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जयंती विशेष: देशी और पहाड़ी का फर्क समझिये गणेश शंकर विद्यार्थी के इस लेख में

Pen Point, Dehradun : आज 26 अक्टूबर को महान पत्रकार, और क्रांतिकारी स्वाधीनता संग्राम सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी की जयंती है। उन्हें भारत में पत्रकारिता का पुरोधा कहा जाता है। ‘प्रताप’ जैसा विख्यात अखबार निकाल कर उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में जान फूंक दी थी। उनकी कलम से अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिल गई थी। उनकी जयंती पर पेश है उनकी नैनीताल अल्मोड़ा यात्रा वृतांत का एक अंश-

जेल के कैदी जेल को जेल और जेल के बाहर के स्‍थान को ‘दुनिया’ के नाम से पुकारते हैं। इसी प्रकार पहाड़ के रहने वाले लोग अपने देश को ‘पहाड़’ और नीचे के देश को ‘देश’ के नाम से पुकारते हैं। या, यों कहिए कि जो स्‍थल उनकी दृष्टि से ‘देश’ के नाम से पुकारे जाने योग्‍य है, उमसें पहाड़ नहीं होना चाहिए। हमारे प्रांत में नैनीताल प्रसिद्ध पहाड़ी स्‍थान है। काठगोदाम स्‍टेशन पर ही नैनीताल के लिए देश और पहाड़ की सीमा अलग-अलग बँट जाती है। प्रांत की ग्रीष्‍म राजधानी होने के कारण नैनीताल की इतनी ख्‍याति है। पहाड़ के बहुत-से लोग उसे गुण में बहुत बढ़ा-चढ़ा मानने के लिए तैयार नहीं हैं। अलमोड़ा के किसी आदमी से बातचीत कीजिये, वह यही कहेगा कि यह अंग्रेजों की परख है, नहीं तो कहाँ अलमोड़ा और कहाँ नैनीताल! अलमोड़ा के जलवायु और पहाड़ों को वह दिव्‍य कहेगा और नैनीताल की उन चीजों को बहुत साधारण बतलावेगा। नैनीताल समुद्र तल से लगभग साढ़े छह हजार फीट ऊँचा है, अलमोड़ा इतना ऊँचा नहीं। एक मित्र का कहना है, अलमोड़ा साढ़े पाँच हजार फीट की ऊँचा है। किंतु अलमोड़ा का ना‍गरिक इस बात से अपने नगर की हार मानने के लिए तैयार न होगा। वह छूटते ही कहेगा कि इन्‍हीं पर्वतों पर यह घमंड! नैनीताल की पहाड़ियाँ कच्‍ची और बोदी हैं, बरसात में गिरती-पड़ती और जान की गाहक बनी रती हैं। बात बहुत कुछ सच भी है। आँधी-पानी में नैनीताल की पहाड़ियाँ टूटा-फूटा करती हैं। जून के तीसरे सप्‍ताह में, दो-तीन-दिन खूब पानी गिरा। सड़कों पर पहाड़ियों के ढोंके टूट-टूटकर आ गिरे। रास्‍ता तक रूक गया। यदि किसी राह चलते पर ये ढोंके गिरते-संतोष की बात इतनी ही है कि यहाँ राह चलना उतना नहीं होता जितना ‘देश’ के रास्‍तों में होता है – तो बेचारे बटोही की खैरियत न होती।

