जयंती : महान भारतीय खोज रमन इफेक्ट को आम जिंदगी में महसूस करें
Pen Point, Dehradun : आज भारत के महान वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकट रमण की जयंती है। जन्म 7 नवंबर, 1888 को तमिलनाडु के त्रिचिरापल्ली के एक बेहद सामान्य परिवार में हुआ। जिस समय यूरोपीय व अमेरिकी वैज्ञानिक लगातार नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हो रहे थे, ऐसे में भारतीय विज्ञानी सीवी रमण ने यह गौरव हासिल कर देश-दुनिया में भारत के माथे पर चार चांद लगा दिए। उन्होंने प्रकाश की किरणों का ठोस, तरल और गैसों पर पड़ने वाले प्रभाव का पता लगाया। उनकी इस खोज को रमन प्रभाव के नाम से जाना जाता है। यह खोज इतनी महान और थी कि इसके आधार पर कई उपयोगी मशीनें तैयार हुई। भले ही उस वक्त रमन प्रभाव का उपयोग सीमित रहा हो, लेकिन नैनो टैक्नोलॉजी, लेजर और उपकरणों के विकास ने रमन प्रभाव की जरूरत को बहुत ज्यादा बढ़ दिया है। हमारे आस पास की जिंदगी में रमन प्रभाव की कितनी उपयोगिता इन बातों से समझी जा सकती है-
- अगर आप किसी रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट या सुरक्षा के लिहाज से अहम जगह पर जाते हैं तो वहां सुरक्षाकर्मियों के हाथों में विस्फोटक डिटेक्टर या मेटल डिटेक्टर दिखता है। यह डिटेक्टर करीब बीस सेकेंड में विस्फोटक या अन्य हथियार का पता लगा लेता है। करीब तीन सौ ग्राम की ये मशीन रमन प्रभाव के सिद्धांत पर ही काम करती है।
- आप आजकल जिस हाई स्पीड इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं, उसकी सेवा देने वाली कंपनियां ऑप्टिकल फाइबर में सिग्लन मजबूत करने के लिये रमन प्रभाव की तकनीकी का ही इस्तेमाल कर रही हैं।
- मेडिकल साइंस में व्यापक तौर पर रमन प्रभाव का इस्तेमाल हो रहा है। शुरूआती चरण में कैंसर कोशिकाओं का पता इसी तकनीकी से लगाया जाता है। शरीर के विभिन्न हिस्सों में बीमारियों का पता लगाने वाली स्कैनिंग मशीनों की इजाद के मूल में भी रमन प्रभाव का सिद्धांत काम करता है। जिसे रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी कहा जाता है।
- भारत समेत कई देशों में खतरनाक रसायनों और ड्रग्स का पता लगाने के लिये रमन प्रभाव पर आधारित स्कैनर्स का उपयोग होता है। इस तरह फोरेंसिक साइंस के लिये रमन प्रभाव एक बहुत बड़ा वरदान माना जाता है।
- आज के दौर में भोजन में रसायनों की मिलावट का खतरा बढ़ गया है। इसका पता लगाने के लिये रमन तकनीकी का इस्तेमाल पूरी दुनिया में बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। जिससे भोजन में पेस्टीसाइड समेत अन्य रसायनों का पता चलता है। कई जगह पर इससे भोजन या फसलों में टॉक्सीन का पता भी लगाकर लोगों की जान बची है।
- समय के साथ रमन प्रभाव के सिद्धांत पर आधारित शोध भी लगातार बढ़ रहे हैं, डेटा एनालिसिस में इसकी सटीकता से सुरक्षा, संचार, चिकित्सा और कृषि क्षेत्र में आ रही नई तकनीकि और उपकरणों में बुनियादी सिद्धांत के रूप में काम कर रहा है।
कैसे हुई थी रमन प्रभाव की खोज?
सीवी रमण 1921 में ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड में विश्वविद्यालय कांग्रेस के लिये समुद्री मार्ग से यात्रा करन रहे थे। अब तक वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पा चुके थे। पानी पर यह उबाऊ यात्रा उनके चिंतन को नया आकाश देने वाली साबित हुई। समुद्र के नीले रंग व आकाश के नीले रंग को लेकर सोचने लगे कि इनका रंग नीला ही क्यों है? इससे पहले वैज्ञानिकों का यह मानना था कि सागर का नीला रंग इसलिये है क्योंकि वह आकाश का प्रतिबिम्ब है। सी. वी. रमण को इस मान्यता से असंतोष था, उन्हें लगता था उसका नीलापन आकाश के प्रतिबिम्ब की वजह से नहीं था। यह उनके शोध के लिये एक नया विषय बन गया था। ब्रिटेन से लौटने के बाद वे इसी विषय पर शोध में जुट गए।
अध्ययन में उन्हें पता चला कि जब प्रकाश किसी वस्तु पर पड़ता है, तो प्रकाश के स्पेक्ट्रम में कई तरह के बदलाव दिखाई देते हैं। जब समुद्र के पानी पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है, तो प्रकाश के नीले रंग के स्पेक्ट्रम में प्रसरण दिखाई देता है। यह उसके नीलेपन का प्रमुख कारण है। प्रकाश के प्रकीर्णन के समय नीले रंग को छोड़कर सभी रंग अवशोषित होकर ऊर्जा में परिवर्तित हो जाते हैं, लेकिन नीला रंग परावर्तित हो जाता है, जिस वजह से समुद्र का रंग नीला दिखाई देता है। उनकी इस खोज और उसके तार्किक उत्तर ने पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों में एक हलचल मचा दी। प्रकाशिकी के क्षेत्र में विस्तृत अध्ययन के लिये 1924 में रमण को लंदन के अति प्रतिष्ठित ‘रॉयल सोसाइटी’ का सदस्य बनाया गया। यह किसी भी भारतीय के लिये गौरव का विषय बना।
रमण का शोध यहीं नहीं रुका। उन्होंने प्रकाश के प्रसरण अर्थात् बिखराव पर अपना शोध जारी रखा। जब प्रकाश को एक छोटे से छेद से गुजारा गया उसके बाद उसे कई पदार्थों के मध्य गुजारा गया तो दूसरी ओर बिखरा हुआ स्पेक्ट्रम देखा गया। लेकिन इसके अतिरिक्त कुछ और रेखाएँ भी वहाँ देखने को मिली जिससे निष्कर्ष यह निकाला गया कि शायद यह पदार्थ की अशुद्धता के कारण उभर रही हैं। लेकिन जब उन पदार्थों के शुद्ध रूप से प्रकाश गुजारा गया तो भी अन्य रेखाएँ देखी गयीं। इससे पूर्व में कॉम्पटन प्रभाव के कारण ऐसी घटना एक्स किरणों के प्रयोग के साथ देखी गयीं थी जिस कारण 1927 में ए.एच. कॉम्पटन को नोबेल पुरस्कार भी मिला।