इतिहास: जब टिहरी में राजा ने रामलीला मंचन पर पाबंदी लगा दी थी
Pen Point, Dehradun : उत्तराखंड में रामलीला मंचन का इतिहास दो सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। पहाड़ में रामलीला के इस सफर नरे कई दौर देखे हैं। जिससे इस सांस्कृतिक धरोहर के साथ कई अनूठे और रोचक तथ्य भी जुड़ते चले गए। रामलीला के इतिहास में झांकने पर टिहरी की रामलीला से जुड़ा एक तथ्य सामने आता है। जिसके मुताबिक टिहरी राजा ने अपनी रियासत में रामलीला मंचन पर पाबंदी लगा दी थी। टिहरी नरेश को लंका विजय के बाद श्रीराम के राजतिलक का दृश्य नागवार गुजरा। हठी राजा को लगता था कि राजतिलक या राज्याभिषेक तो सिर्फ उनका अधिकार है, रियासत के भीतर किसी और का राज्याभिषेक कैसे हो सकता है ?
रामलीला विषय पर शोध कर चुके दून विश्वविद्यालय में रंगमंच विभाग के प्रवक्ता डा.अजीत पंवार इस बात को तफसील से बताते हैं। पंवार कहते हैं- मैं अपने शोध के सिलसिले में जब टिहरी शहर और उसके आस पास के गांवों में घूम रहा था, तब इस बात का पता चला, टिहरी में 1933 में रामलीला का मंचन बंद हो गया था, यह राजाज्ञा के कारण हुआ। दरअसल, लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद अयोध्या में श्रीराम के राज्याभिषेक का अंतिम दिन मंचन होता है, इस दिन को उत्सव की तरह मानाया जाता है और पूरे दिन धूम धाम से राजतिलक का दृश्य मंचित किया जाता है, लोगों की इसमें इतनी आस्था होती है कि वे इसे एकदम सत्य मानकर इस उत्सव को मनाते हैं, यही बात राजा को पसंद नहीं आई। 1933 में टिहरी में राजा नरेंद्र शाह का शासन था। उनकी राजाज्ञा जारी हो गई कि आज से कोई भी यहां रामलीला नहीं मनाएंगा। इस बात का उल्लेख प्रख्यात कहानीकार विद्यासागर नौटियाल ने वर्षों पहले अपने एक लेख में किया है।
पंवार के मुताबिक 1950 में जब टिहरी रियासत का भारत सरकार में विलय हो गया तब जाकर टिहरी में रामलीला की फिर से शुरूआत हुई। टिहरी में उस समय सक्रिय संगठन नवयुक मंगल दल के उत्साही युवाओं ने रामलीला का आयोजन किया था।
उत्तराखंड के विभिन्न इलाकों में रामलीला मंचन के बारे में सत्रहवीं शताब्दी में आए अंग्रेज यात्री मूरक्राफ्ट ने भी अपने लेखों में बताया है। टिहरी में रामलीला मंचन का भी उसके लेखों में उल्लेख मिलता है। हालांकि तब कुछ प्रमुख जगहों पर ही रामलीला का मंचन किया जाता था। उससे पहले रामकथा के आयोजन की परंपरा और पुरानी है। डॉ.पंवार के अनुसार सबसे पहले अल्मोड़ा में रामलीला मंचन शुरू हुआ, उसके बाद पौड़ी टिहरी और चमोली में आई। फिर इन जगहों पर बाहर से आए लोगों और स्थानीय लोगों ने रामलीला की परंपरा को आगे बढ़ाया।