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दुनिया के देश युद्ध में थे, टिहरी में सुमन की शहादत ने अहिंसा की अलख जगाए रखी

-टिहरी जनक्रांति के नायक और स्‍वाधीनता संग्राम सेनानी श्रीदेव सुमन की पुण्‍यतिथि आज, 25 जुलाई 1944 को टिहरी जेल में ली थी अंतिम सांस

Pen Point, Dehradun : जब पूरी दुनिया दूसरे विश्‍वयुद्ध की विभीषिका झेल रही थी, तब टिहरी में क्रूर राजशाही के खिलाफ अहिंसक आंदोलन चल रहा था। जब दुनिया के देश एक दूसरे के खून के प्‍यासे हो रहे थे, श्रीदेव सुमन ने समाज की बेहतरी के लिये खुद को कुर्बान कर दिया। 25 जुलाई 1944 को 84 दिनों के आमरण अनशन के बाद सुमन ने आखिरी सांस ली। टिहरी जेल में खामोशी से दम मौत को गले लगाने वाले सुमन इतिहास में अमर हो गए।

टिहरी जिले की बमुण्‍ड इलाके के जौल गांव में 25 मई 1916 में हरिराम बडोनी और ताराा देवी के घर जन्‍मे थे सुमन। हरिराम बडोनी जाने माने वैद्य थे। 1919 में जब उनके इलाके में हैजे का प्रकोप हुआ तो उन्‍होंने पूरी शिद्दत से रोगियों की सेवा की। खुद की परवाह किये बिना वे उपचार में लगे रहे, जिसके चलते खुद भी 36 साल की उम्र में हैजे के शिकार हो गए। फिर उनकी मां ने कठोर तप करते हुए बच्‍चों का ठीक से पालन पोषण के साथ श्रीदेव सुमन की पढ़ाई लिखाई का इंतजाम किया।

सुमन की शुरुआती पढ़ाई गांव और चंबाखाल में हुई। 1931 में टिहरी से मिडिल परीक्षा पास की। इसके साथ ही उन पर महात्‍मा गांधी के विचारों का प्रभाव शुरू हो गया था। एक बार 1930 में वे देहरादून गए थे तो वहां सत्‍याग्रहियों को देख उनके साथ शामिल हो गए। तब उन्‍हें करीब दो हफते की जेल भी हुई। सन 1931 में ये देहरादून कि नेशनल हिन्दू स्कूल में अध्यापकी करने लगे और उसके बाद दिल्ली पहुंच गए। पंजाब विश्वविद्यालय से इन्होंने ’रत्न’,’भूषण’ और ’प्रभाकर’ परीक्षायें उत्तीर्ण की फिर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ’विशारद’ और ’साहित्य रत्न’ की परीक्षायें भी उत्तीर्ण कीं। उसके बाद वे पूरी तरह स्‍वाधीनता आंदोलन में शामिल हो गए। देश के कई स्‍वाधीनता संग्राम सेनानियों से उनका संपर्क हुआ और पहाड़ के लिए रचनात्‍मक आंदोलनों की नींव तैयार करने लगे।

1942 के अगस्‍त में महात्‍मा गांधी की अगुआई में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ। इसी आंदोलन की अलख जगाते श्रीदेव सुमन टिहरी की ओर आ रहे थे। जहां टिहरी राज्‍य के सैनिकों उन्‍हें हिरासत में ले लिया। दस दिनों तक मुनि की रेती जेल में रहे और उसके बाद देहरादून जेल भेज दिये गए। उसके बाद उनका अगला ठिकाना आगरा सेंट्रल जेल थी। जहां उन्‍हें पंद्रह दिन तक नजरबंद रखा गया। इस दौरान टिहरी रियासत में जनता राजशाही के खिलाफ लामबंद होती जा रही थी।

तीन महीने बाद श्रीदेव सुमन आगरा जेल से रिहा होकर टिहरी की जनता के अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगे। उन्‍होंने इन शब्‍दों के साथ आंदोलन की अलख जगाए रखी- “मैं अपने शरीर के कण-कण को नष्ट हो जाने दूंगा लेकिन टिहरी के नागरिक अधिकारों को कुचलने नहीं दूंगा.”

एक बार फिर श्रीदेव सुमन ने टिहरी का रूख किया। जहां 27 दिसम्बर 1943   को चम्बाखाल में पुलिस ने उन्‍हें गिरफ्तार कर लिया। टिहरी जेल में बंद कर उन्‍हें यातनाएं देनी शुरू कर दी। वहां उन्‍हें मिट़टी और रेत मिली रोटियां दी जाती। खाने और जेल अधिकारियों के दुर्व्‍यवहार के से तंग आकर उन्होंने अनशन शुरू कर दिया। 84 दिन तक उन्‍होंने कुछ भी नहीं खाया। जबकि इस दौरान उन्‍हें खाना खिलाले की तमाम कोशिशें की गई। जेल प्रशासन ने उनकी जान बख्श देने तक का लालच दिया। लेकिन सुमन अपनी बात पर अडिग रहे। उनकी सेहत गिरती गई। 25 जुलाई 1944 को 29 साल की आयु में उन्‍होंने जेल में ही आखिरी सांस ली। उनकी मौत से जेल अधिकारी सांसत में पड़ गए, उन्‍होंने सुमन के शव को बोरे में सिल दिया और इस बात को गोपनीय रखने की कोशिश की। लेकिन लोगों को सुमन की मौत की खबर लग गई और टिहरी रियासत में क्रांति की चिंगारी भड़क उठी।

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