मस्‍तानी चाल से, आराम के साथ चलने वाली, रुहेलखंड-कुमायूँ रेलवे की रेलगाड़ी, यात्री को बहुत प्रात:काल अपने अंतिम स्‍टेशन काठगोदाम पर पहुँचा देती है। आधी रात को बरेली स्‍टेशन की चपटी भूमि और उसकी चहल-पहल में, आप अपना बिस्‍तरा, आप से आप रिजर्ब्‍ड रहने वाली, तीसरे दरजे की सीट पर बिछा लीजिए, और यदि आप रेल पर सो सकें, तो बस, सवेरे चिड़ियों के चहचहाने और भगवान अंशुमाली की लालिमा के उदय के साथ ही, आख्‍योपाख्‍यान के अलादीन के चिराग द्वारा किये गये आश्‍चर्य-कांड के सदृश, एक दृश्‍य आँख खोलते ही समाने आ जायेगा। ट्रेन से सिर निकालते ही मालूम पड़ेगा कि ऊँचे पहाड़ों की गोद में आ गये। मानों उनके लंबे हाथ आह्वान के लिए बढ़कर सामने से अगल-बगल की ओर फैल गये। चपटी जमीन से उठकर फैली हुयी ऊँची शिखाओं पर दृष्टि का पड़ना, हृदय और नेत्रों को आह्लाद का एक चमत्‍कारपूर्ण सामान प्रदान करना है। स्‍टेशन से बाहर होते ही सामने मोटर और लारियाँ दिखायी देती हैं। आज से 8-10 वर्ष पहले यदि आप इसी यात्रा के लिए आते, तो आपको इतनी मोटर और लारियाँ न दिखाई देतीं और न ये सब लोग। 15 मील के रास्‍ते को छोड़कर मोटर के 22 मील के रास्‍ते से नैनीताल जाया करते थे। वीर चट्टी तक तो एक ही रास्‍ता था – लगभग 13 मील तक-उसके बाद मोटर वाले 9 मील के रास्‍ते को पकड़ते थे, और दूसरे प्रकार के यात्री, कच्‍चे रास्‍ते को, जो सीधा था, केवल दो-ढाई मील था, किंतु था कुछ ऊँची चढ़ाई पर। पहले काठगोदाम पर ताँगे, इक्‍के और कुली काफी तादाद में मिला करते थे। अब वहाँ उनका नाम भी नहीं मिलता। पहाड़ी कुली ईमानदारी के पुतले थे, और अब भी, ‘देश’ के आदमियों की इतनी सोहबत पा चुकने के पश्‍चात् भी, उनका हृदय अभी तक बहुत नहीं बिगड़ा है। पहले तो यह हालत थी कि आप अपना कीमती से कीमती सामान उन्‍हें दे दीजिये, जहाँ उसे पहुँचाना होता, उसका पता लिखकर दे दीजिये, बस, इतना ही काफी होता, आप निश्चिंतता से चलिये। धीरे-धीरे भारी बोझ को लादकर पहाड़ की सीधी ऊँचाई को पार करता हुआ यह भारवाहक अधिक से अधिक संख्‍या तक आपका समस्‍त सामान आपके ठिकाने पर ज्‍यों-का-त्‍यों पहुँचा देगा। अतीत काल से चले आने वाले उसके इस काम और इस आचरण को देखकर, और इस समय भी, जहाँ मोटर और लारियों ने अपना धुआँ और अपने साथ ही अपना दुराचार नहीं पहुँचाया है, वहाँ अब भी सतयुगी बदरी-केदार से लेकर मसूरी के कलियुगी मार्ग तक, पहाड़ी मजदूर का वही सतयुगी रंग-ढंग है। उसे देखकर आप यही कहेंगे कि ईमानदारी की यह कितनी सजीव मशीन है! कहते हैं कि पहाड़ों में सर्वत्र सदाचार का यही पैमाना है। इस पैमाने में कहीं-कहीं घुन लग गया है, और वह लगा है, नीचे से जाकर, अपनी कलुषता के रंग में पहाड़ियों को रँगने वाले नीचे के आदमियों द्वारा।

