पुण्यतिथि : वह ‘आजाद’ आजाद होकर ही मां भारती के चरणों में समर्पित हो गया
चंद्रशेखर आजाद की आज 92वीं पुण्यतिथि, आज के ही दिन अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे
PEN POINT, DEHRADUN : आज से करीब 92 साल पहले, देश की आजादी के लिए सशस्त्र क्रांति का रास्ता चुन चुका 24 साल एक युवक अंग्रेजों से भिड़ गया था। एक तरफ अंग्रेजी सेना गोलियों की बरसात कर रही थी दूसरी तरफ यह 24 साल का युवा जिसका नाम उसने खुद ही चंद्रशेखर आजाद दिया था वह अंग्रेजों से लोहा लिए हुए था। अंग्रेजी सेना की फौज उस अकेले युवक पर भारी पड़ने लगी तो जैसे उसने प्रण लिया था कि वह जीते जी अंग्रेजी सेना के हाथ में नहीं आएगा, अपने इस वचन पर अटल रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने अपने बंदूक की आखिरी गोली से खुद को मां भारती के चरणों में हमेशा के लिए समर्पित कर दिया।
जब तक अंग्रेज उस तक इस उत्साह से पहुंचे थे कि दूसरी तरफ से गोलीबारी बंद हो गई शायद वह सरेंडर करने को तैयार हो, लेकिन जब उन्होंने चंद्रशेखर की मुस्कुराती देह देखी जो ठंडी पड़ चुकी थी तो इस बहादुर युवक की शहादत पर अंग्रेज भी भावुक हो उठे।
27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद में अंग्रेजी फौज से अकेले ही भिड़े आजाद ने अपनी कसम को पूरा करने के लिए उस वक्त खुद पर गोली चलाई जब उनके पिस्टल से सिर्फ एक गोली बची थी। 15 अंग्रेज सिपाहियों को निशाना बनाने के बाद जब आजाद की पिस्टल में आखरी गोली बची थी तब उस गोली को खुद को मार कर देश के प्रति अपना सर्वोच्च बलिदान कर गए थे।
भगत सिंह गिरफ्तार कर लिए गए थे और उन्हें फांसी देने की तैयारी चल रही थी। महान क्रांतिकारी भगत सिंह को जेल से मुक्त करवाने के लिए अल्फ्रेड पार्क में एक विचार मंथन चल रहा था। चंद्रशेखर आजाद जेल तोड़कर भगत सिंह को छुड़ाने की योजना बना चुके थे, लेकिन भगत सिंह जेल से इस तरह बाहर निकलने को तैयार नहीं थे। आजाद अपने साथी सुखदेव आदि के साथ आनंद भवन के नजदीक अल्फ्रेड पार्क में बैठे थे। वहां वह आगामी योजनाओं के विषय पर विचार-विमर्श कर ही रहे थे कि आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की सूचना अंग्रेजों को दे दी गई। मुखबिरी मिलते ही अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को घेर लिया। अंग्रेजों की कई टुकड़ियां पार्क के अंदर घुस आई जबकि पूरे पार्क को बाहर से भी घेर लिया गया। उस समय किसी का भी पार्क से बचकर निकल पाना मुश्किल था, लेकिन आजाद यूं ही आजाद नहीं बन गए थे । अपनी पिस्टल के दम पर उन्होंने पहले अपने साथियों को पेड़ों की आड़ से बाहर निकाला और खुद अंग्रेजों से अकेले ही भिड़ गए । हाथ में मौजूद पिस्टल और उसमें रही 8 गोलियां खत्म हो गई। आजाद ने अपने पास रखी 8 गोलियों की दूसरी मैगजीन फिर से पिस्टल में लोड कर ली और रुक रुक कर अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब देते रहे।
उनके पास कुल जमा सोलह गोलियां थी और बाहर 15 अंग्रेज सिपाही सीधे तौर पर उन्हें घेर चुके थे जबकि उससे कई गुना ज्यादा सिपाही पार्क के बाहर तैनात थे। अचूक निशानेबाज आजाद ने कोई फायर खाली नहीं जाने दिया। एक अकेले क्रांतिकारी के सामने सैकड़ों अंग्रेज सिपाहियों की टोली बौनी साबित हो रही थी। चंदशेखर आजाद ने 15 वर्दीधारियों को अपना निशाना बना लिया था, अब उनके पास केवल आखिरी गोली बची थी और अंग्रेजी सेना की टुकड़ी सामने थी। अंग्रेजी सेना को सख्त निर्देश थे कि इस बहादुर क्रांतिकारी को जिंदा गिरफ्तार किया जाए क्योंकि इसे सख्त सजा देकर अंग्रेजी हुकूमत बाकी क्रांतिकारियों को एक कड़ा संदेश देना चाहती थी। आजाद की पिस्तौल में आखिरी गोली थी और वह जैसे ही पहले वचन दे चुके थे कि वह जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे। लिहाजा, आखिरी बची गोली से उन्होंने खुद को मां भारती के चरणों में हमेशा के लिए समर्पित कर दिया।
गोलियों की तड़तड़ाहट तो शांत हो चुकी थी लेकिन अंग्रेजी सेना हिम्मत नहीं कर पा रही थी कि उस 24 वर्षीय युवा के पास जाकर देखें कि वहां इतना सन्नाटा क्यों हैं। खैर, उच्च अधिकारियों के निर्देश पर सेना के कुछ जवान डरते सहम कर रेंगते उस पेड़ के पास पहुंचते जहां कनपटी से रक्त धारा बहती हुई चंद्रशेखर की देह शांत पड़ी हुई थी। उस महान देह को छूने की हिम्मत भी अंग्रेजी सैनिक कर नहीं पा रहे थे। आखिरकार जब आजाद की देह की ठंडी होने की तस्दीक की गई थी तो अंग्रेजी हुकूमत ने राहत की सांस ली। मां भारती का सपूत खुद को मां भारती के लिए कुर्बान कर चुका था।
चंद्रशेखर जिसने जाति से परे जाकर चुना अपना नाम
चंद्रशेखर आज़ाद का पूरा नाम चंद्रशेखर तिवारी था, इनका नाम 23 जुलाई, 1906 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गांव में हुआ था लेकिन इनका पूरा बचपन एमपी में बीता। 1922 में चंद्रशेखर की मुलाकात राम प्रसाद बिस्मिल से हुई और चंद्रशेखर देश की आजादी के जंग में कूद गये । चंद्रशेखर आजाद ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन क्रांतिकारी दल का पुनर्गठन किया और भगवतीचरण वोहरा, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि के साथ अंग्रेजी हुकूमत में दहशत फैला दी। 17 जनवरी 1931 को आजाद पर इनाम की घोषणा कर दी गयी। 27 फरवरी 1931 को वह इलाहाबाद में अंग्रेजों के साथ मुठभेड़ के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए थे।