गोर्ख्याणी : जब गढ़वाल कुमाऊं में महिलाएं घर की छत पर नहीं जा सकती थीं
Pen Point, Dehradun : उत्तराखंड के इतिहास में गोरखा शासन सबसे क्रूर शासन माना जाता है। सन् 1804 से 1815 तक क्रूरता के इस दौर को गोर्खाणी कहा जाता है। जिसमें गढ़वाल और कुमाऊं दोनों ही इलाके निर्दयी गोरखा सरदारों और सैनिकों से त्रस्त थे। गोरखा अधिपति यानी राजा तो नेपाल में रहता था, उसकी ओर से नियुक्त सामंत सुब्बा कहलाता था। ये सुब्बा ही नए जीते गए इलाकों पर प्रशासनिक तौर पर काम करते थे। गोरखा प्रशासन पूरी तरह फौज के जरिए संचालित किया जाता था। ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि गोरखा शासन दमन और शोषण पर टिका हुआ था। प्रजा में से कर चुकाने में बेबस लोगों को हरिद्वार की मंडी में दास बनाकर बेच दिया था। हजारों स्त्री पुरूष और बच्चों को इसी तरह दास बनाया गया।
गोरखों के न्याय प्रणाली को लेकर कहा जाता है कि उसमें सजा ए मौत एक सामान्य बात हो गई थी। न्याय के पुराने तरीके छोड़ उन्होंने नए तरीके अपनाए। वहीं कर प्रणाली की बात करें तो गोरखों ने कुछ पुराने कर यथावत रखने के साथ ही नए कर भी जनता पर लगाए। जिनमें 13 ज्युूलिया यानी 260 नाली जमीन रखने वालें ब्राह्मणों पर पांच रूपया प्रति परिवार कर लगाया गया। गढ़वाल और कुमाउं में एक कर ऐसा था जो आज ही नहीं बल्कि तब भी तर्क और औचित्य से परे था। यह कर किसी भी महिला के छत पर चढ़ने पर दण्ड के रूप में लगाया जाता था। इस तरह गोरखा शासन में गढ़वाल और कुमाउं में महिलाओं का अपने ही घर की छत पर चढ़ना प्रतिबंधित था।
गोरखा शासन के कुछ और कर इस तरह थे-
पुंगाड़ी- यह जमीन का कर था। इससे करीब डेढ़ लाख रूपया सालाना की आय होती थी। सैनिकों का वेतन इसी कर से दिया जाता था।
सलामी- यह एक प्रकार का नजराना था।
टीका भेंट- शुभ अवसरों व शादी ब्याह के मौके पर इसे लिया जाता था
तिमारी- इसीके साथ फौजदार को चार आना व सूबेदार को दो आना देने पड़ते थे
पगरी- जमीन व जायदादा के हस्तांतरण में जमीन हासिल करने वाले व्यक्ति को एकमुश्त देना पड़ता था।
मांगा- यह प्रत्येक नौजवान से एक रूपया कर के रूप में लिया जाता था। युद्ध के समय भी तात्कालिक कर के रूप में इसे वसूला जाता था।
सुवांगी दस्तूर- यह प्रत्येक बीसी भूमि पर एक रूपया लिया जाता था।
मेजबानी दस्तूर- यह ढाई आना होता था।
सोन्या फागुर- उत्सवों के मौकों पर भैसे व बकरे के रूप में यह कर लिया जाता था। गोरखा लोग सावन, दशहरा व फागुन के उत्सवों में भैंसों की बलि देते थे और उनका मांस बड़े चाव से खाते थे।
टान कर- इसे तान या कपड़ा कर भी कहा जाता था, जिसे भोटिया व हिंदू बुनकरों से लिया जाता था।
मिझारी- शिल्पकर्मियों तथा जागरिया ब्राह्मणों से इसे लिया जाता था।
मरो- पुत्रहीन व्यक्ति से लिया जाता था।
रहता- गांव छोड़कर भागे हुए लोगों पर यह कर लगाया जाता था।
बहता- छिपाई गई संपत्ति पर यह कर लगता था।
घी कर- दुधारू पशुओं के मालिकों से लिया जाता था।
मौंकर- यह प्रति परिवार दो रूपया कर था, इसे चंदों ने भी लगाया था, इसे घरही पिछही भी कहते थे।
अधनी दफ्तरी यह राजस्व का काम करने वाले कर्मचारियों के वेतन के लिये खस जमींदारों से लिया जाता था।
जान्या सुन्या- राजकर्मचारियों से लगान के बाबत पूछने पर यह कर लगता था।
इनके अलावा उपरी रकम, वक्ष्यात या बख्शीश, कल्याण धन, केरू, घररू, खुना अड़ि कर भी लिये जाते थे। कर ना चुका सकने वाले लोगों को मैदानी इलाकों की अलग अलग मंडियों में लेजाकर दस से लेकर तीस रूपए तक की कीमत में बेचा जाता था।
स्रोत- उत्तराखंड का समग्र राजनैतिक इतिहास, डॉ.अजय सिंह रावत। Photo From- Himalayan Discover.