मोटरों और लारियों से यात्रा तय तो होती है बहुत सुविधा के साथ और कम समय में, किंतु यदि संसार के सारे कामों की कीमत आने-पाई और घंटों और मिनटों ही के भाव से कूती न जाये, तब तो यह कहना अत्‍युक्ति न होगा कि इन मोटर और लारियों ने ‘देश’ को जो हानि पहुँचायी, सो तो पहुँचायी ही, हमारे पहाड़ों को उन्‍होंने बहुत भारी हानि पहुँचायी। निस्‍संदेह यात्रा जल्‍द कट जाती है। एक आदमी पर उतना खर्च नहीं पड़ता। दो रुपये में 22 मील की यात्रा आनंद से कर लीजिये! किंतु यह भी तो देखिये कि कितनों के मुँह से सुख का ग्रास छिन गया! एक दिशा की ओर और भी संकेत किया जाता है। मोटर और लारियों के प्रवेश ने पहाड़ों में कुटिल वर्ग के कुछ बड़े ही अनर्थकारी लोगों को उस सीधे-सादे प्रदेश में लूटने, खाने और व्‍यभिचार करने के लिए खुला छोड़ दिया है, किंतु इस हानि के संबंध में यदि आप यही समझ लें कि मोटर और लारियाँ न चलतीं, तो भी वह होती ही! 16 आना न होती, तो 15 आने से कम भी न होती। किंतु तो भी, दूसरी हानि और बड़ी हानि है, बहुत-से गरीब आदमियों के मुँह से रोटियों के छिन जाने की। कितने ताँगे और इक्‍केवाले थे, कितने टट्टू वाले और कुली थे! मेरे पास कोई निश्चित अंक नहीं, किंतु इन लोगों की तादाद कई सौ तक पहुँचती थी। एक-एक आदमी के पीछे एक-एक परिवार था। ताँगे के बनाने वाले लोहार और बढ़ई थे। घोड़ों के नालबंद थे। इस प्रकार हजारों का पेट चलता था। सब नहीं तो करीब-करीब अधिकांश, मोटर लारी की माया के सामने उड़नछू हो गये। उनका पता नहीं। मोटर लारी इनी-गिनी कुछ तो कानपुर की अंग्रेज कंपनी ब्रिटिश इंडिया कारपोरेशन की हैं और कुछ देशी और पहाड़ी लोगों की, जिनमें मुश्किल से सौ-डेढ़ सौ आदमी ही लगे हुए! उनका लाभ भी दस-पाँच आदमियों को मिलने वाला! देश में, यदि मोटर और लारियाँ बनती हों, तो भी कुछ संतोष हो कि इस प्रकार कुछ आदमियों का पेट कारखाने से तो चलता ही है। किंतु यह भी कहाँ, यहाँ तो मोटर और लारी के नाम पर जितने रुपये अलग हुए, वे सदा के लिए अलग हुए। सात समुद्र-पार इंग्‍लैंड और अमेरिका जा पहुँचे और उनसे अपने आदमियों का नाता सदा के लिए टूटा।

पहाड़ की शान देखते ही बन पड़ती है। हमारे लिए वे नयी चीज हैं और उनके लिए हमारी आँखें नयी चीज है। नीचे के आदमी और विशेषतया हाता के आदमी, जिनकी दृष्टि के सामने सदा चौपट भूमि रहती है, जिन्‍हें बाग-बगीचे चाहे जितने दिखायी दें और गंगा और यमुना की धारें चाहे जितना मन मोहती रहें, किंतु कभी ऊँचे टीले और गहरी खाइयों, आकाशचुम्‍बी गगन-चोटी और पाताल तक मुँह बाये हुए घाटियों के देखने का अवसर कभी नसीब ही नहीं होता, उनके लिए तो यह सब नया ही नया है। आकाश का सिरा जोड़ने वाले पहाड़ी ‘नोक’ से सफेद लकीर की शक्‍ल में खिंचे हुए आते झरने की उस तेज धारा से लेकर, जो आकर नीचे घाटी में उतर जाने वाले जल-स्रोत का जीवन-अंग बन जाती है और चलने वाले, हारे-थके प्‍यासे पथिक के कलेजे को शीतल और उसके श्रम को हर तरह हरने वाली है, उससे लेकर चारों ओर की, आँखों को रिझाने वाली हरियाली और छोटे-बड़े, टेढ़े-सीधे, तने हुए और झुके हुए अगणित वृक्षों तक, सभी नये ही नये हैं। तने हुए सीधे चीड़ के वृक्षों के अनंत समूह और पंक्तियाँ और एक कोने से निकलकर एकदम किसी विशाल पर्वत की ऊँची चोटी के सामने आ जाना और पार्श्‍व में गहरी, जहाँ तक आँख जाए वहाँ तक का पता न देने वाली, किसी गरी खंदक का निकल पड़ना मन पर एक ऐसे विचित्र रोमांचकारी हर्ष का प्रादुर्भाव करता है कि थोड़ी देर के लिए तो साधारण आदमी तक की सुध-बुध बिसर जाए। पहाड़ी दृश्‍य की निर्जनतायुक्‍त यह भैरव-विशालता शुष्‍क हृदय तक में कविता का स्रोत बहा सकती है! हिमालय की यह प्रारंभिक सूत्रावली ही जब इतनी सुंदर और मनोहारिणी है, तो आगे का कहना ही क्‍या।

