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जयंती : टिहरी में ज्ञान और मोक्ष दोनों पाया था स्‍वामी रामतीर्थ ने

Pen Point, Dehradun : पंजाब के एक कॉलेज में गणित के प्रोफेसर बनने तक तीर्थराम के जीवन में सबकुछ सामान्‍य चल रहा था। एक रोज लाहौर में उन्‍होंने स्‍वामी विवेकानंद की बातें सुनी और उनके साथ कुछ समय बिताने का मौका मिला। यही से उन्‍होंने अद्वैत वेदांत को पढ़ना गुणना शुरू कर दिया। इसके साथ ही तुलसी,सुर,नानक, शम्‍स तबरेज, मौलाना रूसी, इमर्सन,वाल्‍ट ह्विटमैन, थोरो हक्‍सले डार्विन जैसे विद्वानों के दर्शन को गहराई से समझा। गीता, उपनिषद, ष्‍डदर्शन, योग वाशिष्‍ठ को आत्‍मसात कर लिया। प्रोफेसर तीर्थ राम की अद्वैतवाद को जानने समझने की चाह बढ़ती चली गई ओर उन्‍होंने उर्दू में एक मासिक पत्र अलिफ निकालना शुरू कर दिया।

सन् 1901 में वह दिन आया जब उन्‍होंने लाहौर को अलविदा कह हिमालय की ओर कदम बढ़ा दिये। मसूरी होते हुए अलकनंदा और भागीरथी के संगम पर पहुंचे, यहां से उनका मन गंगोत्री जाने का था। लेकिन किसी कारणवश तीर्थराम टिहरी नगर के बाहर कोटी में ही रूक गए। जहां भिलंगना की लहरों का संगीत सुनाई दे रहा था। रात के दूसरे पहर में तीर्थराम का अपनी आत्‍मा से साक्षात्‍कार हुआ। उनके मन की सभी दुविधाएं मिट गई और हर सवाल का जवाब उन्‍हें साफ नजर आने लगा। अगली सुबह तक उन्‍होंने खुद को ईश्‍वर को अर्पित कर दिया और प्रोफेसर तीर्थ राम स्‍वामी रामतीर्थ बन गए। टिहरी में ही उन्‍होंने संन्‍यास ले लिया।

स्‍वामीराम तीर्थ अब घोर तपस्‍या में जुट गए। इसी प्रवास के दौरान उनकी मुलाकात टिहरी नरेश कीर्ति शाह से हुई। कीर्ति शाह टिहरी रियासत के इतिहास में सबसे पढ़े लिखे राजा के रूप में जाने जाते हैं। संत और विद्वान लोगों का सम्‍मान करने वाले कीर्तिशाह खुद उस वक्‍त तक अनिश्‍वरवादी थे। लेकिन स्‍वामी रामतीर्थ का ही असर था कि वो पूरी तरह आस्तिक हो गए। टिहरी नरेश ने ही स्‍वामी रामतीर्थ के जापान में होने वाले विश्‍व धर्म सम्‍मेलन में शामिल होने के लिये जरूरी इंतजाम किये थे। इसके बाद वे अमेरिका और मिश्र भी गए। इस विदेश यात्रा में उन्‍होंने भारतीय संसकृति और दर्शन की पताका फहराई। उनका व्‍याहारिक वेदांत उस दौर में खास चर्चित हुआ था।

राम जोड़ने के लिये हैं बांटने के लिये नहीं

सन् 1904 में स्‍वामी रामतीर्थ भारत लौटे। देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में उन्‍होंने राम नाम की अलख जगाई। उन्‍होंने राम के नाम पर समाज को एकजुट होने को कहा। उन्‍होंने कहा कि भारत में जितनी भी सभाएं हैं सब राम की अपनी हैं। राम मतैक्य के लिए हैं, मतभेद के लिए नहीं; देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की, राष्ट्रधर्म और विज्ञान साधना की, संयम और ब्रह्मचर्य की।

टिहरी से अगाध प्रेम फिर उन्‍हें यहां खींच लाया।

टिहरी (गढ़वाल) से उन्हें अगाध स्नेह था। उन्‍हें राजा की ओर से विशेष आश्रय मिला था, भिलंगना के तट पर वे फिर से तपस्‍यारत हो गए। उन्‍हें आध्‍यात्मिक प्रेरणा देने वाली टिहरी ही उनकी मोक्ष स्‍थली भी बनी। सन्‍ 1906  में दीपावली का दिन था। स्‍वामी रामतीर्थ ने मृत्यु के नाम एक सन्देश लिख छोड़ा था। उसके बाद महज 33 वर्ष की उम्र में उन्‍होंने भिलंगना में जलसमाधि ले ली।

जन्‍म और मृत्‍यू दीपावली के दिन

स्वामी रामतीर्थ का जन्म सन् का जन्‍म भी दीपावली के दिन ही हुआ था। पंजाब के गुजरावालां जिले के मुरारीवाला गांव में 22 अक्‍टूबर 1873 में एक बेहद गरीब ब्राह़मण परिवार में हुआ था। बचपन बेहद कठिनाइयों में बीता, लेकिन मेधावी होने के कारण उनकी पढ़ाई जारी रही। भूख और आर्थिक बदहाली के बीच भी उन्होंने अपनी माध्यमिक और फिर उच्च शिक्षा पूरी की। उन्‍होंने पंजाब यूनिवर्सिटी में टॉप किया था। जिसके लिये उन्‍हें वजीफा मिलना शुरू हुआ। फिर उन्‍होंने अपने प्रिय विषय गणित में एमए कर उसी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बन गए थे।

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