जयंती विशेष : जब हेमवती बाबू ने इंदिरा सरकार के खाते में शर्मनाक किस्सा शामिल होने से बचा लिया
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रहे, केंद्रीय मंत्री रहे हेमवती नंदन बहुगुणा की आज 104 जयंती, आज के ही दिन पौड़ी के बुगाणी गांव में हुआ था जन्म
PEN POINT DEHRADUN : पौड़ी गढ़वाल के बुघाणी गांव में 25 अप्रैल 1919 को पैदा हुए हेमवती नंदन बहुगुणा स्वत्रंतता आंदोलन में सक्रिय रहे। असहयोग आंदोलन के दौरान जेल भी गये, देश की आजादी के बाद राजनीति में आए, केंद्रीय मंत्री के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। कांग्रेस से विवाद के चलते समय समय पर दल भी बदलते रहे लेकिन राजनीति में एक बड़ी छाप छोड़ी। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी का विरोध कर कांग्रेस छोड़ी। फिर कांग्रेस में वापसी भी की। आज उनकी जयंती पर उनके बारे में एक मशहूर किस्सा पाठकों से साझा करते हैं। जब हेमवती नंदन बहुगुणा की सूझबूझ से इंदिरा गांधी सरकार के हिस्से एक शर्मनाम किस्सा दर्ज होने से बच गया था। कांग्रेस में हितों के टकराव के चलते उन्होंने 1982 में कांग्रेस छोड़कर गढ़वाल संसदीय सीट से उपचुनाव में कांग्रेसी प्रत्याशी को मात देकर सदन पहुंचे। कांग्रेस से दूर हो चुके थे लेकिन उनकी एक बार उनकी समझ से कांग्रेस के इतिहास में एक शर्मनाक किस्सा दर्ज होने से बच गया।
साल 1983, भारत में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार सत्ता में थी। उसी साल भारत को राष्ट्रमंडल देशों के सम्मेलन की मेजबानी मिली थी। 1983 में राष्ट्रमंडल देशों के सम्मेलन से पहले ही इंग्लैंड से फरमान आया कि महारानी एलिजाबेथ भारत में तब कुष्ठरोगियों के कल्याण के लिए काम कर रही मदर टेरेसा को आर्डर आफ द मेरिट सम्मान देंगी। इस सम्मेलन के दौरान ही देश के राष्ट्रपति भवन में मदर टेरेसा को यह सम्मान दिया जाना था। इसके लिए इंग्लैंड की ओर से इसके आमत्रंण पत्र भेजे गये। बंकिघम पैलेस के स्टेशनरी पर प्रकाशित दावतनामे मेहमानों को भेजे जाने लगे। राष्ट्रमंडल देशों के सम्मलेन की मेजबानी में जुटी तत्कालीन सरकार भी इस मामले में लापरवाह रही। लेकिन, इसी दौरान सांसद हेमवती नंदन बहुगुणा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर कहा कि महारानी एलिजाबेथ को राष्ट्रपति भवन में अंलकरण का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि राष्ट्रपति भवन में आयोजित होने वाले किसी कार्यक्रम, किसी अलंकरण का अधिकार केवल देश के राष्ट्रपति को ही है। उन्होंने इस बात को संसद में उठाने को भी कहा। प्रोटोकाल में इस भारी चूक पर हेमवती नंदन बहुगुणा ने प्रधानमंत्री का ध्यान दिलवाया। अन्यथा यह किस्सा भी कांग्रेस के इतिहास में दर्ज हो जाता। उसे भविष्य में रह रह कर यह बात सताती कि कैसे आजादी के बाद भी अंग्रेज देश के राष्ट्रपति भवन को अपनी संपति मानकर राष्ट्रपति के अधिकारों को दरकिनार करके खुद ही आमंत्रण पत्र प्रकाशित कर राष्ट्रपति भवन में अलंकरण कार्यक्रम का आयोजन करवाते रहे।
राष्ट्रमंडल देशों के सम्मेलन का समन्वयन देख रहे विदेश सेवा के वरिष्ठ अधिकारी के नटवर सिंह को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति भवन में होने वाले इस समारोह को अन्य स्थल पर करवाने के लिए इंग्लैंड को राजी करने का जिम्मा सौंपा। के. नटवर सिंह ने ब्रिटिश हाईकमिश्नर राबर्ट वेड ग्रे से कहा कि मार्गरेट थैचर को वह बताए कि अलंकरण समारोह का स्थल बदला जाना आवश्यक है। के. नटवर सिंह ने कहा कि रानी के लिए हमारे मन में बहुत सम्मान है और मदर टेरेसा भी भारत की एक महत्वपूर्ण शख्सियत है लेकिन यह सब कुछ तय करने से पहले भारत सरकार की सलाह लेना बहुत जरूरी था क्योंकि इंग्लैंड को समझना होगा कि महारानी एलिजाबेथ अब भारत की रानी नहीं रही है।
इस पर मार्गरेट थैचर की ओर से जवाब आया कि अब स्थल बदलने का समय बीत चुका है और ऐसा करने से न सिर्फ क्वीन को परेशानी होगी, इंग्लैंड की मीडिया भी पूरी घटना की जानकारी मिलने पर इसकी रिपोर्टिंग पर असर पड़ेगा।
यहां इस अलंकरण समारोह के चलते उच्च शक्तियों का प्रोटोकॉल डायनामाइट फटने वाला था। यहां दो महिला प्रधानमंत्री, एक महिला महारानी, एक महिला संत से जुड़ा मामला था।
इंग्लैंड की ओर से मिले जवाब से इंदिरा गांधी भी नाराज थी, इंदिरा गांधी ने जवाब दिया कि हम अलंकरण समारोह के राष्ट्रपति भवन में आयोजित होने की अनुमति दे देते हैं लेकिन यह मामला सदन में उठेगा तो इस पर हंगामा होना भी तय है लिहाजायह महारानी के हित में भी नहीं होगा। क्योंकि, इसमे हमारी सरकार के साथ महारानी की भी तीखी आलोचना होगी। इस पर इंग्लैंड के तेवर नरम पड़ गये। लिहाजा, अलंकरण समारोह राष्ट्रपति भवन में तो नहीं हुआ। महारानी एजिलाबेथ ने मुगल गार्डन में मदर टेरेसा से चाय पर मुलाकात कर उन्हें अलंकरण पत्र यूं ही बिना किसी समारोह के सौंप दिया।
1982 में गढ़वाल संसदीय सीट के उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी को हराकर सदन पहुंचे हेमवती नंदन बहुगुणा की पारखी नजर और देश के लोकतंत्र की समझ ने इस किस्से को कांग्रेस के इतिहास में दर्ज होने से बचा लिया साथ ही अंग्रेजों के इस भ्रम को तोड़ने में भी मदद की जिसके हिसाब से आजादी के तीन दशक बाद भी अंग्रेज भारत के लोकतंत्र को अपनी बपौती ही समझ रहे हैं।