इस वैभव को देखकर मन सद्प्रेरणाओं से और उल्‍लास से जितनी उड़ान मारता है, पहाड़ी प्रदेश की दशा देखकर उसे उतने ही नीचे भी आना पड़ता है। अकुलाकर कह उठता है कि तुम इतने ऊँचे होते हुए भी आज इतने नीचे, इतने दीन क्‍यों? इतनी दबी हुई गति क्‍यों? यही नहीं, पहाड़ों के निवासियों की दूर तक यही दशा है। कहते हैं, शिमला की पहाड़ियों के लोगों का भी यही हाल है और कश्‍मीर के सुंदरता के टुकड़ों की भी यही बुरी दशा है। सभी दबे हुए हैं। सभी पशु के समान हाँके जा सकते हैं। घोर दरिद्रता ने उन्‍हें पीस ही रखा है, किंतु शताब्दियों की दासता और पराधीनता भी उन्‍हें मनुष्य से कीड़े बनने के लिए विवश किए हुए है। पराधीनता एकांगी नहीं होती। वह चौमुखी बनकर देशों और जातियों को हड़पती है। सब तरफ की पराधीनता ने पहाड़ वालों को पेट के बल रेंगने वाला बना दिया।

जब इनकी इस दीन अवस्‍था पर ध्‍यान जाता है और जब ऊँचे उठे हुए पर्वत-शिरों पर उनके वर्तमान वैभव और उनके द्वारा बैठाए जा सकने वाले आतंक पर विचार जाता है, तब मन यही पूछने के लिए विवश होता है कि इस प्रदेश ने अपना शिवाजी क्‍यों नहीं पैदा किया? पश्चिमी घाट के छोटे-छोटे टीलों ने जंगल की आग की तरह बढ़ती हुयी बादशाही सत्‍ता को ठंडा कर देने तथा अपने भीतर अपने आदमियों की सत्‍ता और उनके भारी भविष्‍यत् की रक्षा के लिए, अपने उत्‍साह और शौर्य के पुतले के रूप में शिवाजी के अस्तित्‍व को ऊपर उठा दिया, जिसने किले मारे और मैदान मारे, देश फतह किए और साम्राज्‍य की बुनियाद डाली और यह सब कुछ किया अपने छोटे-छोटे पर्वतों की आड़ में, उनकी सहायता से, उनके दर्रे और वृक्षों की सहायता से। तब फिर, ऐसा ही काम, हिमालय के उच्‍च श्रृंगों की आधारशिला के प्रदेश में क्‍यों नहीं हुआ? यहाँ के ऊँचे श्रृंगों पर से शत्रुओं की सेनाओं के मार्ग रोकने के लिए पत्‍थर के ढोंके क्यों नहीं गिराए गये? क्‍यों नहीं उनका रास्‍ता रोका गया? क्‍यों नहीं उन्‍हें खंदकों में, ऐसे गड्ढों में जो आज तक मुँह बाए पसरे हुए हैं और जिनकी क्षुधा अभी तक नहीं मिटी, उन्‍हें गिराया गया? क्‍यों नहीं उनमें शिवाजी और दुर्गादास, राणा प्रताप और तात्‍या टोपे की तरह वीर पैदा हुए? इन प्रश्‍नों का कोई उत्‍तर नहीं मिलता। पर्वत की ये चोटियाँ इन्‍हें सुनती हैं, गुनती हैं और मूक रहती हैं। राह चलता यात्री यदि उनसे ये प्रश्‍न बारंबार करता है, तो ऊँची चोटियों से उसकी वाणी टकराकर केवल प्रतिध्‍वनि उठाती है और भासित होता है कि मानों वह चिढ़ाती-सी है।

Source- Hindi samay

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