाहर हो चुकी है। यहां तक कि प्राथमिक शिक्षा का खर्च उठा पाना भी अधिकांश गरीब और वर्किंग क्लास परिवारों को भारी पड़ रहा है।
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि लोगो के सर्वांगीण विकास की चाबी शिक्षा भी लगातार महंगी होती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक हर वर्ष शिक्षा करीब 10 से 12 फीसदी की दर से महंगी होती जा रही है। शिक्षण संस्थान प्रत्येक वर्ष फीस बढ़ाते जा रहे हैं। घर के बाकी खर्चों पर महंगाई के बोझ के मुकाबले शिक्षा के क्षेत्र में महंगाई, दोगुनी गति से बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, आईआईएम बैंगलुरू के दो वर्ष के एमबीए कोर्स के लिये एक दशक पहले 13 लाख खर्च करने पड़ते थे। लेकिन उसी कोर्स के अब 23 लाख रुपये से ज्यादा खर्च करने पड़ते हैं। प्राइमरी, उच्च प्राइमरी, माध्यमिक, स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा के खर्चों में गुणात्मक बढ़ोत्तरी है तो इंजीनियरिंग, मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल कोर्सेज की पढ़ाई खर्च आम मध्यमवर्गीय परिवारों की हैसियत से बाहर चला गया है।