मंगलवार से शुरू हो रही कांवड़ यात्रा, जानिए यात्रा के पीछे की कहानियां
– हर साल आयोजित होने वाली कांवड़ यात्रा के दौरान लाखों की संख्या में शिव भक्त पहुंचते हैं गंगा जल भरने हरिद्वार, गंगोत्री, तमाम दुश्वारियों को पार कर पैदल करते हैं यात्रा
PEN POINT, DEHRADUN : कल यानि मंगलवार से विधिवत रूप से कांवड़ मेला शुरू हो रहा है। कांवड़ मेले की शुरूआत से पहले ही हरिद्वार में देश के अलग अलग हिस्सों से शिव भक्त कांवड़ लेने पहुंच रहे हैं। इस बार कांवड़ मेला बीते सालों के मुकाबले लंबा चलेगा। कांवड़ मेले के दौरान कोई अराजकता न फैले और गंगा जल लेने पहुंचने शिव भक्तों को किसी मुश्किलों का सामना न करना पड़े इसके लिए भी उत्तराखंड पुलिस ने सारी तैयारियां पूरी करने का दावा किया है।
कल यानि मंगलवार से शुरू हो रहे कांवड़ मेले के पीछे कई कहानियां छीपी हुई है। हर साल सावन मास की दस्तक के साथ ही शिव भक्त बड़ी संख्या में हरिद्वार, गंगोत्री, गोमुख, केदारनाथ गंगा जल लेने पहुंचते हैं। सावन के दौरान भारी बारिश, दरकते पहाड़, तमाम दुश्वारियों को पार कर शिव भक्तों के इस हुजूम का उत्साह देखते ही बनता है, पहाड़ियों से बरसते पत्थर, उफनते नालों, विषम परिस्थितियों के बावजूद पैदल ही कांवड़ लेकर पैदल चल रहे कांवड़ियों का यह हुजूम अगले महीने भर तक सड़कों पर दिखता रहेगा। आज जानते हैं कि आखिर कांवड़ की परंपरा कैसे शुरू हुई और इसके पीछे क्या कहानियां हैं –
एक मान्यता के अनुसार, कांवड़ की शुरुआत भगवान परशुराम ने की थी। भगवान परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर पुरा महादेव के मंदिर पर चढ़ाया था। उस समय श्रावण मास ही चल रहा था। इसी के बाद से कांवड़ यात्रा शुरू हुई।
कांवड़ यात्रा को लेकर दूसरी मान्यता
कांवड़ यात्रा और जलाभिषेक को लेकर दूसरी मान्यता समुद्र मंथन से जुड़ी हुई है। समुद्र मंथन भी श्रावण मास में ही हुआ था। मंथन से निकले विष को सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान शिव ने अपने कंठ में समाहित किया था, जिससे उनका गला नीला हो गया था और इसके बाद ही भगवान शंकर नीलकंठ महादेव कहलाए। विष की गर्मी को शांत करने के लिए देवी-देवताओं ने विभिन्न नदियों का जल लाकर भगवान शिव पर चढ़ाया और इसी के साथ कांवड़ लाकर भगवान शिव को अर्पित करने की परंपरा शुरू हुई।
यही, नहीं कांवड़ यात्रा और कांवड़ यात्रा के आखिर में जलाभिषेक को लेकर तीसरी कहानी भी प्रचलित है। तीसरी मान्यता के अनुसार सबसे पहले त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने श्रावण मास में अपने माता-पिता की इच्छा पूरी करने के लिए कांवड़ यात्रा की थी। वे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार ले गए थे। वहां उन्होंने माता पिता को गंगा में स्नान करवाया और लौटते समय श्रवण कुमार गंगाजल लेकर आए, जिसे उन्होंने माता-पिता के साथ शिवलिंग पर चढ़ाया। उसके बाद से ही यह यात्रा और कांवड़ लाने की प्रथा प्रचलन में आई।
पहले सिर्फ पैदल होती थी यात्रा
