गरतांगली पुल : रहस्य खुला, विल्सन ने किया है ये कारनामा
Pen Point, Dehradun : कुछ साल पहले सुर्खियों में आए गरतांगली पुल या चट्टानी रास्ते को लेकर एक दावा और सामने आया है। जिसके मुताबिक उत्तरकाशी जिले में भारत तिब्बत सीमा के नजदीक 136 मीटर लंबी इस अनूठी राह को फ्रेडरिक विल्सन ने बनाया था। जिसे उसने तिब्बत में गुप्त आवागमन के लिए तैयार करवाया था। गौरतलब है कि उस वक्त अंग्रेजों के लिए तिब्बत के पहेली की तरह था, जिसे सुलझाने के लिए वे लगातार कई मोर्चों पर कोशिशें करते रहे। विल्सन के इस रास्ते का मकसद शिकार करने के साथ ही सूचनाएं एकत्र करना था।
न्यूज वेबसाइट फर्स्ट पोस्ट में वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसांई गरतांगली पुल के निर्माण का खुलासा करते हैं। खुलासा इसलिये, क्यों कि अब तक चट्टान पर छेद कर तैयार किया गया यह सीढ़ीनुमा पुल रहस्य ही बना हुआ था। इसके बारे में कहा जाता था कि इससे भारत तिब्बत व्यापार होता था, इसे बगोरी के किसी सेठ ने बनाया, या फिर पठानों ने इस पुल को बनाया था। लेकिन इसके निर्माण को लेकर कोई भी पुख्ता प्रमाण नहीं था।
फ्रेडरिक विल्सन से जुड़े विभिन्न दस्तावेजों के हवाले से राजू गुसांई लिखते हैं कि उस वक्त तिब्ब्त में विदेशियों के प्रवेश पर पाबंदी थी। लिहाजा विल्सन ने वहां घुसपैठ का ये गुप्त तरीका अपनाया। इसके लिए उसके पास सभी संसाधन जैसे पैसा, मैन पावर, लकड़ी की खेप के साथ ही टिहरी राजा का भरोसा था। विल्सन ने इस पुल का निर्माण किया था इसका संकेत वह 1860 में संपादित उसकी किताब और 1873 में लिखे एक लेख में दिये हैं। जिसमें उसने जगह का नाम छिपाते हुए इस प्रोजेक्ट बारे में लिखा है।
विल्सन ने यह बात साझा करते हुए जगह के बारे में जो भी बातें लिखी हैं वह पूरी तरह से गरतांगली की ओर इशारा करती हैं। मसलन, खड़ी चट्टान और उसकी दरारों में उगे पेड़, गहरी खाई में नीचे नदी के बहने का जिक्र किया गया है। गरतांगली में भी जिस चट्टान को काट कर यह रास्ता बना है उसमें भी दरारों में बेहद कम मिट्टी में पेड़ उगे हैं, जबकी करीब दो सौ मीटर सीधे नीचे जाड़ गंगा नदी बहती है।
1873 में जेंटलमैन्स मैगजीन में छपे अपने एक लेख ए स्टॉक इन तिब्बत में विल्सन ने इस प्रोजेक्ट पर और पुख्ता तौर पर इशारा किया है- तिब्बत की ओर एक छोटी सी कोशिश पूरी की है। गरतांग गली से होते हुए भैरोघाटी से नीलांग की दूरी लगभग 6 मील है। लगभग उतनी ही दूरी जितनी विल्सन ने अपने लेख में बताई है।
राजू गुसांई बताते हैं कि उन्होंने अपने लेख के लिए काफी विस्तार से शोध किया है। जिसमें कई बातें सामने आई हैं। मसलन विल्सन ने बुशहर से लाकर भारत तिब्बत सीमा पर जादुंग को आबाद किया था। साथ ही गरतांगली का रास्ता भारत तिब्बत व्यापार के लिए उपयोग में नहीं आता था। इसके लिए कारछा होते हुए अलग रूट था जिससे सीधे हर्षिल पहुंचा जाता था।
अपने लेख के अलावा पेन प्वाइंट से बातचीत में राजू गुसांई यह बात भी साझा करते हैं कि विल्सन को गरतांगली पुल की प्रेरणा कहां से मिली। वे कहते हैं कि गंगोत्री धाम के पुराने रास्ते पर जाड़ गंगा और भागीरथी के संगम पर उतरने के लिए पुराना रास्ता इसी तरह का था। जो आकार में छोटा था लेकिन चट्टान पर छेद कर उसमें लकडि़यो की सीढ़ीनुमा संरचना थी। जुटाई गई जानकारियों से पता चलता है कि विल्सन इसी से प्रभावित हुआ था।
कौन था विल्सन
सन् 1850 में अंग्रेज फौज छोड़कर फ्रेडरिक विल्सन हर्षिल पहुंचा था। उसने टिहरी के राजा सुदर्शन शाह से जंगल लीज पर ले लिये। हर्षिल के नजदीकी मुखबा गांव से शादी कर वह पूरी तरह वहीं बस गया। मिजाज से कारोबारी विल्सन ने लकड़ी का व्यापार किया और रेलवे लाइन के लिए देवदार की लकडि़यों के स्लीपर नदी के जरिए हरिद्वार तक पहुंचाए। वह कुशल शिकारी भी था और उसने सींगों के लिए हिमालयी हिरन भरल और रंग बिरंगे पंखों के लिए मोनाल समेत अन्य पक्षियों का जमकर शिकार किया। जिन्हें वह इंग्लैंड तक पहुंचाकर बेच देता था। उसने देहरादून और हर्षिल के बीच कई गेस्ट हाउस बनाए थे। इसके अलावा सड़क और पुलों का निर्माण करवाया था। भागीरथी नदी पर अधिकांश पुराने झूला पुल विल्सन ने ही बनवाए थे। हालांकि इसके पीछे उसका कारोबार को बढ़ाने की ही मंशा थी।