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उत्तराखंड की हरियाली पर संकट, जमीन को बंजर बना रहे हैं ये विलायती पौधे

Pen Point, Dehradun : उत्तराखंड की हरियाली में हर किसी को सुकून महसूस होता है। लेकिन इस हरियाली पर बड़ा संकट मंडरा रहा है। लैंटाना, गाजर घास और काला बांस नाम के तीन पौधों से पहाड़ों की जमीन बंजर हो रही है। बाहर से आए ये तीन पौधे इतनी तेजी से फैलते हैं कि इन्हें रोकना असंभव है। इनके आस पास कोई दूसरा पौधा नहीं पनप सकता, लिहाजा स्थानीय परिवेश पेड़ पौधे तेजी से लुप्त होते जा रहे है। जिससे प्राकृतिक जल स्रोत नष्ट हो चुके हैं और खेती का उपजाउपन खत्म हो गया है। वहीं ये तीनों झाड़ीनुमा पौधों की बहुतायत से मानव वन्य जीव संघर्ष भी बढ़ा है। राज्य के सियासी मुद्दों में ऐसी समस्याओं के लिये जगह नजर नहीं आती। लिहाजा ना तो सरकारी तंत्र का और ना ही राजनीतिक लोगों को इसमें दिलचस्पी रह जाती है। जबकि इन जहरीले पौधों से लोगों के साथ ही हमारा पारिस्थितिकी तंत्र बड़े पैमाने पर प्रभावित हो रहा है।

लैंटाना– राज्य में तराई से लेकर पहाड़ों पर 1200 मीटर की उंचाई तक लैंटाना फैल चुका है। करीब डेढ़ सौ साल पहले योरोप से सजावटी पौधे के रूप में लैंटाना भारत पहुंचा। यह एक ऐसी झाड़ी प्रजाति है, जो अपने आस पास दूसरी वनस्पतियों को नहीं पनपने देती। साल भर खिलने के गुण के चलते यह लगातार फैल रहा है। कार्बेट टाइगर रिजर्व व राजाजी टाइगर रिजर्व समेत आबाद इलाकों में भी इस वनस्पति ने बड़ी दुश्वारियां खड़ी की हैं। कुछ साल पहले देहरादून जिले के कालसी में
वृक्षारोपण की मियावाकी विधि अपनाई गई। लैंटाना से निजात दिलाने वाली इस विधि का नाम जापानी वनस्पतिशास्त्री अकीरा मियावाकी के नाम पर रखा गया है। मूलरूप से यह एक वृक्षारोपण विधि है जिसमें भूमि के एक छोटे से टुकड़े को स्थानीय पौधों के तेजी से विकास के लिए उपयुक्त बनाया जाता है। ज्यादातर मिट्टी की ऊपरी परत को छिद्रपूर्ण बनाकर उपचारित किया जाता है और पोषक तत्वों से भरपूर। इस विधि के तहत पहले वर्ष में देशी पौधे रोपे गए और फिर मिट्टी की ऊपरी परत का पुनरुद्धार किया गया।

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लैंटाना

गाजर घास– यह घास भारत में 1955 में आई। बताया जाता है कि मैक्सिको से आयातित गेहूं के साथ इसका बीज यहां आया, और फिर तेजी से देश के हर हिस्से में फैलती चली गई। इससे अस्थमा, चर्मरोग व कई प्रकार की एलर्जी होती है। अब देश में लगभग पांच लाख हेक्टेयर में गाजर घास फैली हुई है। विशेषज्ञों के मुताबिक इससे फसल का उत्पादन 30-40 प्रतिशत घट जाता है। उत्तराखंड में मैदानी से लेकर पहाड़ी इलाकों तक यह जिद्दी खरपतवार तेजी से फैल चुकी है। इसे चटक चांदनी, गंधी बूटी, पंथारी आदि के नाम से भी जाना जाता है। गाजर घास के एक पौधे से हजारों बीज पैदा होते हैं, जो इसके फैलने का प्रमुख कारण हैं। उपयोग की बात करें तो बर्मी कंपोस्ट बनाने में इसे कुछ जगहों पर इस्तेमाल किया जा रहा है।

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गाजर घास

कालाबांस– उत्तराखंड में 1200 मीटर से अधिक उंचाई पर ये पौधा तेजी से पनप रहा है। इसके फैलने से भी स्थानीय पेड़ पौधे गायब होते जा रहे हैं। नम जगहों पर खेतों और जंगलों की वानस्पतिकी को यह बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड के खेतों और जंगलों में लगभग चालीस फीसदी हिस्से में कालाबांस फैल चुका है। यह पौधा भी मैक्सिको से आयातित है और इसे मैक्सिकन डेविल भी कहा जाता है। बरसात के मौसम में नमी मिलने के कारण यह और तेजी से फैलता है। इसकी भयावहता को देखते हुएं, स्टेट वाइल्ड लाइफ बोर्ड की ओर से वन विभाग को दो साल पहले इसकी रोकथाम के निर्देश दिये गए थे। उपयोगिता की बात करें तो इस पौधे में कुछ औषधीय गुण जरूर हैं, लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक स्थानीय वनस्पति के लिये खतरा होने की तुलना में इसकी उपयोगिता बहुत ज्यादा नहीं है।

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कालाबांस

 

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