आज भी ज्यादातर कांवड़ यात्रा पैदल ही होती है। चाहे गोमुख से जल भरकर लाने के बाद उस शिवालय तक पैदल ही जाना जहां सावन की शिवरात्रि को जलाभिषेक करना हो, इसके लिए ज्यादातर कांवड़ियां आज भी पैदल ही यात्रा करते हैं। इस दौरान वह बेहद कठिन नियमों का पालन करते हैं। हालांकि, पैदल कांवड़ के अलावा कई अन्य तरीकों से भी कांवड़ यात्राएं की जाती है।
कांवड़ यात्रा
देश में तीन कांवड़ यात्राएं खूब प्रसिद्ध हैं। देवघर, ग़रीबनाथ और डाकबम। बिहार में कांवड़ यात्रा सुल्तानगंज से देवघर और पहलेजा घाट से मुज़फ़्फ़रपुर तक होती है। बिहार में श्रद्धालु सुल्तानगंज से गंगाजल भरकर क़रीब 108 किलोमीटर पैदल यात्रा कर झारखंड के देवघर में बाबा बैद्यनाथ (बाबाधाम) में जल चढ़ाते हैं। वहीं सोनपुर के पहलेजा घाट से मुजफ्फ़रपुर के बाबा गरीबनाथ, दूधनाथ, मुक्तिनाथ, खगेश्वर मंदिर, भैरव स्थान मंदिरों पर भक्त गंगा जल चढ़ाते हैं।
यहां ‘डाक बम’ कांवड़ का भी चलन है।
डाकबम कांवड़ में कांवड़िए गंगाजल भरने के बाद अगले 24 घंटे के अंदर उसे भोलेनाथ पर चढ़ाने के संकल्प लिए दौड़ते हुए इन शिवालयों में पहुंच कर शिवलिंगों पर यह जल अर्पित करते हैं उन्हें डाकबम कांवड़ या डाक कांवड़ कहते हैं।
आज के समय में भले ही कांवड़ यात्रा कई तरह से की जाने लगी हो, लेकिन पुराने समय में यह यात्रा पैदल ही की जाती थी।
यात्रा के नियम
कांवड़ यात्रा के नियम बेहद कठिन होते हैं। जितनी कठिन कांवड़ यात्रा है, उतने ही कठिन इसके नियम भी हैं। बिना नियम पालन के की जाने वाली कांवड़ यात्रा अपूर्ण रहती है और भगवान की कृपा प्राप्त नहीं होती है।यात्रा के दौरान भक्तों को सात्विक भोजन करना होता है। मांसाहार, शराब के सेवन से बचना होता है। रास्ते में कहीं भी कांवड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता है। विश्राम के समय भी कांवड़ को स्टैंड या पेड़ पर लटकाना होता है। अगर कांवड़ को नीचे रखा तो उसका उद्देश्य सफल नहीं हो पाता। ऐसे में दोबारा गंगाजल भरकर यात्रा शुरू करनी पड़ती है। जिस मंदिर में अभिषेक करने का संकल्प लिया जाता है, वहां तक नंगे पांव ही चलकर जाना होता है। स्नान के बाद ही कांवड़ को छुआ जाता है। यात्रा के दौरान कंघा, तेल, साबुन इत्यादि का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।
उत्तराखंड पुलिस की तैयारी
कांवड़ यात्रा को लेकर सबसे ज्यादा भीड़ हरिद्वार के लिए उमड़ती है तो गोमुख, गंगोत्री जल लेने के लिए भी बड़ी संख्या में शिव भक्त पहुंचते हैं। कांवड़ मेला शुरू होते ही हरिद्वार में शिव भक्तों की भीड़ हर दिन भारी संख्या में उमड़ती रहती है। ऐसे में व्यवस्थाओं को चाक चौबंद करने में प्रशासन को भी खूब पसीना बहाना पड़ता है। मंगलवार से शुरू हो रही कांवड़ यात्रा के लिए इस बार उत्तराखंड पुलिस ने भी सारी तैयारियां पूरी करने का दावा किया है। पूरे मेला क्षेत्र को 12 सुपर जोन, 33 जोन व 153 सेक्टर में बांटा गया है। सुपर जोन की जिम्मेदारी एएसपी स्तर के अधिकारी संभालेंगे। जोन की जिम्मेदारी सीओ एवं इंस्पेक्टर और सेक्टर की एसएचओ, एसओ और एसएसआई स्तर के अधिकारियों को सौंपी गई है। मेला क्षेत्र में बीडीएस, डॉग स्क्वायड की पांच टीम नियुक्त की गई हैं। आतंकी घटनाओं की रोकथाम के लिए एंटी टेरिस्ट स्क्वायड की दो टीमें मेला क्षेत्र में सक्रिय रहेंगी और हर संदिग्ध व्यक्ति अथवा परिस्थिति से निपटने के लिए पूरे समय तैयार रहेंगी।